वास्तविकता के आधार पर बनें बजट योजनाएं

Saturday, Jan 28, 2017 - 01:20 AM (IST)

बजट सत्र शुरू होने को है। जाहिर है कि उसमें कुछ नई योजनाएं होंगी, वायदे होंगे और यह दिखाने की कोशिश होगी कि सरकार लोगों को खुशहाल बनाकर ही छोड़ेगी। इसके साथ ही उन योजनाओं के बारे में जो बीते दिनों शुरू की गई थीं, या तो कोई जिक्र नहीं होगा या फिर इधर-उधर से आंकड़े जुटाकर यह सिद्ध करने की कोशिश होगी कि सरकार काम कर रही है और बस उन योजनाओं के पूरे होने भर की देर है, थोड़ा और इंतजार करना होगा!

असल में हमारे यहां ज्यादातर योजनाएं वातानुकूलित कमरों में स्वादिष्ट व्यंजन चखते हुए नौकरशाही द्वारा बनाई जाती हैं और अब क्योंकि उन्हें मालूम होता है कि इनका हकीकत से ज्यादा वास्ता नहीं है तो इसके लिए उस पर थोड़ा-सा चमकीला मुलम्मा चढ़ाकर मंत्रियों के सामने लुभावनी टिकिया की तरह रख कर मंजूर करा लिया जाता है। उसके बाद मंत्री या फिर प्रधानमंत्री घोषणा कर देते हैं और ज्यादातर उन्हें भुला दिया जाता है। अब तक तो यही रीति-रिवाज रहा है।

आवास योजनाएं: उदाहरण के लिए पिछले दिनों प्रधानमंत्री आवास योजना के नाम पर एक करोड़ घर बनाने की योजना की घोषणा की गई। ये घर किन्हें दिए जाएंगे, जाहिर है कि बेघरों को ही मिलेंगे। बेघर कौन हैं, वह जिसके पास रहने को घर नहीं है। अब असली पेंच यही है और वह यह कि क्या योजना बनाने से पहले इस बात की छानबीन की गई कि जिस बेघर के लिए घर बनाने की बात कर रहे हैं उसे वास्तव में घर की जरूरत है भी या नहीं। 

इसके साथ ही उसे यदि घर चाहिए तो वह कहां होना चाहिए और कैसा हो? इसे सरलता से समझने के लिए जरा उन पिछली आवास योजनाओं पर नजर डालिए जो जिस गरीब को छत देने के नाम पर चलाई गईं, क्या वह उनमें रह रहा है। केवल मामूली प्रतिशत को छोड़कर उन घरों में वह व्यक्ति नहीं रह रहा होता है जिसके नाम पर घर दिया गया था। 

हकीकत यह है कि ज्यादातर घर या तो किसी को बेचे जा चुके हैं या फिर उनमें कोई किराएदार रह रहा है अथवा माफिया ने पूरी बस्ती पर कब्जा कर उसे अमीरों को बेचे जाने लायक कालोनी में बदल दिया है और जबरदस्त मुनाफा कमाने का जरिया बना लिया है। इसकी वजह क्या है। वजह यह है कि जिस तथाकथित गरीब आदमी को घर देने के लिए योजना शुरू की गई उसे नौकरी, रोजगार या मजदूरी के लिए उस जगह से बहुत दूर जाना और रहना होता है जहां उसके लिए सरकार उसे घर बनाकर देना चाहती है। 

अब सरकारी योजना है तो वह व्यक्ति पीछे क्यों रहे, कागजी कार्रवाई करता है, घर अपने नाम कराता है और उसे वहां रहना तो है नहीं तो उसकी सौदेबाजी कर लेता है क्योंकि वह रहेगा तो वहां जहां उसे रोजी-रोटी कमानी है। अगर उसे इस आबंटित घर में रहना पड़े तो आने-जाने में ही उसका इतना समय और किराया-भाड़ा लगेगा कि उसकी कमर ही टूट जाएगी।

 
इसका मतलब यह हुआ कि गरीब आदमी की प्राथमिकता घर नहीं है बल्कि उसका रोजगार है जिससे वह अपना और अपने परिवार का पेट भर सकता है, मतलब यह कि घर से उसकी भूख नहीं मिट सकती। रहने की जगह तो वह वहीं चुनेगा जहां उसकी रोजी-रोटी का इंतजाम है। इसके विपरीत यदि यह घोषणा की जाती कि गरीब आदमी के लिए एक करोड़ घर नहीं बल्कि कुछ हजार या लाख ऐसी इकाइयां खोल दी जाएंगी जो उसे रोजगार देंगी तो कहीं बेहतर होता। 

रहने के लिए तो कहीं किराए पर जगह लेकर या छोटा-मोटा झोंपड़ा बनाकर भी रह सकता है, बस उसे आमदनी का जरिया चाहिए, नौकरी करने या काम-धंधा करने की सहूलियत चाहिए। 
अब यह जो एक करोड़ घर बनाने की योजना है उसका लाभ ठेकेदारों, बिल्डिंग मैटीरियल सप्लायरों से लेकर माफिया को ही ज्यादा होने वाला है और यह असली लाभार्थी के नाम पर चांदी काटने का बेहतरीन जुगाड़ है। यदि यकीन न हो तो सरकार अपना असला भेजकर पिछली आवास योजनाओं की तहकीकात करा सकती है कि जिनके लिए ये योजनाएं बनीं वहां अब कौन बसा हुआ है।

अब हम एक दूसरी बात करते हैं और वह है भवन निर्माण में इस्तेमाल होने वाली सामग्री की, जो सस्ती भी होनी चाहिए और टिकाऊ भी हो, जोकि ज्यादातर मुमकिन नहीं होता क्योंकि कहावत  है कि ‘सस्ता रोवे बार-बार, महंगा रोवे एक बार।’ जो निर्माण सामग्री लगती है वह गुणवत्ता में कम होने से ज्यादा समय तक टिकती नहीं और बढिय़ा क्वालिटी की लगी तो कीमत बढऩे से सरकार की लोकप्रियता में कमी आने का खतरा हो जाता है तो फिर जैसा है वैसा चलने दिया जाता है और केवल टारगेट पूरा करने के लिए योजना की पूर्णाहूति करने की दिशा में काम चलता रहता है।

स्वच्छ शौचालय : एक मिसाल और देना ठीक होगा। पिछले दिनों स्वच्छ शौचालय की मुहिम के तहत लाखों लोगों ने खुले में शौच की जहमत से बचने के लिए अपने घर में शौचालय बनाने की पहल की। एक सरकारी लैबोरेटरी ने शौचालय में इस्तेमाल की जा सकने वाली एक ऐसी सीट बनाई जो सस्ती भी थी और उसमें सफाई के लिए पानी भी कम लगता था, लिहाजा काफी उपयोगी थी। 

परन्तु इस सीट की मांग ही नहीं थी क्योंकि देखने में यह ज्यादा आकर्षक नहीं थी और दुकानदार को इसे बेचने में कोई रुचि नहीं थी क्योंकि मुनाफा कम होता था। इसके बारे में प्रचार न होने से लोगों को पता भी नहीं था, इसलिए इसकी न तो बिक्री हुई और न ही ग्राहक ने डिमांड की। अब यह अनुसंधान केवल उस प्रयोगशाला की एक उपलब्धि के तौर पर अलमारी में बंद हो गया और उस पर जो भी खर्च हुआ होगा वह व्यर्थ गया।

शौचालय बनाने की योजना भी आधे-अधूरे मन से बनाई गई थी क्योंकि यहां भी वही नियम लागू होता है कि जिसके लिए आप शौचालय बनाने की बात कर रहे हैं यह तो पता कर लेना चाहिए कि उसे उसकी जरूरत भी है या नहीं। यदि वह इसे बना भी ले तो क्या ऐसी सीवरेज व्यवस्था है जो मलमूत्र के निपटान में कारगर हो। 

आंकड़े बताते हैं कि स्कूलों में शौचालय बने लेकिन उनका इस्तेमाल नहीं किया जाता क्योंकि उनमें सफाई के लिए बहुत पानी लगता है जो उपलब्ध नहीं है और सीवरेज न होने से ये शौचालय गंदगी का पर्याय बन गए हैं। यही हाल घरों में बने शौचालयों का हुआ। बन तो ये गए लेकिन इस्तेमाल में नहीं आ सके।

इस योजना को लागू करने से पहले गांव-देहात में सीवर लाइन बिछाने से लेकर गंदगी से निपटने की योजना बनानी चािहए थी। अब यह तो किया नहीं, इसलिए घर का शौचालय स्टोर रूम बन गया और लोग पहले की तरह खुले में शौच जाते हैं। अब आप बड़े -बड़े फिल्मी सितारों से कितना भी रेडियो, टी.वी. पर प्रचार करा लीजिए, स्थिति में परिवर्तन तो होने से रहा और शौचालयों की संख्या की बाजीगरी दिखाकर चाहे जितना श्रेय ले लें लेकिन मकसद पूरा होना तो दूर, बदलाव के संकेत भी ज्यादा नहीं दिखेंगे।

बेरोजगारी: अब हम एक और बहुप्रचारित घोषणा का जिक्र करते हैं और वह है देश से बेरोजगारी का नामो-निशान मिटाने का संकल्प जो प्रत्येक राजनीतिक दल लेता है और प्रदेश तथा केन्द्र की हरेक सत्तारूढ़ सरकार करती है। बेरोजगारी दूर करने के लिए शिक्षा का प्रचार-प्रसार होना चाहिए, सही बात है, पढ़ाई-लिखाई से ही रोजगार की नींव पड़ती है। तो फिर इस बात के लिए किसे दोष दिया जाए जब यह देखने को मिलता है एक चपड़ासी के पद के लिए लाखों आवेदन आते हैं जिनमें बड़ी-बड़ी डिग्रियां रखने वाले व्यक्ति शामिल हैं। 

इसका मतलब क्या यह नहीं है कि हमारी व्यवस्था ने ऐसी शिक्षा नीति चलाई है जो एक चपड़ासी से ऊपर की नौकरी नहीं दिला सकती? यह बात कड़वी जरूर है, लेकिन सच है कि आज सरकारी संस्थानों में जितने पद खाली हैं, उन्हें अधिकतर इसलिए नहीं भरा जा सकता क्योंकि हमारी शिक्षा व्यवस्था ने ऐसेलोग ही तैयार नहीं किए जो उन पदों पर बिठाए जा सकें।
इस बजट में शिक्षा को लेकर भी घोषणाएं हो सकती हैं लेकिन उससे पहले जरूरी है कि ऐसी योजनाएं बननी चाहिएं जिनसे शिक्षा के स्तर में सुधार हो और उसे पाने के बाद रोजगार मिलने में आसानी हो।

हमारे देश में जो निजी संस्थान हैं, जब उन्होंने यह देखा कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली से उन्हें ऐसे कर्मचारी नहीं मिल सकते जो उनकी अपेक्षा पर खरे उतर सकते हों तो उन्होंने अपने यहां प्राइमरी से लेकर सैकेंडरी तक की शिक्षा पाए लोगों को ट्रेङ्क्षनग और इंटर्नशिप देकर अपने उद्योग की जरूरत के अनुसार प्रशिक्षित करने की पहल की और आज वे सफलतापूर्वक काम कर रहे हैं।

हमारे प्रधानमंत्री देश और विदेश में अक्सर इस बात का जिक्र करते हैं कि भारत युवा शक्ति का देश है। बात भी सही है लेकिन क्या यह युवाशक्ति उन विदेशी कम्पनियों की कसौटी पर खरी उतर सकती है जो हमारे देश में आकर स्थानीय लोगों को रोजगारदेने के भरोसे उद्योग लगाने की पहल करना चाहते हैं? शायद बहुत कम! 
 

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