आर्थिक संकट में ‘सहायता’ अथवा ‘पत्थरबाजी’

Saturday, Aug 15, 2020 - 01:50 AM (IST)

आर्थिक कठिनाइयों के दौर से दुनिया का कौन सा देश प्रभावित नहीं हो रहा है? भारत भी प्रभावित है। संकट दोहरा है। कोरोना महामारी और आॢथक गतिविधियों में आंतरिक तथा अन्तर्राष्ट्रीय बाधाएं। फिर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहले गांवों, किसानों, मजदूरों को सीधे बैंक खातों से राहत राशि का भुगतान, फिर लघु, मध्यम उद्योगों को राहत-रियायतें और बड़े उद्योगों को भावी विस्तार के लिए सहायता देकर एक हद तक सामाजिक आर्थिक स्थितियों को संभालने की कोशिश की है। 

लेकिन करीब 25 वर्षों ( 1991 से 2014 ) तक भारतीय अर्थ व्यवस्था की नीतियों को बनाने बिगाड़ने वाले राजनेता-आर्थिक विशेषज्ञ और उनके कुछ साथी 3 महीने से लगातार मोदी सरकार पर हमले कर रहे हैं। लोकतंत्र में कमियों, समस्याओं पर ध्यान दिलाने और आलोचना के अधिकार हैं। लेकिन क्या वे स्वयं सत्ता में होते तभी वर्तमान संकट से निकाल  सकते थे? यह अहंकार एवं जनता को बहकाने-भड़काने का अधिकार क्यों मिलना चाहिए ? 

सच कड़वा जरूर होता है। सामान्यत: लोग पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ज्ञानी अर्थशास्त्री, समर्पित और नेता भी मानते हैं। जबकि सबसे पहले उन्हें चतुर सिंहासनपाई राजनेता माना जाना चाहिए। दुनिया के किसी लोकतांत्रिक देश में क्या कोई व्यक्ति कभी पंचायत, नगर पालिका-निगम , विधानसभा, लोकसभा का एक भी चुनाव जीते बिना 30 वर्षों तक राज सत्ता में शीर्ष स्थान यानी वित्त मंत्री - प्रधानमंत्री, पार्टी और प्रतिपक्ष का प्रमुख नेता रहा हो। अर्थशास्त्री तो सैंकड़ों मिल सकते हैं। 

भारतीय मूल के नोबेल पुरस्कार विजेता या अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों में भी हैं। नरसिम्हाराव जी ने 1991 में प्रधानमंत्री बनने पर  आॢथक विशेषज्ञ के नाते मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री नियुक्त किया था। बहुत चर्चा यही होती है कि भारत में आर्थिक सुधारों की क्रांति के यही महानायक हैं। यों उनसे पहले चंद्रशेखर जी के नेतृत्व में वित्त मंत्री रहे यशवंत सिन्हा का दावा तो यह रहा है कि उस क्रांति के दस्तावेज तो उन्होंने बनाए थे और मनमोहन सिंह ने अपने हस्ताक्षर करके श्रेय ले लिया। 

बहरहाल उनकी दास्तां आगे लिखता हूं। राव राज के दूसरे ही साल 1992 में भारतीय स्टॉक एक्सचेंज का सबसे बड़ा चार हजार करोड़ रुपयों वाला शेयर घोटाला और बड़े पैमाने पर बैंकों का घोटाला होने पर स्वयं मनमोहन सिंह को इस्तीफे की पेशकश करनी पड़ी थी। उन पर इस्तीफे के दबाव प्रतिपक्ष से अधिक कांग्रेस पार्टी में होने की खबरें मैंने ही पहले पृष्ठों पर लिखीं और सम्पादकीय भी। लेकिन राव साहब ने उदारता दिखाते हुए उन्हें नहीं हटाया। इस तरह उनकी कुर्सी बच गई । फिर 2004 से 2014 तक प्रधानमंत्री रहते हुए तो 2-जी संचार घोटाले और कोयला खनन की बन्दर बांट के घोटाले, विमान- हैलीकाप्टर खरीदी घोटाले सहित अनेकानेक कांड होते रहे। कोयला खान के बंटवारे वाले एक मामले के दौरान कोयला मंत्रालय का दायित्व मनमोहन सिंह के पास ही था। फिर भी सत्ता के लिए आदरणीय प्रधानमंत्री के नाते वह सब पर पर्दा डालकर स्वयं तथा चिदंबरम जैसे साथियों को भी बचते-बचाते रहे। 

इनसे भी अधिक महान साबित करने में लगे हुए यशवंत सिन्हा आजकल दिल्ली के राजघाट से पटना के गांधी मैदान तक गरीब किसान मजदूरों का हमदर्द बनकर मोदी सरकार की नीतियों को घातक बताने में लगे हुए हैं। वह तो बाकायदा भारतीय प्रशासनिक सेवा के आई.ए.एस अधिकारी, वित्त और वाणिज्य मंत्रालय के अनुभवी माने जाते थे। इसलिए पहले दिल्ली की बस यानी परिवहन प्राधिकरण के विवादास्पद पद पर रहने के बाद राजनीति में प्रवेश करके जोड़-तोड़ से चंद्रशेखरजी के प्रधान मंत्री बनने पर वित्त मंत्री बने थे। उस समय तो देश की आर्थिक हालत सर्वाधिक खस्ता थी और मनमानियों का दौर चला लेकिन सरकार ही कुछ महीने रही। 

उस समय कॉर्पोरेट कम्पनियों से रिश्ते आदि की कहानियां राजनीतिक-सामाजिक-मीडिया गलियारों में घूमती रहीं। वक्त बदला तो यशवंत सिन्हा ने भाजपा का दामन संभाल लिया। अटल अडवानी को प्रभावित करके जगह बनाई। अटल बिहारी वाजपेयी जी के नेतृत्व में सरकार बनने पर उन्होंने वित्त मंत्रालय पाने में सफलता पा ली। उनकी तो लॉटरी निकली, लेकिन सरकार उसी तरह शेयर मार्कीट सहित यूनिट ट्रस्ट (यू.टी.आई.) और बैंकों का बड़ा घोटाला होने से बदनाम हो गई। मनमोहन राज में हर्षद मेहता था और यशवंत राज में केतन पारीख। देश दुनिया में शोर होता रहा। आर्थिक स्थिति पर भी प्रभाव हुआ।

प्रतिपक्ष, भाजपा और संघ का दबाव पडऩे पर आखिरकार अटल जी ने कृपापूर्वक सिन्हा को वित्त से हटाकर अन्य मंत्रालय दे दिया। रह गए कांग्रेस के दूसरे सबसे बड़े दावेदार पी. चिदंबरम।  वह नामी वकील जरूर रहे, अर्थशास्त्री नहीं, लेकिन कांग्रेस की गठबंधन सरकार में वित्त और वाणिज्य, संचार  मंत्रालयों पर उनका कब्जा रहा। मनमोहन सिंह की सरकार में 2-जी संचार घोटाले के साथ अन्य कई मामलों में उनकी भूमिका सरकार, पार्टी और देश को बदनाम करती रही। उनके अहंकार और चालों से तो उनसे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता प्रणव मुखर्जी भी बेहद व्यथित रहे। 

घोटालों में सजा तो बेचारे निचले अधिकारियों को होती रही है या जो अदालती दांव पेंच से लटके हुए हैं। लेकिन मोदी सरकार से कोई राहत की उम्मीद नहीं होने से वह केवल बुराइयां देख रहे हैं। ऐसे सभी दावेदारों की पृष्ठभूमि देखते हुए बेहतर यही है कि मोदी सरकार देश-विदेश के ईमानदार और श्रेष्ठ आर्थिक विशेषज्ञों से निरंतर सलाह लेते हुए आने वाले महीनों-वर्षों के लिए घोटालेमुक्त अर्थव्यवस्था से भारत को आत्मनिर्भर एवं हर नागरिक को आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराने के अभियान को आगे बढ़ाते रहें।-आलोक मेहता
 

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