भ्रष्टाचार पर वार या राजनीतिक हथियार

punjabkesari.in Wednesday, Feb 07, 2024 - 05:42 AM (IST)

झारखंड में चंपई सोरेन सरकार द्वारा बहुमत साबित कर देने के बाद उन सवालों की गूंज और भी तेज सुनाई पड़ेगी, जो राज्यपाल सी.पी. राधाकृष्णन द्वारा  शपथ ग्रहण का न्यौता देने में 2 दिन लगाने पर उठे थे, जबकि पड़ोसी बिहार में राज्यपाल राजेंद्र आर्लेकर ने पांच घंटे में ही ‘पालाबदल मुख्यमंत्री’ नीतीश कुमार को पुन: शपथ दिलवा दी थी। 

मुख्यमंत्री पद से हेमंत सोरेन के इस्तीफे के बाद महागठबंधन विधायक दल का नेता चुने गए चंपई ने 47 विधायकों के लिखित समर्थन के साथ सरकार बनाने का दावा किया था। जब राज्यपाल ने विधायकों को मुलाकात का समय नहीं दिया, तब अपनी गिनती का वीडियो भी उन्होंने जारी किया, लेकिन राधाकृष्णन ने शपथ का न्यौता देने में दो दिन लगाए। हालांकि राज्यपाल ने 10 फरवरी तक का समय दिया था लेकिन चंपई ने 5 फरवरी को ही बहुमत साबित कर दिया। चंपई सरकार को 47 मत ही मिले, जितने का दावा किया गया था। 

राज्यपालों की भूमिका पर सवाल देश में पहली बार नहीं उठे। विडंबना है कि व्यवस्था परिवर्तन के वायदों के साथ होने वाले सत्ता परिवर्तनों से भी बदलता कुछ नहीं। स्वार्थ की खातिर दलबदल करने वाले सफेदपोशों की फेहरिस्त लंबी होती जा रही है। जिस विचारधारा की कभी बात होती थी, वह सत्ता की धारा में गुम हो चुकी है। अगर समाजवादी पृष्ठभूमि और जे.पी. आंदोलन की उपज होने के बावजूद मुख्यमंत्री बने रहने की खातिर 72 साल के नीतीश कुमार बार-बार पाला बदल सकते हैं, तब सत्ता केंद्रित राजनीति में ही पले-बढ़े नेताओं से नैतिकता की अपेक्षा बहुत व्यावहारिक नहीं लगती। 

दरअसल बिहार और झारखंड के घटनाक्रम से उपजी आशंकाएं ज्यादा चिंताजनक हैं। सेना की भूमि के जिस कथित घोटाले में ई.डी. द्वारा झारखंड स्थापना दिवस से 2 दिन पहले ही गिरफ्तारी से ठीक पहले हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा, उसकी सत्यता तो अदालत में तय होगी, लेकिन आजादी के बाद हमारे राजनेताओं की साख इतनी गिर चुकी है कि उनके विरुद्ध किसी भी आरोप पर आश्चर्य नहीं होता। केंद्रीय जांच एजैंसियों पर विश्वास करें तो विपक्ष का शायद ही कोई ऐसा बड़ा नेता होगा, जिसके विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोप न हों। बेशक हेमंत के पिता एवं झारखंड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष शिबू सोरेन पर भी तमाम आरोप लगते रहे, लेकिन उनके साथ सरकार चलाने में भाजपा ने कभी संकोच नहीं किया। 

आदिवासी बहुल झारखंड की विडंबना  है कि वह 23 साल में 12 सरकारें देख चुका है। उसके 6 में से 3 मुख्यमंत्रियों को जेल जाना पड़ा है। भाजपा के रघुबर दास 5 साल का कार्यकाल पूरा करने वाले एकमात्र मुख्यमंत्री रहे हैं। इसीलिए अब जब हेमंत आरोप लगा रहे हैं कि भाजपा के साथ नहीं गए, इसलिए जेल जाना पड़ा, तो विश्वास करने वालों की भी कमी नहीं। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने और दो कदम आगे बढ़ कर कह दिया कि जो भाजपा के साथ नहीं जाएगा, वह जेल जाएगा। 

राजनीतिक गलियारों से लेकर मीडिया तक में बहस चल रही है कि हेमंत के बाद किसकी बारी? सवाल के रूप में पेश की जा रही विपक्षी नेताओं की फेहरिस्त लंबी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो विपक्षी गठबंधन को ही भ्रष्टाचारियों का जमावड़ा बता चुके हैं। जिस दिन नीतीश ने पाला बदल कर एन.डी.ए. मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली, उसके अगले दिन से उनके पुराने गठबंधन भागीदार राजद के नेताओं की ई.डी. में पेशी शुरू हो गई। नीतीश के नए मित्र इसे महज संयोग बता रहे हैं, जबकि विरोधियों को इसमें ‘विपक्ष मुक्त चुनाव’ का खतरनाक प्रयोग नजर आ रहा है। 

ई.डी. के शुरूआती सम्मन नजरअंदाज करने वाले हेमंत की दूसरी पेशी में गिरफ्तारी हुई। हेमंत ने पत्नी कल्पना की बजाय ‘टाइगर’ के संबोधन से लोकप्रिय चंपई सोरेन को मुख्यमंत्री पद के लिए चुन कर परिवारवाद के आरोप को खारिज कर दिया। विश्वास मत से पहले झारखंड के महागठबंधन विधायकों को हैदराबाद भेजा गया, तो अब बिहार के कांग्रेस विधायक भी वहां भेजे गए हैं। अतीत के अनुभवों के मद्देनजर अपने ही विधायकों पर अविश्वास समझा जा सकता है, पर  हमारी राजनीति में दलीय निष्ठा और नैतिक मूल्यों के पतन का प्रमाण भी है। 

हालांकि नीतीश के साथ उप मुख्यमंत्री रहे तेजस्वी यादव और उनके पिता लालू यादव से पूछताछ की प्रक्रिया जारी है। ‘नौकरी के बदले जमीन’ मामले में तेजस्वी की गिरफ्तारी भी तय मानी जा रही है लेकिन हेमंत के बाद अगला नंबर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का लगता है, जो आबकारी नीति घोटाले में ई.डी. के सम्मन राजनीति- प्रेरित बता कर नजरअंदाज कर रहे हैं। इसी मामले में पूर्व उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और राज्यसभा सांसद संजय सिंह अरसे से जेल में हैं। देखना महत्वपूर्ण होगा कि केजरीवाल किसे उत्तराधिकारी चुनेंगे। जहां तक केंद्रीय जांच एजैंसियों के राडार पर होने का सवाल है, तो विपक्षी नेताओं की फेहरिस्त में केरल के मुख्यमंत्री पिनरई विजयन से ले कर शरद पवार के पोते रोहित राजेंद्र पवार तथा पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक तक कई नाम हैं। 

विपक्ष का आरोप है कि केंद्रीय सत्ता में अपनी ‘हैट्रिक’ सुनिश्चित करने के लिए मोदी सरकार चुनाव से पहले ज्यादातर विपक्षी नेताओं को पी.एम.एल.ए. कानून के तहत जेल भेज देना चाहती है, जिसमें जमानत आसान नहीं क्योंकि जांच एजैंसी पर दोष सिद्धि के बजाय आरोपी पर ही खुद को निर्दोष सिद्ध करने की जिम्मेदारी होती है। पूरी व्यवस्था के लिए ही नासूर बन चुके भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए कठोरतम कानून की जरूरत से इंकार नहीं, लेकिन केंद्रीय जांच एजैंसियों को औजार बना कर राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाने की साजिश अगर मूल में है तो देश को भारी दुष्परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। 

हेमंत के आदिवासी कार्ड समेत विपक्ष की इस पीड़ित मुद्रा का चुनाव में क्या प्रभाव होगा, यह तो परिणाम ही बताएंगे लेकिन राजनेताओं के विरुद्ध दर्ज मामलों में 95 प्रतिशत विपक्षी नेताओं के विरुद्ध होने तथा दोष सिद्धि दर बहुत कम होने से केंद्रीय जांच एजैंसियों की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगते हैं। वैसे यू.पी.ए. शासनकाल में भी स्थितियां ज्यादा अलग नहीं थीं। विडंबना यह भी है कि विपक्ष अपने नेताओं के विरुद्ध आरोपों को तथ्यों के आधार पर गलत साबित करने की बजाय उन नेताओं के विरुद्ध जांच ठप्प पड़ जाने पर सवाल खड़े करता है, जो दल बदलते ही ‘नैचुरली करप्ट’ से ‘मोस्ट फेवरिट’ हो गए और उस सवाल का जवाब कहीं से नहीं आता।-राज कुमार सिंह
    


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