सैन्य तानाशाहों की कट्टर विरोधी थी असमा जहांगीर

Wednesday, Feb 21, 2018 - 03:31 AM (IST)

असमा जहांगीर, जो पिछले सप्ताह गुजर गई, एक लोकप्रिय मानवाधिकार वकील और सामाजिक कार्यकत्र्ता थी। वैसे उसका काम पाकिस्तान तक सीमित था, पूरे उप-महाद्वीप में उसकी मिसाल दी जाती थी। उसने व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा के लिए ह्यूमन राइट्स कमीशन स्थापित करने की घोषणा जिस जगह से की थी वह भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध सुधारने के लिए बैठक करने की जगह भी बन गई थी। 

असमा को इस बात का संतोष हो सकता है कि वह भारत और पाकिस्तान को सहमति की ओर लेकर आई थी, भले ही नजदीक आने में उनकी हिचकिचाहट साफ दिखाई देती हो। असमा ने नई दिल्ली और इस्लामाबाद को यह महसूस कराया कि आमने-सामने बैठकर इस पर चर्चा का कोई विकल्प नहीं है कि वे अपने झगड़े क्यों नहीं खत्म कर सकते। वैसे नई दिल्ली ने तय कर लिया था कि पाकिस्तान जब तक आतंकियों को शरण देना बंद नहीं करता तब तक कोई बातचीत नहीं होगी, असमा का मानना था कि सुलह की अब भी कुछ गुंजाइश थी।

लेकिन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज इस बारे में स्पष्ट थीं कि जब तक यह महसूस नहीं किया जाता कि आतंक और बातचीत साथ-साथ संभव नहीं हैं, नई दिल्ली इस्लामाबाद से बातचीत नहीं करेगी। असमा महसूस करती थी कि कोई सार्थक बैठक करने से पहले पाकिस्तान की सेना के साथ कुछ समस्याएं हैं जिन्हें दूर करना पड़ेगा। वह ऐसी बैठक को लेकर काफी सकारात्मक थी और किसी तरह सत्ताधारियों को इसके औचित्य को समझने के लिए राजी कर सकती थी। लेकिन मुझे निराशा है कि असमा की मौत पर भारत में बहुत कम प्रतिक्रिया हुई जबकि उसने भारत से दुश्मनी की कसम खाई हुई पाकिस्तान की सेना को चुनौती दी थी। भारत और पाकिस्तान के संबंध बेहतर बनाने को लेकर उसका समर्पण उत्साहवद्र्धक था। मैंने सदैव उसकी कोशिशों को समर्थन दिया। 

राज्यसभा के सदस्य के रूप में मुझे लोदी एस्टेट में एक आवास दिया गया था जहां वह पाकिस्तान के लड़के-लड़कियों को हिन्दुस्तान के लड़के-लड़कियों से मिलाने के लिए लाती थी। उसने उस जगह का नाम पाकिस्तान हाऊस रख दिया था। भारत के लड़के-लड़कियों से विदा लेते वक्त पाकिस्तान के बच्चे-बच्चियां आंसू बहाते थे। वह एक खास धर्म की ओर झुकते समाज से सीख लेने के लिए भारत के युवाओं को भी पाकिस्तान ले जाती थी। पाकिस्तान के मानवाधिकार और प्रतिरोध की प्रतीक असमा चार दशकों से ज्यादा समय से सैनिक तानाशाहों की प्रबल विरोधी थी। वह भारत-पाकिस्तान शांति की भी प्रबल समर्थक थी और भारत के साथ बातचीत के लिए कई अनौपचारिक प्रतिनिधिमंडलों का हिस्सा थी। इतना ही नहीं, जब उसने न्यायपालिका में बतौर एक वकील काम करना शुरू किया तो उसका एक उल्लेखनीय करियर रहा। इससे उसकी लोकप्रियता का संकेत मिलता है कि वह पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन की प्रमुख थी।

अभी भी पाकिस्तान की न्यायपालिका उसे इसके लिए याद करती है जब वह इफ्तिखार चौधरी, जो पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे, के सम्मान को वापस लाने के लिए लड़ी थी। वकीलों के आंदोलन ने अंत में अपना लक्ष्य हासिल किया और यह राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के पतन का कारण भी बना। उस अभूतपूर्व आंदोलन ने इस बात की उम्मीद बंधाई कि पाकिस्तान लोकतंत्र के महत्व और उसकी बहाली के महत्व को सचमुच समझ रहा है लेकिन फिर पाकिस्तान में हर शासक का ध्यान इसी पर रहता है कि सेना उसके साथ क्या करेगी और अभी के लिए भी यही सच है। 

मुझे याद है 80 के दशक में असमा का मार्शल लॉ प्रशासक जनरल जिया-उल-हक से टक्कर लेना जब वह पाकिस्तान में लोकतंत्र की बहाली के आंदोलन में भिड़ी थी। विरोध के आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए उसे जेल में बंद कर दिया गया लेकिन इसके शीघ्र बाद वह एक पहले दर्जे की आंदोलनकारी बन गई। इस प्रक्रिया में उसने पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग की स्थापना करने में मदद की और बाद में इसकी अध्यक्षा भी बनी। वह अक्सर कहा करती थी कि अल्पसंख्यकों की रक्षा करना आयोग का कत्र्तव्य है। उसकी सदारत में आयोग ने ईश-ङ्क्षनदा के साथ-साथ परिवार के कथित सम्मान के लिए की जाने वाली हत्याओं के आरोपों को सफलतापूर्वक रोका। 

असमा ने अपने देश में महिलाओं के अधिकारों के आंदोलन की अगुवाई भी उस समय की जब पाकिस्तान में मानवाधिकार को मुद्दा ही नहीं समझा जाता था। असमा के कारण आज लोग खासकर औरतें अपने अधिकारों की बात करती हैं और धार्मिक पाॢटयों समेत राजनीतिक पाॢटयां भी औरतों के अधिकारों के महत्व को महसूस करती हैं। इसका श्रेय असमा को जाता है। एक खास मुद्दा, जिसे असमा ने उठाया था वह ईसाइयों पर ईश-निंदा के आरोपों का था। अल्पसंख्यक समुदाय के बहुत सारे लोगों को मौत की सजा का सामना करना पड़ता था क्योंकि ईश-निंदा के अपराध के लिए कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान है। वह लापता लोगों को ढूंढ निकालने के मुकद्दमों को भी मुफ्त में लड़ती थी। एक दयालु हृदय वाली असमा कट्टरपंथियों की धमकियों समेत किसी तरह के दबाव के सामने नहीं झुकती थी। 

पूरी दुनिया में लोकप्रिय, आंदोलनकारी असमा को रमन मैगसैसे और यूनाइटेड नेशंस ह्यूमन डिवैल्पमैंट फंड पुरस्कार के अलावा कई पुरस्कार मिले थे लेकिन असमा के लिए पुरस्कारों का कोई मतलब नहीं था क्योंकि उसका एक ही उद्देश्य था-अपने देश में लोकतंत्र की बहाली करना, जिसमें उसकी अडिग आस्था थी। इसी तरह असमा ने सिर्फ पाकिस्तान के लोगों के लिए ही नहीं बल्कि फिलस्तीन या दूसरी जगह के संघर्षों समेत पूरी दुनिया के लोगों के लिए लड़ाई लड़ी। बेशक, उसने अपने संघर्षों के कारण अपने देश में बहुत सारे दुश्मन बनाए, लेकिन उसका मानना था कि इन चुनौतियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह असमा के बारे में काफी कुछ बयां करता है।-कुलदीप नैय्यर

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