पुराने घावों को फिर से कुरेदेगी बगराम की महत्वाकांक्षा
punjabkesari.in Saturday, Oct 18, 2025 - 04:13 AM (IST)
बगराम एयरबेस पर छिड़ी बहस ने एक बार फिर अफगानिस्तान को वैश्विक रणनीतिक गणनाओं के केंद्र में ला खड़ा किया है। अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा इस बेस पर नियंत्रण वापस पाने की फिर से की गई मांग, जिसे देश ने 2021 में अपनी जल्दबाजी में वापसी के दौरान छोड़ दिया था, ने पूरे क्षेत्र में व्यापक चिंता और विरोध को जन्म दिया है। पहली नजर में जो अमरीकी सैन्य महत्वाकांक्षा का एक अलग-थलग दावा लग सकता है, वह वास्तव में चीन को नियंत्रित करने और उस क्षेत्र में अमरीकी प्रभाव को फिर से स्थापित करने की वाशिंगटन की व्यापक रणनीति से गहराई से जुड़ा है जहां उसकी उपस्थिति में तेजी से गिरावट आई है।
फिर भी, अधिकांश क्षेत्रीय शक्तियों-भारत, चीन, रूस, ईरान और यहां तक कि पाकिस्तान के लिए ट्रम्प के इस कदम को एक अस्थिरकारी प्रस्ताव के रूप में देखा जा रहा है जो पुराने जख्मों को फिर से कुरेदने और नई रणनीतिक अनिश्चितताएं पैदा करने का जोखिम उठाता है। जब अमरीका ने 2020 में तालिबान के साथ दोहा समझौते पर हस्ताक्षर किए तो यह अफगानिस्तान में उसके लंबे और महंगे जुड़ाव में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। खुद ट्रम्प जिन्होंने इस समझौते पर बातचीत की, ने इसे अमरीका के ‘हमेशा चलने वाले युद्धों’ को समाप्त करने का एक रास्ता बताया। हालांकि, उनकी चुनावी हार के बाद, वास्तविक वापसी की देखरेख राष्ट्रपति जो बाइडेन ने की जिन्होंने 2021 में यह वापसी पूरी की। अब, 4 साल बाद, ट्रम्प द्वारा ‘बगराम को वापस पाने’ के बार-बार आह्वान ने रणनीतिक चिंताओं को फिर से जगा दिया है। 2025 में कई मौकों पर, उन्होंने सार्वजनिक रूप से इस अड्डे को ‘बिना किसी कीमत के’ छोडऩे पर खेद व्यक्त किया है और जोर देकर कहा है कि अमरीका इसे वापस चाहता है।
अमरीकी दृष्टिकोण से, बगराम तक पहुंच पुन: प्राप्त करने से एक अग्रिम-संचालन स्थिति फिर से स्थापित होगी जहां से वह चीनी गतिविधियों पर नजर रख सकेगा, मध्य एशिया में प्रभाव स्थापित कर सकेगा और उस क्षेत्र में अपनी पकड़ बनाए रख सकेगा जहां अब प्रतिद्वंद्वी शक्तियों का दबदबा है। पेंटागन और ट्रम्प के रणनीतिक सलाहकारों के लिए, बगराम एक पुनर्जीवित नियंत्रण रणनीति का एक महत्वपूर्ण घटक साबित हो सकता है जो सोवियत संघ के खिलाफ इस्तेमाल किए गए शीत युद्ध के दृष्टिकोण की याद दिलाती है। हालांकि, आज का क्षेत्रीय परिवेश शीत युद्ध के समय से काफी अलग है।
पाकिस्तान जो कभी सोवियत-अफगान युद्ध और 9/11 के बाद के हस्तक्षेपों के दौरान अमरीकी अभियानों का एक प्रमुख सूत्रधार था, अब चीन-पाकिस्तान आॢथक गलियारे के तहत चीन के साथ घनिष्ठ रणनीतिक सांझेदारी का आनंद ले रहा है। इस्लामाबाद के लिए, बीजिंग को निशाना बनाकर किसी भी अमरीकी सैन्य उपस्थिति की अनुमति देना राजनीतिक और रणनीतिक रूप से अव्यावहारिक है। मध्य एशियाई गणराज्य, जिन्हें कभी अमरीकी ठिकानों के लिए संभावित विकल्प के रूप में देखा जाता था, अब रूस और चीन दोनों से काफी प्रभावित हैं और अमरीकी अनुरोध को स्वीकार करके अपने संबंधों को जोखिम में डालने की संभावना नहीं है।
खाड़ी देश जहां अमरीका ने कतर में अल-उदीद जैसे बड़े अड्डे बनाए हैं, पश्चिमी चीन या मध्य एशिया के निकट अग्रिम अभियानों के लिए बहुत दूर हैं। इस पृष्ठभूमि में, बगराम यूरेशिया में सैन्य प्रभाव को फिर से स्थापित करने की चाह रखने वाले अमरीकी प्रतिष्ठान के भीतर उन लोगों के लिए कम से कम सैद्धांतिक रूप से एकमात्र व्यवहार्य विकल्प प्रतीत होता है। फिर भी, बगराम को पुन: प्राप्त करने की ट्रम्प की महत्वाकांक्षा को लगभग सभी प्रमुख क्षेत्रीय शक्तियों से अभूतपूर्व प्रतिरोध का सामना करना पड़ा है। भारत का विरोध उसके इस दीर्घकालिक विश्वास से उपजा है कि अफगानिस्तान की संप्रभुता को संरक्षित किया जाना चाहिए और किसी भी विदेशी सैन्य उपस्थिति से क्षेत्रीय स्थिरता को नुकसान होगा। नई दिल्ली लगातार अफगान नेतृत्व वाली, अफगान-स्वामित्व वाली और अफगान-नियंत्रित शांति प्रक्रिया की वकालत करती रही है।
भारत के दृष्टिकोण से, बाहरी हस्तक्षेप से चरमपंथी समूहों को बल मिलने, आतंकवाद को फिर से भड़काने और चाबहार बंदरगाह परियोजना तथा अंतर्राष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे जैसी विकासात्मक और संपर्क पहलों में बाधा उत्पन्न होने का खतरा है। इसलिए, बगराम पर फिर से कब्जा करने की अमरीका की इच्छा सिर्फ जमीन के एक टुकड़े या एक सैन्य अड्डे तक सीमित नहीं है, यह इस बात की परीक्षा है कि क्या पिछले 2 दशकों के सबक सीखे गए हैं। अगर इतिहास कोई मार्गदर्शक है तो इस क्षेत्र में शांति का रास्ता बगराम के हवाई जहाजों से नहीं बल्कि कूटनीति और सम्मान से होकर जाता है।-आनंद कुमार
