ई-कचरा निपटान के लिए बने बेहतर रणनीति

Friday, Sep 10, 2021 - 03:58 AM (IST)

हम आज भी कोरोना महामारी से मुक्त नहीं हुए लेकिन अभी से भविष्य में दूसरी महामारी की चिंता बढ़ती जा रही है। पर्यावरणविदों ने पहले ही चेतावनी दी थी कि अगर ई-कचरा और मैडिकल वेस्ट घरों, अस्पतालों से पर्यावरण में पहुंच गए तो इसके परिणाम भीषण होंगे और सदियों तक रहेंगे। पिछले दिनों राष्ट्रीय बाल अधिकार एवं संरक्षण आयोग ने अपने एक अध्ययन के आधार पर चेताया था कि अगर समय रहते ई-कचरे के खतरनाक पक्ष पर ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले समय में लाखों बच्चे कैंसर या ऐसे ही अन्य खतरनाक रोगों की जद में होंगे। 

दुनियाभर में जैसे-जैसे इलैक्ट्रॉनिक उत्पादों की मांग बढ़ रही है, उसके साथ ही इलैक्ट्रॉनिक कचरा भी बढ़ता जा रहा है। ई-वेस्ट रिपोर्ट 2020-21 बताती है कि वर्ष 2019 में 5.36 करोड़ मीट्रिक टन कचरा पैदा किया गया था, जोकि पिछले 5 सालों में 21 फीसदी बढ़ गया है। अनुमान है कि 2030 तक इलैक्ट्रॉनिक कचरे का उत्पादन 7.4 करोड़ मीट्रिक टन तक पहुंच जाएगा। ई-कचरे में वे वस्तुएं भी शामिल होती हैं जिनके जीवन का अंत हो चुका होता है, जैसे कि टी.वी., फ्रिज, कूलर, ए.सी., मॉनिटर, कम्प्यूटर, कैलकुलेटर, मोबाइल, इलैक्ट्रॉनिक मशीनों के कलपुर्जे आदि। 

उल्लेखनीय है कि असुरक्षित ई-कचरे की रीसाइकिं्लग के दौरान उत्सॢजत रसायनों के संपर्क में आने से तंत्रिका तंत्र, रक्त प्रणाली, गुर्दे और मस्तिष्क विकार, श्वसन संबंधी विकार, त्वचा विकार, गले में सूजन, फेफड़ों का कैंसर, दिल आदि को नुक्सान पहुंचता है। मोबाइल फोनों में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक और विकिरण पैदा करने वाले कलपुर्जे सैंकड़ों साल तक जमीन में स्वाभाविक रूप से घुल कर नष्ट नहीं होते। बता दें कि सिर्फ एक मोबाइल फोन की बैटरी ही 6 लाख लीटर पानी आसानी से दूषित कर सकती है। गौरतलब है कि भारत विश्व का सबसे बड़ा मोबाइल उपभोक्ता देश है। यहां पर वर्ष में 1.5 मिलियन टन से भी अधिक ई-कचरा तैयार होता है। 

वर्ष 2011 में ई-कचरा प्रबंधन के लिए कुछ नियम बनाए गए थे, जिनमें उत्पादों पर राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों से मिलकर अपने उत्पादों के जीवन के अंत का प्रबंधन, जो पर्यावरणीय रूप से अनुकूल हो, ऐसे उत्पादों का मानदंड तैयार किया गया। उसके बाद ही ई-कचरा प्रबंधन नियम 2016 बनाया गया। बहरहाल, इसमें कचरे के प्रबंधन को संबल प्राप्त हुअ। साथ ही ‘उत्पाद उत्तरदायित्व संगठन’ के नाम से व्यवस्था भी बनाई गई। इसके अलावा केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड यह निरीक्षण करेगा कि बाजार में ऐसे कौन से उपकरण उपलब्ध हैं, जिनका निस्तारण संभव नहीं है तथा जो मानव और पर्यावरण के लिए खतरनाक हैं। उन सभी वस्तुओं को चिन्हित कर बाजार से वापसी की जाएगी। 

दुनिया में सबसे ज्यादा इलैक्ट्रॉनिक कचरा पैदा करने वाले शीर्ष 5 देशों में भारत के अलावा चीन, अमरीका, जापान और जर्मनी भी हैं। चिंता की बात तो यह है कि भारत के कुल ई-कचरे का केवल 5 फीसदी ही खराब बुनियादी ढांचे और कानून के चलते रिसाइकिल हो पाता है, जिसका सीधा प्रभाव पर्यावरण में अपरिवर्तनीय क्षति और उद्योग में काम करने वाले लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है।भारत को ई-कचरे की समस्या के स्थायी समाधान के लिए यूरोपीय देशों में प्रचलित व्यवस्था की तर्ज पर पुनर्चक्रण तथा विधि प्रक्रिया विकसित करनी चाहिए, जहां इलैक्ट्रॉनिक उत्पादों के विनिर्माण में संलग्न संगठनों को ही इन उत्पादों को उनके अनुपयोग होने के पश्चात उनके पुनर्चक्रण के लिए जवाबदेह बनाया जाता है। या तो कम्पनियां इन उत्पादों को स्वयं पुनर्चक्रित करती हैं या फिर इस कार्य को किसी तीसरे पक्ष को सौंप देती हैं। 

कई देशों में अपशिष्ट ई-कचरे से संबंधित शुल्क का भुगतान इसे इकट्ठा करने या लाने-ले जाने के लिए नहीं किया जाता बल्कि कचरे के निपटान के लिए किया जाता है। उदाहरण के लिए, स्वीडन और अमरीका में भराव क्षेत्र में कचरा फैंकने के लिए भारी प्रवेश शुल्क वसूल किया जाता है। स्वीडन में ‘भराव क्षेत्र कर’ भी लगाया जाता है। भारी भरकम प्रवेश शुल्क नगर निगमों को भराव क्षेत्र में कचरा फैंकने से रोकता है। इसलिए, अब भारत को भी इसी तरह ई-कचरा प्रबंधन के लिए जल्द से जल्द उचित निर्णय लेने की आवश्यकता है क्योंकि हम कोरोना वायरस से आज नहीं तो कल मुक्त हो लेंगे लेकिन तब तक हम अपने इर्द-गिर्द मैडिकल वेस्ट और ई-वेस्ट का अंबार लगा चुके होंगे।-लालजी जायसवाल
 

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