नीतीश का हर दांव ‘उलटा’ पड़ रहा है

Sunday, Oct 04, 2015 - 01:21 AM (IST)

(वीरेन्द्र कपूर): बातें तो नीतीश कुमार विकास की करते हैं लेकिन स्वतंत्र पर्यवेक्षक आपको बता देंगे कि बिहार में एक दशक के नीतीश कुमार के शासन और डेढ़ दशक के लालू यादव के राज के दौरान मुश्किल से ही कोई विकास कार्य हुए हैं। प्रख्यात आॢथक पत्रकारों में से एक टी.एन. नाइनन ने हाल ही में अपने एक आलेख में उल्लेख किया है : ‘‘भारत में कुल बैंक ऋण में बिहार की हिस्सेदारी केवल एक प्रतिशत है जोकि केवल 10 लाख आबादी वाले चंडीगढ़ को दिए गए बैंक ऋण से मामूली-सी अधिक है, जबकि बिहार की आबादी 10 करोड़ 40 लाख है। देश की जनसंख्या में 9 प्रतिशत हिस्सेदारी बिहार की है लेकिन देश में कारों की कुल बिक्री में इसकी हिस्सेदारी मात्र 1 प्रतिशत है। इसकी बिजली की खपत भी दिल्ली शहर से आधी है....।’’

नाइनन ने एक अन्य कुंजीवत तथ्य का भी उल्लेख किया है कि प्रदेश में मुश्किल से ही उद्योग नाम की कोई चीज है। राज्य में केवल 29 चीनी मिलें हैं, जिनमें से अधिकतर सरकारी स्वामित्व वाली हैं। कुल 7 चीनी मिलें काम कर रही हैं और ये सभी प्राइवेट हैं।
 
इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि नीतीश सरकार में जब भाजपा शामिल थी तो गवर्नैंस निश्चय ही बेहतर थी। लेकिन जैसे ही नीतीश पर प्रधानमंत्री बनने का भूत सवार हुआ और उन्होंने भाजपा से नाता तोड़ लिया, प्रशासन बुरी तरह प्रभावित हुआ और वह लालू यादव के राजद सहित छोटे-छोटे राजनीतिक गुटों के हाथों का खिलौना बन कर रह गया क्योंकि भाजपा से अलग होने के बाद उनके लिए इन गुटों के विधायकों को अपने साथ जोडऩा जरूरी था। अब वह उसी लालू प्रसाद के बंधक बनकर रह गए हैं जो जोर-शोर से जाति का पत्ता खेलते हैं। इसी बीच नीतीश शहरी क्षेत्रों में श्रोताओं के सामने ‘विकास’ का राग अलापते हैं लेकिन उनका स्वर किसी बच्चे के सुबकने से अधिक प्रभावी नहीं होता।
 
बेचारे नीतीश! उनका हर दाव उलटा ही पड़ रहा है। पहले तो उन्होंने मोदी और अमित शाह को ‘बाहरी व्यक्ति’  करार देते हुए हो-हल्ला मचाया लेकिन जब किसी ने उन्हें याद दिलाया कि उन्होंने पश्चिमी यू.पी. में लंबे समय से जनता परिवार से जुड़े हुए के.सी. त्यागी सहित अनेक बाहरी व्यक्तियों को न केवल राज्यसभा के लिए नामांकन दिया बल्कि बिहार के वरिष्ठ नेताओं में भी उन्हें शामिल किया तो नीतीश की बोलती बंद हो गई। बिहार से संबंधित शिवानंद तिवारी, देवेश ठाकुर, एन.के. सिंह, शबीर अली इत्यादि  की अनदेखी करके पवन वर्मा जैसे एकदम गैर-बिहारी रिटायर्ड डिप्लोमैट को  वरीयता देने के आरोप ने तो नीतीश को बिल्कुल निहत्था ही कर दिया। यह सब कुछ केवल इसलिए हुआ कि नीतीश जद(यू) के एकमात्र भाग्यविधाता के रूप में काम करते हैं और किसी भी अन्य व्यक्ति को निर्णय प्रक्रिया में शामिल नहीं करते।
 
सच्चाई यह है कि यदि सैद्धांतिक रूप में जद(यू) के अध्यक्ष शरद यादव के पास कोई शक्ति होती तो वह भाजपा के साथ कदापि संबंध-विच्छेद न करते क्योंकि वह जन्मजात लोहियावादी हैं और कांग्रेस के कट्टर विरोधी हैं। यदि जद(यू) ने भाजपा से खुद को अलग न किया होता तो शरद यादव आज मोदी मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण पद पर तैनात होते। इस प्रकार नीतीश की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा ही उनको ले डूबी और वह उन्हीं लोगों के रहमो-करम के पात्र बन गए हैं जिनकी आलोचना करते वह थकते नहीं थे- यानी कि लालू यादव और सोनिया गांधी।
 
इसी दौरान राजस्थान और मुम्बई का सट्टा बाजार जोकि कथित चुनावी विशेषज्ञों की तुलना में चुनावी परिणामों का रुख भांपने में कई गुणा अधिक दक्ष है, ने बिहार में भाजपा के स्पष्ट बहुमत की आशा व्यक्त की है- यानी कि कुल 243 सीटों में से भाजपा अकेले ही 140 से अधिक सीटें ले जाएगी। फिर भी राहुल गांधी के लिए सट्टा बाजार की खुशखबरी यह है कि उनकी पार्टी गत चुनाव की 4 सीटों की तुलना में अब की बार 5 सीटें जीत सकती है- यानी कि 25 प्रतिशत प्रगति। क्या इस खुशखबरी पर 10 जनपथ के दरबारियों को अभी से लड्डू नहीं बांटने चाहिएं?
 
हाई प्रोफाइल विदेश यात्रा करके नरेन्द्र मोदी ने एक बार फिर सफलता के झंडे क्या गाड़े कि कांग्रेस नेतृत्व की नींद ही हराम हो गई और यह हर प्रकार के ओछेपन पर उतारू हो गया। वैसे कांगे्रस और मोदी दोनों के लिए खुद को बदलना काफी मुश्किल है। मोदी जहां भी जाते हैं अपने यजमानों के साथ तत्काल घनिष्ठता और अपनापन स्थापित कर लेते हैं। इस काम में बार-बार शानदार सफलता अर्जित करने का उनको शायद ‘रोग’ ही लग गया है। दूसरी ओर कांग्रेस अभी तक इस सच्चाई को हजम नहीं कर पाई कि एक ‘चाय वाला’ प्रधानमंत्री बन गया है और मीडिया में 24 घंटे उसी की चर्चा होती रहती है, देश-विदेश में जिसकी छवि लगातार प्रचंड होती जा रही है।
 
जैसी परिस्थितियां चल रही हैं, सत्तारूढ़ पार्टी और मुख्य विपक्षी दल द्वारा राष्ट्र के व्यापक हित में मिलकर काम करने का तरीका सीखने की संभावना लगभग शून्य है। प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं के प्रति कांग्रेस की प्रतिक्रिया सिवाय ईष्र्या के और किसी भी बात को प्रतिबिम्बित नहीं करती। गांधी-नेहरू परिवार के चापलूस तो अपने नम्बर बनाने के लिए सद्गुणों और मर्यादाओं की सामान्य सीमाओं को लांघ जाते हैं और मोदी की शानदार रैलियों व अभिनंदनों के बारे में बहुत ही घटिया टिप्पणियां करने से बाज नहीं आते।
 
वैसे किसी एक ही दौरे से किसी देश के साथ संबंधों में रातों-रात क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं हो जाता, फिर भी इससे मेहमान और यजमानों दोनों नेताओं को एक-दूसरे के  साथ व्यक्तिगत घनिष्ठता करने तथा कालांतर में द्विपक्षीय संबंधों की उलझन भरी गांठों को धीरे-धीरे खोलने का मौका मिलता है। इससे व्यापार, टैक्नोलॉजी तथा संस्कृति इत्यादि क्षेत्रों में बहुपक्षीय संबंधों को मजबूत करने का वातावरण सृजित होता है। विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक और सैन्य शक्ति अमरीका  के  राष्ट्रपति पद के स्तर 
पर घनिष्ठता और आदान-प्रदान का सदा ही स्वागत किया जाना चाहिए।
 
भारत के लिए यह गर्व की बात होनी चाहिए कि 2 वर्ष से भी कम अवधि दौरान भारतीय नेता ने अमरीकी राष्ट्रपति से 5 बार मुलाकात की है। जब भी ओबामा और मोदी मिलते हैं तो एक बात स्पष्ट है कि वे न तो मौसम के बारे में बातें करते हैं और न हॉलीवुड और बॉलीवुड के बारे में। वे ठोस कारोबारी मुद्दों पर चर्चा करते हैं जिनके संबंध में दोनों पक्षों के नीति निर्धारकों ने उच्च स्तर पर सभी जरूरी तैयारियां कर ली होती हैं। बेशक अमरीका अभी भी पाकिस्तान पर विश्वास करता है और पाक-अफगान मामलों में चीन की दखलअंदाजी को न चाहते हुए भी बर्दाश्त करता है, फिर भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि हम विश्व के सबसे शक्तिशाली देश की ओर से मुंह नहीं फेर सकते।
 
अमरीका भारत का प्रमुख व्यापार सहयोगी है। अनेक रणनीतिक और सुरक्षा उत्पादों के लिए हम इस पर निर्भर करते हैं- चाहे ये इंटरनैट से संबंधित नवीनतम घटनाक्रम हों या दवासाजी क्षेत्र की नई खोजें, अकादमिक उत्कृष्टता हो या सांस्कृतिक व लाइफ स्टाइल रुझान इत्यादि। अमरीका अन्य देशों की तुलना में बहुत आगे है। इसके अलावा अमरीका में 20 लाख भारतीय रहते हैं जो हमारे अघोषित राजदूत हैं और भारत-अमरीकी संबंधों को मजबूती प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
 
इसलिए मोदी के अमरीका दौरे को नीचा दिखाना और इसे मात्र प्रोपेगंडा करार देना यही प्रदॢशत करता है कि कांग्रेस पार्टी को भारत-अमरीका संबंधों के महत्व का बोध ही नहीं है। मोदी के लिए आनंद शर्मा और रणदीप सुर्जेवाला ने जो शब्द प्रयुक्त किए हैं वे इन नेताओं की हैसियत के अनुसार नितांत अशोभनीय हैं और उनकी राजनीतिक एवं बौद्धिक परिपक्वता के बारे में संदेह पैदा करते हैं।
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