बिहार चुनाव के बाद पंजाब की राजनीति में होंगी नए सिरे से ‘कतारबंदियां’

Sunday, Sep 27, 2015 - 01:21 AM (IST)

(बी.के. चम): पंजाब की मुख्यधारा राजनीतिक पार्टियों में उथल-पुथल मची हुई है। सबसे बुरा हाल कांग्रेस का है और उसके बाद भाजपा व आम आदमी पार्टी (आप) का नम्बर आता है। अकाली दल भी अछूता नहीं रहा है क्योंकि इस पार्टी में भी असहमति और रोष के स्वर उभरने के संकेत मिल रहे हैं। वामपंथी पार्टियां ही इस मामले में एकमात्र अपवाद हैं लेकिन उनका जनाधार बहुत गहराई तक सिकुड़ चुका है। अब वे अकाली-भाजपा सरकार के विरुद्ध संयुक्त संघर्ष चलाकर फिर से अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता हासिल करने के प्रयास कर रहे हैं।

इस स्थिति ने 2 प्रश्नों को जन्म दिया है : क्या पंजाब विधानसभा चुनाव, जो अभी 15 माह दूर हैं, से पूर्व राजनीतिक कतारबंदियां होंगी? यदि हां, तो इस प्रकार की कतारबंदियों के बिहार चुनाव के नतीजों से किस हद तक प्रभावित होने की संभावना है? पंजाब की राजनीति के ज्वलनशील इतिहास के मद्देनजर इस प्रश्न का उत्तर देना काफी जोखिम भरा है। फिर भी पंजाब की मुख्यधारा राजनीतिक पार्टियों की वर्तमान स्थिति का विश्लेषण करके इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने का प्रयास मूल्यवान हो सकता है।
 
कहते हैं कि आदतें मरते दम तक पीछा नहीं छोड़तीं। परम्परागत रूप में गुटबंदी से त्रस्त कांग्रेस पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह तथा कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष प्रताप सिंह बाजवा के गुटों में बंटी हुई है। अमरेन्द्र सिंह की सार्वजनिक रैलियों को जितना व्यापक समर्थन मिल रहा है उससे यह सिद्ध हो जाता है कि पंजाब कांग्रेस में वर्तमान में उनके मुकाबले का कोई भी लोकप्रिय नेता नहीं है।
 
2012 में अकाली-भाजपा सरकार के विरुद्ध एंटी इन्कम्बैंसी (सत्ता परिवर्तन) की सशक्त लहर के बावजूद कांग्रेस केवल अमरेन्द्र सिंह के अति आत्मविश्वास, कार्यकत्र्ताओं से दूरी बनाए रखने और ढुलमुल रवैये के कारण ही विधानसभा चुनाव में पराजित हो गई थी। प्रकाश सिंह बादल की विशाल जन समूह में व्यक्तिगत पैठ और पार्टी की कमान अपने हाथों में संभालने के उनके फैसले के कारण  कांग्रेस की पराजय और अकाली-भाजपा गठबंधन की जीत हुई। स्पष्ट तौर पर उन्हें भय था कि पंजाब कांग्रेस की कमान अमरेन्द्र सिंह के हाथों में होने और उनके खुद के भतीजे मनप्रीत सिंह बादल द्वारा अकाली दल को अलविदा कह देने के कारण चुनाव में पार्टी को राजनीतिक और चुनावी दोनों तरह का नुक्सान हो सकता है।
 
कांग्रेस हाईकमान बेशक बहुत शोर मचाते हुए दावा कर रही है कि यह अपनी पंजाब इकाई में चल रहे गुटबंदी के झगड़े जल्दी ही हल कर लेगी लेकिन अभी तक यह ऐसा करने में विफल रही है। इसका मुख्य कारण है राहुल गांधी का आदतन ढुलमुल रवैया और पार्टी की समस्याएं हैंडल करने में उनकी अक्षमता। इसके अलावा वह वरिष्ठ पार्टी नेताओं की अनदेखी करते हुए नेतृत्व की दूसरी पंक्ति तैयार करने के प्रयास भी करते हैं।
 
अपने 56 दिवसीय अज्ञातवास से लौटने के बाद राहुल ने राजनीतिक और संगठनात्मक मुद्दे हैंडल करने के मामले में परिपक्वता के संकेत दिए थे लेकिन अब वह फिर से कार्यशैली के अपरिपक्व तौर-तरीकों की ओर लौट गए लगते हैं। आदमियों की परख करने के मामले में अपने अनाड़ीपन के चलते उन्होंने पहले तो पंजाब और हरियाणा सहित प्रदेश कांग्रेस समितियों में ऐसे लोगों को अध्यक्ष बना दिया जिनका बहुत ही सीमित जनाधार था। अब उन्होंने राज्यों में दूसरी कतार के नेतृत्व का चयन करने के लिए एक भर्ती आयोग की तरह कार्य करना शुरू कर दिया है। एक लोकप्रिय अंग्रेजी दैनिक के अनुसार राहुल ने यह आदेश जारी कर रखा है कि ‘‘पार्टी के जो कार्यकत्र्ता बड़े नेताओं की कतार में शामिल होना चाहते हैं उन्हें उनके साथ 30 मिनट के साक्षात्कार को अवश्य ही पास करना होगा।’’ 
 
इससे पहले राहुल ने यूथ कांग्रेस में भी इसी प्रकार की पहल की थी लेकिन उन्हें कोई खास सफलता हाथ नहीं लगी। ये दोनों कवायदें वरिष्ठ और अनुभवी पार्टी नेताओं की अनदेखी करते हुए शुरू की गई थीं। पार्टी में गुटबंदी को अधिक बढ़ावा देने में यह भी एक मुख्य कारक सिद्ध हुई है।
 
अब जबकि कांग्रेस को बिहार में बहुत निर्णायक विधानसभा चुनाव का सामना करना पड़ रहा है तो राहुल ‘‘एक कांफ्रैंस में शामिल होने’’ के नाम पर अमरीका जाने का बहाना बनाकर एक बार फिर पार्टी में से गैर-हाजिर हो गए हैं। सोनिया गांधी यथार्थवादी हैं और यदि उन्होंने पार्टी अध्यक्ष के पद पर अपने बेटे की बहु प्रतीक्षित पदोन्नति करने से एक बार फिर परहेज किया है तो इसके पीछे निश्चय ही ठोस कारण होंगे।
 
नेहरू-गांधी खानदान लंबे समय से परिवारवादी राजनीति को बढ़ावा देने के कारण आलोचना झेलता आया है। गत कुछ वर्षों दौरान कई अन्य पार्टियों (खास तौर क्षेत्रीय पार्टियां) ने तो कांग्रेस से भी अधिक हठधर्मी दिखाते हुए परिवारवादी राजनीति का अनुसरण किया है। पंजाब के सत्तारूढ़  बादल परिवार ने तो भाजपा के साथ गठबंधन सरकार होते हुए भी पंजाब में अपने लंबे-चौड़े परिवार का शासन थोप रखा है।
 
2007 से 2015 तक के अकाली-भाजपा शासन की पड़ताल इसी पृष्ठभूमि में की जानी चाहिए। इस कालखंड के दौरान पार्टी की कार्यशैली में दो घटनाक्रम देखने को मिले हैं। पहला तो था प्रकाश सिंह बादल ने पार्टी और सरकार की कमान अपने बेटे सुखबीर सिंह के हवाले कर दी और दूसरा पार्टी के अंदर बढ़ती दुश्मनियां तथा अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र को बचाए रखने के ऐसे प्रयास जैसे यह कोई जागीर हो। पार्टी के निचले स्तरों पर तो खास तौर पर यह नजारा देखने को मिल रहा है।
 
2012 में कांग्रेस के दोबारा सत्तासीन होने के खतरे के मद्देनजर बादल ने सुखबीर सिंह से सरकार की बागडोर अपने हाथों में ले ली। अब जब 2017 के विधानसभा चुनाव केवल 15 माह दूर रह गए हैं तो ऐसा लगता है कि प्रकाश सिंह बादल ने सरकार चलाने की जिम्मेदारी एक बार फिर अपने बेटे को वापस सौंप दी है। ऐसा करने के पीछे संभवत: दो कारण हैं- स्वास्थ्य समस्याएं और बुढ़ापा बादल साहिब शायद ऐसा सोच रहे हैं कि वह चुनावी अभियान की भाग-दौड़ का बोझ उठाने के योग्य नहीं हैं। अगले कुछ महीनों में यह सिद्ध हो जाएगा कि हमारी यह अवधारणा कहां तक सच है।
 
पंजाब भाजपा की स्थिति दयनीय है। इसका नेतृत्व गुटबंदी के चलते पंगु बना हुआ है और ऊपर से यह गुटबंदी के निचले स्तरों तक पहुंच गई है। अपने वरिष्ठ सत्ता सहयोगी के साथ पार्टी के रिश्तों पर जो केतुछाया बनी रहती है वह यदा-कदा भाजपा के कुछ वरिष्ठ मंत्रियों की नौकरशाहों द्वारा अवज्ञा के रूप में सामने आती है।
 
फिर भी भाजपा की अंदरूनी समस्याओं और दोनों पाॢटयों के असुखद आपसी संबंधों के बावजूद उनकी चुनावी मजबूरियां उन्हें 2017 का विधानसभा चुनाव गठबंधन सहयोगियों के रूप में मिल कर लडऩे की ओर धकेलेंगी। दिल्ली विधानसभा चुनाव में सभी विरोधियों को धूल चटाने और पंजाब में लोकसभा की 4 सीटें जीतने वाली ‘आप’ बिखराव की स्थिति में है। मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की नुक्सदार कार्यशैली के चलते पार्टी ऊपर से नीचे तक दोफाड़ हो गई है और पंजाब से संबंधित इसके दो सांसदों ने बगावत कर दी है। यदि केजरीवाल परिस्थितियों को ठीक न कर पाए तो यह शायद ‘आप’ के विखंडन की शुरूआत होगी जोकि लोकतंत्र के लिए कोई स्वस्थ संकेत नहीं।
 
यह तो निश्चित दिखाई देता है कि बिहार चुनाव के बाद पंजाब की राजनीति में नए सिरे से कतारबंदियां होंगी। सवाल यह है कि ये कतारबंदियां कौन-सा रूप ग्रहण करेंगी। यदि बिहार में राजद-जद(यू)-कांग्रेस का महागठबंधन जीत जाता है तो पंजाब की विपक्षी पाॢटयां भी शायद प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में बिहार के प्रयोग की पुनरावृत्ति करते हुए अकाली-भाजपा के गठबंधन के विरुद्ध आपस में हाथ मिला लेंगी लेकिन यदि बिहार में भाजपा जीत जाती है तो पंजाब की विपक्षी पाॢटयों में से पलायन का सिलसिला शुरू हो सकता है जिससे राज्य में नई राजनीतिक कतारबंदियां सामने आएंगी। यह पंजाब की राजनीति में एक नए ज्वलनशील दौर की शुरूआत होगी।
Advertising