नसीहत उपचुनाव के नतीजों से

Saturday, Mar 17, 2018 - 11:21 AM (IST)

गौर करें हाल में कई राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव और ताजा उपचुनावों के नतीजों पर। क्या ये नतीजे यह बताते हैं कि यूपी की जनता चाहती है कि मायावती-अखिलेश मिल जाएं और एक बार फिर राजा हरिश्चंद का शासन आ जाए, जो योगी काल में विलुप्त हो गया है या बिहार के लोग यह चाहते हैं कि लालू नहीं तो लालू के वंशज का सत्ता पर आसन लगे और हर तरफ  अमन-चैन बहाल हो, जो नीतीश-भाजपा गठजोड़ के शासन में गायब हो गया है या फिर यूं कहें यह सन्देश है कि देश में विपक्षी एकता गठजोड़ के रूप में ईमानदार केन्द्रीय शासन लेकर आए, जैसा कि यूपीए-2 के समय तमाम घोटालों के बावजूद रहा और जैसा ईमानदार शासन मोदी नहीं दे पा रहे हैं? 

अगर ऐसा है तो लालू का चारा घोटाला और फिर उसके बाद रेल मंत्री के रूप में जमीन भ्रष्टाचार, मुलायम और मायावती पर आय से अधिक संपत्ति के मामले में चले मुकदमे, शराब माफिया पोंटी चड्ढा और नोएडा अथॉरिटी के मुख्य अभियंता यादव सिंह के यहां छापे में मिली करोड़ों की जायदाद, खुलेआम बसपा या समाजवादी झंडा लगाए गुंडों का आतंक क्या मायावती और मुलायम-अखिलेश काल के राम-राज्य की तस्दीक करते हैं? और तब फिर क्या यह नहीं कहा जा सकता कि जनता 2014 में भी गलत थी मोदी को केन्द्रीय सत्ता में लाकर और 2017 में अखिलेश को गद्दी से उतार कर और यह भी कि पिछले 70 साल से जनता यह गलती करती रही है? 

अगर चुनाव परिणाम पूर्ववर्ती शासन की ईमानदारी, कर्मठता और जनोपयोगिता या उसके नितांत अभाव का सर्टिफिकेट होते तो ब्रिटेन में द्वितीय विश्वयुद्ध जीतने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल की कंजर्वेटिव पार्टी न हारती या 1967 के चुनाव में कांग्रेस को 10 राज्यों में हार न मिलती, न ही अगले कुछ वर्षो में फिर कांग्रेस उनमें शासन में होती। इमरजेंसी के बाद कांग्रेस से जनता इस बात से नाराज थी कि प्रजातंत्र की रीढ़ तोडऩे की कोशिश की गयी थी लेकिन कैसे फिर वही जनता मात्र ढाई साल के भीतर उसी पार्टी को वोट देकर पलकों पर बैठाती है। वाजपेयी सरकार इंडिया शाइनिंग के मुगालते में रही और 2004 का चुनाव हार गई। 

दरअसल, विश्लेषण करने में हम अपनी बौद्धिक फैयाजदिली का मुजाहरा करते हुए किसी पार्टी या नेता को डूबाकर मर्सिया पढऩे लगते हैं या उसे आसमान पर चढ़ा देते हैं। लालू के काल को जंगल राज की संज्ञा देते हैं, नहीं तो नीतीश को सुशासन बाबू का तमगा पहना देते हैं। मोदी शासन में बदलते भारत का अक्स दिखाई देने लगता है और हम उन्हें देश की तकदीर से नवाजते हैं और जब कोई चुनाव हार जाते हैं तो उन्हें सपनों का सौदागर की उपाधि दे दी जाती है और पार्टी के रसातल में जाने का ऐलान कर देते हैं। 

2017 के यूपी चुनाव या ताजा उपचुनावों के आंकड़ों के पारंपरिक विश्लेषण से कुछ निष्कर्ष निकालना गलत होगा। दुनिया का समाजविज्ञान या राजनीतिशास्त्र अभी तक वह फॉर्मूला नहीं बना पाया है जो यह बता दे कि जनमत कैसे किसी के प्रति या खिलाफ  बनता या बिगड़ता है। अगर वोट की कतार में एक वर्ग ज्यादा दिखाई देता है तो अचानक दूसरा वर्ग झुण्ड में पहुंचने लगता है, अन्यथा दोनों ही सुस्त रहते हैं। हम सभी जानते हैं कि भारत में किसी धर्म विशेष के लोगों को मात्र पोशाक, तिलक और दाढ़ी-टोपी से पहचाना जा सकता है। अगर चैनल के कैमरे ने यह विजुअल दिखा दिया तो दूसरा समुदाय प्रतिक्रिया में वोट डालने के लिए उमड़ पड़ता है। पहचान समूहों में बंटे समाज में प्रतिद्वंद्विता इस तरह की है कि मीडिया के दो सेकंड के विजुअल चुनाव परिणाम बदल सकते हैं। एक बात साफ  कही जा सकती है कि 2014 में मोदी के प्रति जनमत उभरा, जिसने भाजपा को 2009 के मुकाबले डेढ़ गुना वोट दिलाए (18.9 प्रतिशत से बढ़ाकर 31.3 प्रतिशत)। 

इन 4 सालों में अपने कार्यों के प्रति जनता का भरोसा जीतकर जनता को पहचान समूह की घटिया राजनीति से उबारने का कार्य पूरी तरह पार्टी नहीं कर पाई। 2014 और 2017 के आंकड़ों का विश्लेषण करें तो यूपी में भाजपा के वोट मात्र एक प्रतिशत कम हुए हैं (42.3 प्रतिशत से 41.35 प्रतिशत) लेकिन जहां शहरी वोटरों की उदासीनता की वजह से मतदान प्रतिशत कम रहा, वहीं सपा के करीब 6 प्रतिशत वोट और बसपा के करीब 3 प्रतिशत वोट बढ़े। पिछले कुछ दशकों के तथ्य बताते हैं कि जब-जब भाजपा ने आक्रामक हिंदुत्व को अपनाया, समाज जातिवादी पहचान समूह में वापस चला गया। बाबरी ध्वंस के बाद अगले 6 साल तक भाजपा का मत प्रतिशत 16 से ऊपर नहीं पहुंच पाया। 

अगर फसल के लागत मूल्य का 50 प्रतिशत लाभ किसानों को मिलेगा या 10 करोड़ गरीब परिवारों को स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध होगा या राज्य में अमन-चैन के लिए पुलिस कार्रवाई की जाएगी तो उसका लाभ किसी जाति, वर्ग या समुदाय विशेष के लोगों को ही नहीं, बल्कि सभी को उपलब्ध होगा लेकिन क्या यह विश्वास भाजपा जनता को दिला पाई? नहीं। क्या भाजपा यह समझ पा रही है योजनाओं को जनता तक पहुंचा कर उनका भरोसा जीतना कार्यकर्ताओं के जरिये होता है? भाजपा शायद यह भी भूल गई है कि यूपीए-2 ने भी मनरेगा, सर्वशिक्षा, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, सूचना व शिक्षा का अधिकार जैसे क्रांतिकारी प्रयास किए थे लेकिन न तो नेता और कार्यकर्ता के बीच संपर्क था, न ही जनता और पार्टी कार्यकर्ता के बीच। लिहाजा कांग्रेस को खामियाजा भुगतना पड़ा।
-एन के सिंह

Punjab Kesari

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