फाक्सवैगन पर छाए ‘अनिश्चितता’ के बादल

Thursday, Oct 01, 2015 - 01:26 AM (IST)

(विजय दर्डा): दुनिया के कार उद्योग के सबसे बड़े ब्रांड्स में से एक फॉक्सवैगन को औंधे मुंह गिरने में केवल एक ही सप्ताह लगा। विश्वसनीयता और जर्मन इंजीनियरिंग कौशल के इस प्रतीक का जन्म 1937 में हिटलर के आशीर्वाद से आम जनता के लिए कार का निर्माण करने की परियोजना में से हुआ था लेकिन अब इस पर अनिश्चितता के घने बादल छा गए हैं। यह निर्णायक ढंग से सिद्ध हो गया है कि 2008 के बाद कम्पनी ने दुनिया भर में टाइप टी.ए.-189 डीजल इंजन युक्त 1 करोड़ 11 लाख कारें बेची हैं। 

इन कारों में ऑडी ए-3, वी.डब्ल्यू. जेटा, बीटल (फॉक्सवैगन की मूल कार), गॉल्फ और पास्सट शामिल हैं। इन सभी कारों में एक ऐसा अत्याधुनिक सॉफ्टवेयर फिट था जो प्रदूषण परीक्षणों को धोखा देने में सक्षम था लेकिन परीक्षण के बाद कारों को फिर से स्वीकृत सीमा से 40 गुना अधिक प्रदूषण पैदा करने की अनुमति देता था। 
 
आगे बढऩे से पहले यह समझना जरूरी है कि यह यंत्र धोखाधड़ी कैसे करता था। डीजल कारों में इलैक्ट्रोनिक मॉड्यूल मौजूद थे जो अपशिष्टों को अवैध कानूनी सीमा के अंदर केवल तभी रखते थे जब प्रदूषण का परीक्षण हो रहा हो। स्टीयरिंग व्हील की स्थिति के आधार पर कम्प्यूटर यह पता लगा लेता था कि प्रदूषण परीक्षण हो रहा है या नहीं। सामान्यत: जब भी कोई कार अनुमेय सीमा से अधिक प्रदूषण पैदा करने लगती है तो इसका डैशबोर्ड जगमगा उठता है लेकिन इन कारों के मामले में कम्प्यूटर इस फंक्शन को ठप्प कर देता था। 
 
फॉक्सवैगन को 2014 में दुनिया  की सबसे बड़़ी कम्पनियों की ‘फार्चून ग्लोबल 500’ सूची में 9वां स्थान हासिल हुआ था और इसके द्वारा तैयार वाहनों का आंकड़ा 1 करोड़ 14 लाख को छू गया था। अब यह भी खुलासा हुआ है कि कम्पनी ने यह हेराफेरी उपभोक्ताओं को ऐसी डीजल कार की ओर आकॢषत करने के नाम पर की थी जो पर्यावरण के लिए किसी प्रकार का खतरा नहीं है। अब तो यह भी खुलासा हुआ है कि फॉक्सवैगन कारों में लगे डीजल इंजन नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसी गैस भी भारी मात्रा में पैदा करते हैं जिसके फलस्वरूप दमे के रोगियों की तकलीफों में वृद्धि होती है। 
 
इस स्कैंडल के केंद्र में वास्तव में बड़े कारोबारियों का घमंड और यह रवैया है कि वे अपने धन-बल के बूते  किसी भी तरह की बदमाशी करके बच निकलेंगे। पर्यावरण के संरक्षण के मुद्दे पर वे केवल जुबानी जमा-खर्च ही करते हैं और इस संबंध में बने नियमों को ऐसे अवरोधों के रूप में देखते हैं जिन्हें धोखाधड़ी और छल-कपट के द्वारा वे पार कर सकते हैं। इस मामले में समय बीतने के साथ-साथ उन सभी विफल प्रयासों का खुलासा होगा जो फॉक्सवैगन ने घोटाले पर पर्दा डालने के लिए अंजाम दिए थे। 
 
इस उल्लंघन के विवरण और अमरीकी पर्यावरण संरक्षण एजैंसी (ई.पी.ए.) द्वारा इस मामले में अगली दंडात्मक कार्रवाई करने के तथ्य का खुलासा 3 सितम्बर को ही हो गया था लेकिन सार्वजनिक रूप में यह बात 18 सितम्बर को मीडिया में आई। 
 
इसके बावजूद कम्पनी ने समस्या को बहुत घटा कर पेश करते हुए दावा किया कि यह शिकायत केवल 5 लाख कारों में ही आई है लेकिन अब संकट की पूरी गंभीरता हमारे सामने है। यह बदमाशी केवल एक कार कम्पनी तक सीमित नहीं, वास्तव में जर्मनी का सम्पूर्ण ऑटो उद्योग (और इसी के कारण इसकी सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था) के लिए यह यूनान संकट से भी बड़ी चुनौती है। फॉक्सवैगन कम्पनी को 18 अरब डालर से भी अधिक का हर्जाना भरना पड़ सकता है। जो व्यक्तिगत मुकद्दमे और ‘क्लास एक्शन’ मुकद्दमे चलेंगे वे इससे अलग होंगे। 
 
दूसरी ओर कम्पनी ने इस नुक्स को ठीक करने के लिए 7 अरब डालर की जो राशि निर्धारित की है वह बहुत ही कम है। वास्तव में प्रति कार यह 700 डालर से भी कम बनती है क्योंकि ई.पी.ए. ने चेतावनी दी है कि फॉक्सवैगन की अभी और जांच-पड़ताल जारी रखी जाएगी तथा स्वच्छ वायु अधिनियम के उल्लंघन जैसी अन्य कार्रवाइयों का भी इसे सामना करना पड़ सकता है व प्रति वाहन मुआवजे की राशि 37500 डालर तक जा सकती है। 
 
लेकिन इन सब बातों से भी बड़ा नुक्सान यह है कि कम्पनी उपभोक्ताओं का विश्वास खो बैठी है। अब फॉक्सवैगन के ब्रांड पर कौन भरोसा करेगा? नई कारों की बिक्री की बात तो भूल ही जाएं, पुरानी कारों के बाजार में भी इसके वाहनों की क्या कोई कीमत रह जाएगी। दुनिया भर के उन करोड़ों लोगों का क्या होगा जिनके पास इस कम्पनी की कारें हैं? वे सभी प्रदूषण नियंत्रण नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं इसलिए उन्हें अपनी कारें सड़कों से उतारने के लिए मजबूर किया जाएगा। ये ऐसे सवाल हैं जिनके उत्तर ढूंढना आसान नहीं। 
 
कम्पनी ने बेशक अपना घर ठीक  करने के लिए अपने सी.ई.ओ. माॢटन विंटरकॉर्न को बर्खास्त करके और अपनी ‘पोर्श’ ईकाई के पूर्व प्रमुख मथिया मुल्लर को उनके स्थान पर तैनात करते हुए दावा किया है कि प्रदूषण स्कैंडल के लिए कुछ व्यक्तियों का ‘छोटा-सा गुट’ ही जिम्मेदार है और कुछ अज्ञात कर्मचारियों को भी निलंबित किया है लेकिन इन सब बातों से विश्वास बहाली के मामले में कोई खास सहायता नहीं मिलेगी। यह प्रकरण उन सभी लोगों के लिए आंखें खोलने वाला है जो किसी न किसी हद तक उपभोक्ताओं के समक्ष उत्तरदायी हैं। 
 
महंगी और लग्जरी कारों के सभी मालिक इस तथ्य से भली-भांति वाकिफ हैं कि कारों की गुणवत्ता/ सॢवसिंग से संबंधित मुद्दों पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियां किस प्रकार उन्हें अपनी मनमर्जी के अनुसार परेशान करती हैं।  अक्सर उपभोक्ता के सामने कोई विकल्प ही नहीं होता और कम्पनी जो पेश करती है वही उसे स्वीकार करना पड़ता है क्योंकि भारत में उपभोक्ता संरक्षण कानून और व्यक्तिगत ‘टोर्ट’ कानून अभी पश्चिमी देशों जितने विकसित नहीं हैं। इसके फलस्वरूप उपभोक्ताओं की जो लूट-खसूट होती है उसमें सरकार और नियामक तंत्र कोई प्रभावशाली हस्तक्षेप नहीं कर पाते, फिर भी फॉक्सवैगन प्रकरण ने हमें इस दिशा में आगाह कर दिया है।          
 
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