दलितों को हिन्दुओं से अलग करने के प्रयास राष्ट्रीय एकता व सुरक्षा के लिए खतरनाक

Saturday, Jan 06, 2018 - 03:16 AM (IST)

जब देश मोदी के नेतृत्व में विजय और विकास का नया सरगम रच रहा है तो उसी समय देश को नफरत भरी जाति विद्वेष की आग में झोंकने वाले कौन हो सकते हैं? 

दलित राजनीति में मुस्लिम और कम्युनिस्ट तत्वों की सांझेदारी क्या समाज के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर हिंदुओं से दलितों को अलग करने की पुरानी साजिश का हिस्सा तो नहीं? क्या हिंदुओं के धर्म रक्षक और बात-बात पर मीडिया की सस्ती सुर्खियां बटोरने वाले हिंदू समाज पर विभाजनकारी मुस्लिम जेहादी हमले के परिणामों की कल्पना कर सकते हैं? 

अपने आप को ऊंची जात का कह कर नफरत और विद्वेष के व्यवहार से लाखों हिंदुओं को इस्लाम और ईसाई मत में धकेलने वाले अहंकारी हिंदू भूल गए कि पूजा-पाठ, कीर्तन- भजन और ऐश्वर्य में साधु समाज के प्रबोधन हिंदुओं को पाकिस्तान बनाने से नहीं रोक पाए थे। आज दलित समाज पर जो मुस्लिम जेहादी आक्रमणकारी अपने डोरे डाल कर हिंदूओं के खिलाफ उनको भड़का रहे हैं इस बारे में हिंदू राजनेता गंभीर नहीं दिखते। उनके लिए हिंदुस्तान सिर्फ चुनाव जीतने और राज करने का साधन मात्र है। तलाक विधेयक पर राजनीति का दिखावटी रूप यही बताता है। आखिर पुणे में आग भड़काने के लिए दिल्ली से जे.एन.यू. के ‘‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’’ गिरोह से उमर खालिद का जाना रोका क्यों नहीं गया? इन मुसलमानों का दलित प्रेम क्या सिर्फ हिंदू समाज को तोडऩे की साजिश नहीं? इसे हम देख सकते हैं, साधारण नागरिक महसूस कर सकता है तो सरकार का खुफिया विभाग क्या कर रहा था? आज महाराष्ट्र में दलितों का असंतोष न तो हल्के ढंग से लेना चाहिए और न ही इसका सारा श्रेय विपक्षियों के षड्यंत्र पर डालना चाहिए। 

हिंदू समाज की भीतरी कमजोरियों का लाभ इस्लामी कट्टरवादी उठाएंगे ही और वे दल तथा संगठन भी, जिनका व्यापक राष्ट्रीय हितों से कोई सरोकार रहा ही नहीं है। जिनकी सम्पूर्ण राजनीति ही अपने परिवार पर टिकी हो और जाति-सम्प्रदाय-भाषा के झगड़े भड़काकर चुनावी फायदा उठाने के एजैंडे पर चलती हो, उनसे अपेक्षा करना कि वे महाराष्ट्र में जातिगत विद्वेष नहीं भड़काएंगे, मूर्खता होगी। भीमा-कोरेगांव पुणे के पास भीमा नदी के तट पर एक गांव है जहां ब्रिटिश सेना ने बाजीराव पेशवा की सेना को हराया था- 1 जनवरी, 1818 को हुए इस युद्ध में 49 ब्रिटिश सैनिक मारे गए थे जिनमें 22 अनुसूचित जाति के थे। इस विजय से भारत में ब्रिटिश सत्ता की जड़ें मजबूत हुईं। 

कहने को तो लड़ाई अंग्रेजों तथा भारतीय सेनाओं के मध्य थी लेकिन दलितों की बहादुरी ने उस समय के पीड़ित, वंचित, दबे हुए दलित समाज में एक विराट अभियान पैदा किया। उनके लिए उच्च कुलोत्पन्न ब्राह्मण पेशवाओं का अहंकार तथा उनके द्वारा दलितों को हेय एवं तुच्छ मानने का व्यवहार इस युद्ध में दलित-बहादुरों द्वारा परास्त किया गया। यह दलितों का दमन करने वाले ब्राह्मण पेशवाओं पर दलित ताकत की जीत के रूप में देखा गया न कि ब्रिटिश सैनिकों और भारतीय सेनाओं के मध्य युद्ध के रूप में। वहां अंग्रेजों ने एक स्मारक भी बनाया है। स्वयं डा. अम्बेदकर इस स्मारक पर दलित वीरों को श्रद्धासुमन अर्पित करने गए थे और 1930 की प्रथम गोलमेज कांफ्रैंस में उन्होंने कहा था कि दलितों ने ब्रिटिश साम्राज्य के लिए युद्ध लड़े तथा जीतें हासिल कीं। 

इन घटनाओं को एक पके-पकाए राष्ट्रवादी ढांचे से देखना गलत होगा। यह देश के विरुद्ध नहीं बल्कि दलितों की दबी हुई सुप्त चेतना की वीरतापूर्ण अभिव्यक्ति ही थी। यदि आज भी देश के विभिन्न हिस्सों में दलितों पर अत्याचार और केवल तथाकथित छोटी जाति के ङ्क्षहदू होने के कारण उनसे शादी-ब्याह या सामाजिक व्यवहार कथित बड़ी जाति के हिंदू नहीं करते, दलित दूल्हों को बारात ले जाने या घोड़ी पर चढ़कर दुल्हन के घर जाने से रोकते हैं, अपने ही बच्चों की दलित से रिश्ते पर जान ले लेते हैं, उनके लिए पंडित अलग, श्मशानघाट अलग तो-यमराज भी अलग तो सोचिए 200 साल पहले उनके साथ क्या व्यवहार होता होगा? 

व्यक्ति सब कुछ भूल जाता है, अपमान नहीं भूलता। ये सब, जो कह रहे हैं कि कोरेगांव की घटना में इस्लामी जेहादी तत्व घुस गए, उन्होंने स्त्रियों के साथ अपमान किया, कांग्रेस जातिगत विद्वेष भड़का रही है। वे ठीक भी कहते होंगे पर सवाल है कि जिन लोगों पर हिंदू समाज में समरसता का वातावरण बनाने की जिम्मेदारी है, वे क्या कर रहे हैं? और अब तक वे क्या कर रहे थे? सही है, बदलाव आया है बहुत आया है। यह जमीनी स्तर पर भी भाव विश्व बदले तथा दलितों में अभियान और आत्मविश्वास पैदा करे, इसका ढांचा खड़ा करना चाहिए। आज दलित डा. अम्बेदकर के प्रयासों से स्वाभिमानी, जागृत और चैतन्य बना है। उसे भीख नहीं, संरक्षण और दया भाव से प्रोत्साहन नहीं, अधिकार चाहिए। 

हम उसका मजाक उड़ाते हैं,आरक्षण व्यवस्था पर संदेह पैदा करते हैं, दलित लड़के का बड़े लोगों की बेटी से प्रेम हुआ तो उस दलित मां के साथ सामूहिक बेइज्जती का व्यवहार करते हैं। यह इसलिए नहीं होता क्योंकि वह सिर्फ हिंदू है बल्कि इसलिए होता है क्योंकि वह हिंदुओं में दलित है। ऐसी घटनाओं पर हमारे धर्म पुरुष खामोश रहते हैं। अनुसूचित जाति के बड़े नेता हैं वे जानते हैं कि उनकी स्थिति अब ‘कथित’ जाति के निर्णयकत्र्ताओं की मर्जी पर टिकी है इसलिए अपना भविष्य बचाने के लिए वे भी चुप रहते हैं। 

दलितों के मुद्दे लेकर मुस्लिम संगठनों की गतिविधियां समाज के लिए विषैला, घातक वातावरण ही बनाती हैं, पर यह पुराना चलन है। आजादी से पहले भी दलितों को हिंदुओं से अलग कर इस्लाम की ओर लाने के अनेक प्रयास हुए। डा. भीमराव अम्बेदकर ने इन तमाम प्रयासों को खारिज किया और वास्तव में हिंदू समाज के बहुत बड़े रक्षक बने। उन्होंने व्यापक भारतीय धर्म परिवार अर्थात जिन मतों की जड़ें एवं स्त्रोत भारतीय सभ्यता और संस्कृति में हैं, उनमें से एक बौद्ध मत को अपनाया। वर्तमान दलित नेताओं को यह बात समझनी चाहिए। विडम्बना यह है कि कोई भी पार्टी अपने संगठन में दलितों को दलित समाज में नेतृत्व के लिए प्रोत्साहित करना नहीं चाहती। दलित-मुस्लिम गठबंधन केवल हिंदू समाज के लिए ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और एकता के लिए भी खतरनाक है। यह हिंदू समाज के धर्मनिष्ठ नेताओं और आध्यात्मिक विभूतियों के लिए एक चुनौती का समय है।-तरुण विजय

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