बी.एस.एफ. को सशक्त बनाने में महानायक रुस्तमजी का अभूतपूर्व योगदान

Saturday, Mar 16, 2024 - 04:47 AM (IST)

मार्च की 2 तारीख सन् 2003 का समाचार पत्र यह सुर्खी लेकर आया कि एक युग द्रष्टा और देश के विशाल सीमा क्षेत्र को शत्रुओं से सुरक्षित रखने के लिए एक मजबूत बल का निर्माण करने वाले खुसरो फ्रमरोज रुस्तमजी नहीं रहे। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अपूर्ति की और उनके जीवन को सराहते हुए एक कर्म योद्धा के रूप में स्मरण किया।

अटल जी उनसे लगभग 10 वर्ष छोटे थे लेकिन अपनी युवावस्था से उन्होंने रुस्तमजी को एक सक्षम ही नहीं बल्कि मानवीयता से परिपूर्ण एक पुलिस अधिकारी के रूप में देखा था। यह संबंध जीवन भर बना रहा। जब वे पुलिस ट्रेनिंग स्कूल, सागर में युवा पुलिस अधिकारी के रूप में प्रशिक्षण ले रहे थे, तब अटल जी भी उनके आसपास रहते थे। अटल जी का बचपन बहुत संघर्षपूर्ण रहा और रुस्तमजी भी अपने परिवेश को समझने और उसमें सार्थक बदलाव करने के बारे में सोचते रहते थे। दोनों में नेतृत्व के गुण समान थे और अक्सर मिलते-जुलते और सामाजिक विषयों पर चर्चा करते रहते थे।

जीवन गाथा : वीरेंद्र कुमार गौड़ सीमा सुरक्षा बल (बी.एस.एफ.) से आई.जी. के पद से रिटायर होने के बाद अपने जीवन के अनुभवों को एक साहित्यकार की भांति लिखने का कार्य कर रहे हैं। उनकी अनेक पुस्तकें चॢचत रही हैं, विशेषकर बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम को लेकर लिखी गई ‘यूं जन्मा बांग्लादेश’ और बी.एस.एफ. को एक आधुनिक बल बनाने में अपना बहुमूल्य योगदान करने वाले के एफ. रुस्तमजी की जीवनी के रूप में लिखी गई ‘रुस्तमजी एक युगदृष्टा’ जिसका प्रकाशन स्वयं बी.एस.एफ. ने किया है।

यह कृति अधिकांश रूप से रुस्तमजी द्वारा नियमित रूप से लिखी गई उनकी डायरी और उनके समकालीन अधिकारियों के साथ चर्चा तथा नेहरू लाइब्रेरी में उपलब्ध दस्तावेजों पर आधारित है। यह पुस्तक जब गौड़ साहब ने मुझे पढऩे के लिए दी तो इस बात का अनुमान तो था कि यह एक पुलिस अधिकारी की जीवन गाथा है लेकिन पढऩा शुरू करने पर यह वास्तविकता उजागर होने लगी कि रुस्तमजी उससे कहीं अधिक मानवीय संवेदनाओं को समझने और सामान्य व्यक्ति की सहायता तथा उससे भी अधिक उसकी सेवा करने को प्राथमिकता देते थे।

उनकी कार्यशैली ऐसी थी कि वे अफसर से अधिक मित्र लगते थे और कोई भी उनसे अपने मन की बात करने में हिचक का अनुभव नहीं करता था। रुस्तमजी ने 22 वर्ष की आयु में जब वे नए-नए अधिकारी बने थे, अपनी व्यक्तिगत डायरी लिखनी शुरू कर दी जो आज एक प्रमाणित दस्तावेज है और उस समय के हालात की जानकारी हासिल करने का प्रमुख साधन है। उन्हें घूमने-फिरने और पर्यटक स्थलों को देखने के साथ साथ शिकार तथा घुड़सवारी करने का शौक था। जब भी समय मिलता, वे यह सब करने निकल जाते। नेहरू जी के कार्यकाल में उनके सहायक की भूमिका में देश विदेश को गहराई से जानने और समझने का अवसर मिल जाता था।

दुनिया में जो भी हो रहा है, चाहे विश्व युद्ध हो या शांति प्रयासों के लिए किए जाने वाले प्रयत्न हों, सब का वर्णन उन्होंने एक तटस्थ व्यक्ति की तरह किया है। बंगाल के अकाल, अनाज की कमी से लेकर जमाख़ोरी, मुनाफाखोरी और कालाबाजारी, किसानों की दुर्दशा  गांव देहात में मामूली सुविधाओं तक का अभाव, यह सब उन्होंने विस्तार से लिखा ही नहीं बल्कि अपनी सामथ्र्य के अनुसार इनका हल निकालने की अपनी ओर से कोशिश भी की है।

मध्य प्रदेश में जब डाकुओं का आतंक चरम पर था तो उनकी नियुक्ति भोपाल के आई.जी. के रूप में हुई। उन्हें पता चला कि पुलिस के कुछ लोग और स्थानीय नेता उन्हें संरक्षण देने का काम करते हैं। हत्या, अपहरण, फिरौती वसूलना, चेहरे को विकृत करना और गवाहों को उनके परिवार सहित समाप्त कर देने जैसे दुष्कृत्य यह डाकू किया करते थे। रुस्तमजी ने देखा कि डाकुओं के पास सभी तरह के आधुनिक हथियार थे जबकि पुलिस के पास न तो ऑटोमैटिक शस्त्र थे और न ही उनकी ट्रेनिंग का प्रबंध। रुस्तमजी ने इसे समझकर ऐसी व्यूह रचना की कि एक के बाद एक गिरोह या तो समाप्त होते गए या उन्होंने समर्पण कर दिया।

रुस्तमजी को अपने कार्यकाल में सभी प्रधानमंत्रियों का सहयोग और आशीर्वाद मिलता रहा है जिसके कारण उन्हें अपनी योग्यता सिद्ध करने का भरपूर अवसर मिला और वे राजनीतिक उठा-पटक से अलग अपनी योजनाओं के लिए पर्याप्त राशि तथा संसाधन जुटाने में कामयाब रहे। उनकी विशेषता ही कही जाएगी कि एक ओर वे अपने पद के दायित्वों को कुशलता और कर्मठ होकर निभाते थे, उसी प्रकार अपने परिवार के प्रति जिम्मेदारी का निर्वहन करते थे। पत्नी और बच्चों के साथ छुट्टियां मनाते थे। परिवार ने उन्हें कभी क्रोध करते नहीं देखा। वे अपने पीछे परिवार के अतिरिक्त असंख्य मित्र और अपने कत्र्तव्य के प्रति समर्पित पुलिस कर्मी तथा स्मृतियां छोड़ गए हैं। यही उनकी विरासत है। -पूरन चंद सरीन

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