जो काम लाभार्थी योजना नहीं करती, वह करते हैं बाबा!
punjabkesari.in Monday, Jul 08, 2024 - 05:40 AM (IST)
देश में बाबाओं का एक व्यापक नैटवर्क है। हर बाबा के श्रद्धालु आपको कई राज्यों में फैले मिलेंगे। फिर वह चाहे उत्तर प्रदेश के हाथरस में मची भगदड़ और 121 मौतों के बाद चर्चा में आया कथावाचक नारायण साकार हरि उर्फ शिव भोले उर्फ सूरज पाल ही क्यों न हो? भगदड़ में जिन श्रद्धालुओं की मौत हुई वे उत्तर प्रदेश के 16 जिलों और 3 अन्य राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा से थे। अब उत्तर प्रदेश की योगी सरकार द्वारा गठित 3 सदस्यीय न्यायिक आयोग मामले की जांच कर रहा है। कथावाचक साकार हरि कोई ऐसा बाबा नहीं है, जो मीडिया में छाया रहता है या मीडिया प्रचार से उसके अनुयायी बने हों। असल में साकार हरि उर्फ सूरज पाल पुलिस की सिपाही की नौकरी छोड़कर बाबागीरी में आया। उसने अपना नैटवर्क उन्हीं टोटकों से बनाया, जिन्हें भोली-भाली, गरीब और अनपढ़ जनता चमत्कार के नाम से जानती है।
वंचित तबका, जिसे हर तरफ डांट और फटकार मिलती है और जिसकी कोई नहीं सुनता, उन्हें जब बाबा की सभा में, हजारों की भीड़ में अपनी बात और दुख कहने दिया जाता है और बाबा जब खुद धैर्य से सुनता है तो वे उसके सदा के लिए मुरीद हो जाते हैं। वह जब मंच पर बात करता है तो उसे लगता है कि उसकी सुनने वाला कोई है। बाबा की एक निगाह ही उसे मुरीद बना देती है। जिसे दुनिया हारा हुआ मानती है, बाबा उसे विजयी बना देता है। भक्तों को असुरक्षा या जो उसको समाज नहीं दे रहा है, बाबा उस पर अपनी बात केंद्रित करता है। मंच या भक्तों के बीच ही नृत्य को बढ़ावा देने के पीछे भी रणनीति होती है। तनाव से मुक्ति होती है। भक्तों में से किसकी सुननी है यह उनका नैटवर्क तय करता है ताकि लोगों को यह आभास तक न होने पाए कि कहीं कुछ प्रायोजित (इंस्पायर्ड) चल रहा है। कुछेक लोग आम जनता से भी लिए जाते हैं ताकि भरोसा बना रहे।
ऐसा नहीं है कि बाबा सिर्फ दुख सुनकर छोड़ देता है। उसके बाद बाबा की टीम उस पीड़ित की समस्या दूर करने के दिखावे में जुट जाती है। छोटे- मोटे हल से काम होना होता है तो तत्काल होता है बड़ी समस्या हो तो उसका कुछ हिस्सा हल किया जाता है। समस्या का कुछ भी अंश हल होने पर वह परिवार बाबा का भक्त ही नहीं बनता बल्कि आश्रम के नाम अपनी बची-खुची, छोटी-मोटी जमीन लिख देता है। पत्नी-बेटियों को भी वहां छोडऩे के लिए राजी हो जाता है। बाबा के करिश्मे के वे मुरीद हो जाते हैं। चाहे हैंडपंप का पानी पिला कर या फिर समोसे के साथ लाल चटनी खाकर कृपा बरसनी शुरू होने का नाटक करने पर। कई बार तो ऐसा लगता है कि सरकारों की कल्याणकारी योजनाओं से ज्यादा उन्हें बाबा पर ज्यादा भरोसा होता है। योजनाएं सबके लिए होती हैं। उसमें एक्सक्लूसिवनैस नहीं होता। जबकि बाबा कुछ करता है तो वह उनको अपना लगता है और यह लगता है कि छोटी-मोटी समस्याएं हल हो रही हैं तो बड़ी भी हो जाएंगी। कहीं-कहीं किस्मत भी रंग दिखाती है।
बाबा के ऐसे कट्टर भक्तों की भीड़ नेताओं के बहुत काम की होती है। जिस बाबा के जितने ज्यादा भक्त होते हैं, उसके आश्रम में बड़े-बड़े नेता उतने ही ज्यादा चक्कर लगाते हैं। मंच पर दंडवत होते हैं। वैसे तो नेता खुद भी मुफ्त रेवडिय़ां बांटकर खुद को लोकप्रिय बनाते हैं मगर इसके बाद भी उनके लाभार्थी भी जो काम नहीं कर पाते, वह बाबा करने का दिखावा करते हैं। पार्टी चाहे कोई भी हो सभी के नेता, बाबाओं पर मेहरबान रहते हैं। इतनी बड़ी संख्या में मौतें हो जाने के बावजूद कोई भी राजनीतिक दल बाबा साकार के खिलाफ कार्रवाई की मांग नहीं कर रहा। (बसपा ने जरूर साकार हरि के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है। उसकी वजह भी साफ है कि बाबा के पास जाने वाले भी उसी वर्ग के लोग हैं, जो बसपा का वोट बैंक है।) दूसरी तरफ अभी न सत्तारूढ़ दल का आक्रामक रवैया नजर आ रहा है और न ही कांग्रेस-समाजवादी पार्टी समेत कोई ऐसी बात कर रहे हैं।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सरकारी दायित्वों का निर्वहन हाथरस करने गए और राहुल कांग्रेस सांत्वना जताने। समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव और उनके चाचा राम गोपाल यादव तो ‘इसे आयोजनों के दौरान दुर्घटनाएं तो होती रहती हैं’, कह कर इतिश्री कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर यह सवाल लगातार पूछा जा रहा है। इस घटना में जो एफ.आई.आर. दर्ज हुई है, उसमें बाबा का नाम तक नहीं है। हादसे में मरने वाले बाबा के अनुयायियों के लिए केंद्र सरकार ने 2 लाख रुपए और राज्य सरकार ने 2 लाख रुपए मुआवजा तत्काल घोषित किया। इस तरह मौत और मातम के बीच राजनीति अपनी गति से चल रही है। बाबा और नेताओं का कॉकटेल देश में नई राजनीति के उदय का आधार है। यही वजह है कि अब चुनावों में जनता के मुद्दे नहीं उठाए जाते। भले ही कई बाबा जेल में सजा भुगत रहे हैं और गिरफ्तार हैं। आजादी के बाद से ही देश में बाबा (ज्ञान वाले नहीं ) अपने अंदाज में फलते-फूलते रहे हैं। यह सिर्फ ङ्क्षहदुओं तक ही सीमित नहीं है। मुस्लिम और ईसाइयों में भी है। देश में भी - विदेश में भी।
इस तरह नेताओं और बाबाओं का यह गठजोड़ एक ऐसी ताकत बनता है, जिसकी ओर गरीब और वंचित तबके के निराश और मायूस लोग बड़ी उम्मीद से दौड़े चले आते हैं। उन्हें लगता है कि बाबा की शरण में उनके सभी दुखों का अंत हो जाएगा मगर वे नहीं जानते कि उन्हें इसकी क्या कीमत चुकानी पड़ेगी। कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी क्योंकि यह बाजार का नियम है। राजनीति और धर्म जब मिल जाते हैं तो वे फिर अध्यात्म नहीं, बाजार हो जाते हैं। बाबा अरबपति हो जाते हैं और भक्त और गरीब।-अकु श्रीवास्तव