‘निंदा व प्रशंसा’ को सही परिप्रेक्ष्य में जानें
punjabkesari.in Monday, Sep 14, 2015 - 12:28 AM (IST)

(डी.पी. चंदन): ‘प्रशंसा’ सबको पसन्द होती है व ‘निंदा’ कोई विरला ही पचा पाता है। ‘प्रशंसा’ मुफ्त में मिले तो इस जैसा कोई उपहार नहीं, लेकिन ‘निंदा’ कितनी भी शिक्षावर्धक व सेहतयाब क्यों न हो उसको पचाने की क्षमता व माद्दा बहुत कम लोगों में होता है। राजनीतिक दलों में तो इन दो शब्दों की खास महत्ता होती है क्योंकि यह दो शब्द ही उस दल की सेहत का निर्धारण करते हैं। आजकल तो ‘निंदा’ को पचाने के लिए दलों को Diagnose करने तथा उनको प्रशिक्षित कर सुधारने के प्रयास भी हो रहे हैं। यह व्यवस्था केवल उन दलों में ही देखने को मिल रही है जो दल अंदरूनी लोकतंत्र को कायम रखने व दल को निरंकुशता की ओर बढऩे से रोकने को प्रयासरत हैं।
बिना मांगे प्रशंसा ने कई राजनीतिक दलों का दिमाग इतना बिगाड़ दिया है कि अंकुश नाम की कोई चीज ही दिखाई नहीं देती। संगठन की सेहत को कायम रखने हेतु कड़वी दवाई यानी ‘निंदा’ लेकिन सकारात्मक ‘दृष्टि’ से ओत-प्रोत होना अति अनिवार्य है। अगर राष्ट्रहित में भारतीय संसद में पाकिस्तान के देश विरोधी प्रोपेगंडा व राष्ट्रहित के लिए बंगलादेश की सीमा में सुधार कर सभी विरोधी दल एकजुट होकर संयुक्त प्रस्ताव ला सकते हैं तो सभी दल अपनी अंदरूनी व्यवस्था को ठीक करने हेतु क्यों इन दो शब्दों को सही अर्थों में समाहित कर अपने दलों में अंदरूनी लोकतंत्र कायम नहीं कर सकते?
यद्यपि यह भी सत्य है कि निंदा, चुगली, नकारात्मक दृष्टिकोण किसी भी संगठन के लिए घातक सिद्ध हो सकता है, जबकि संगठन स्तर पर मर्यादा में रहकर सेहतमंद ‘निंदा’ रामबाण साबित हो सकती है। इसी तरह कार्यकत्र्ताओं का मनोबल बढ़ाने हेतु ‘प्रशंसा’ संगठन में नई ऊर्जा का संचालन कर उसे सेहतमंद बना सकती है लेकिन चापलूसी की इंतहा तक की गई ‘प्रशंसा’ संगठन व व्यक्ति को पथभ्रष्ट कर सकती है। अगर समस्त दल देशहित के लिए इकठ्ठे होकर आवाज उठा सकते हैं तो फिर सभी दल अपने अंदरूनी लोकतंत्र को कायम रखने हेतु क्यों नहीं आवाज बुलंद कर सकते? लेकिन ऐसा होता बहुत कम दिखाई देता है।
दरअसल सारे राजनीतिक दल चीजों को अपने स्वार्थ अनुसार होते देखना पसन्द करते हैं और हमेशा ‘प्रशंसा’ को ही अधिमान देते हैं, जबकि समस्त मानवता ही इस दोष के चलते पथभ्रष्ट होती जा रही है। राजनीतिक दल तो अपने संगठन खड़े करते वक्त ही इन कमजोरियों के शिकार हो जाते हैं जिससे संगठन रचना में ज्यादातर चापलूस प्रवृत्ति उभरकर सामने आती है।
यहां प्रश्न यह पैदा होता है कि भारतीय लोकतंत्र के घटक (राजनीतिक दल) क्या ‘निंदा’ को सहन करने में अक्षम हो गए हैं? क्या वे भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद ‘प्रशंसा’ रूपी नींव पर रखकर मुंगेरी लाल के सपनों में खोए रहना चाहते हैं, क्या ‘निंदा’ व ‘प्रशंसा’ रूपी ब्रह्मास्त्रों का वे कभी सही मूल्यांकन कर पाएंगे?
‘निंदा’ व ‘प्रशंसा’ दो ऐसे शब्द हैं जिनकी हमारी जिंदगी में बहुत बड़ी महत्ता है। यह हमारी सामाजिक व राजनीतिक जीवन शैली को अपने नामों के कथन अनुसार बहुत हद तक प्रभावित करते हैं। खासतौर पर राजनीतिक क्षेत्र में इन शब्दों का महत्व और भी बढ़ जाता है जब सभी पात्र इस कोशिश में रहते हैं कि उनके स्वार्थ की पूर्ति उनकी महत्वाकांक्षा के अनुरूप हो। इसलिए अपेक्षित फल की पूर्ति के लिए इन शब्दों को सही परिप्रेक्ष्य में जानने व अपनी कार्यशैली में समाहित करने की कला ही विरोधाभासी परिस्थितियों में भी आगे बढऩे में सार्थक हो सकती है। सामान्यता आलोचना या निंदा शब्द नकारात्मक दृष्टिकोण लिए हमारे सामने उभरता है। राजनीतिक क्षेत्र में तो असामान्य तौर पर यह घृणा का पात्र बन जाता है।
जबकि वास्तव में निंदा एक ऐसी औषधि का काम करती है जो पुरानी से पुरानी बीमारी को भी जड़ से खत्म करने की क्षमता रखती है, केवल पात्र द्वारा इसके वास्तविक स्वरूप को पहचान कर अपने जीवन में अपनाने भर की जरूरत दरकार होती है। ‘निंदक’ व ‘प्रशंसक’ हरेक इंसान की जीवन यात्रा के अभिन्न व अग्रणी साथी हैं तथा हरेक क्षेत्र में इनकी अलग-अलग उपयोगिता भी है। आवश्यकता केवल हरेक की उपयोगिता को सार्थक स्वरूप देने की है। विपरीत शाब्दिक अभिप्राय होने के बावजूद यह हमारी जिंदगी में गहरी छाप छोड़ते हैं और हमारी दिशा और दशा तय करते हैं। राजनीति में इन पात्रों को ‘मोहरों’ की संज्ञा दी जाती है। देश की मौजूदा परिस्थितियों को दिशा देने में इन पात्रों की चालों का गहरा योगदान रहा है। गहराते जा रहे राजनीतिक पतन से उत्थान के लिए जरूरत है इन दो शब्दों को सही परिप्रेक्ष्य में जानकर अपनी जिंदगी में अपनाने की।
‘आलोचना’ या ‘निंदा’ जिंदगी के फूल को खुशबूदार बनाने व प्रफुल्लित करने में खाद का काम करती है। जैसे गली-सड़ी बदबूदार खाद वास्तविक फूल रूपी पौधे को बढऩे व खुशबूदार बनाने में कारगर साबित होती है उसी तरह यह जिंदगी को खुशबूदार बनाने में अहम रोल अदा करती है। क्या फूल खुशबूदार इत्र द्वारा सींचे जाने पर खुशबू पैदा करने का दावा कर सकता है? उसको अपनी हस्ती कायम रखने के लिए बदबूदार खाद की बदबू सहनी ही पड़ती है और उस खाद में विद्यमान हजारों खनिज उस फूल की खुशबू का राज बनते हैं।
जबकि खुशबू देना फूल का स्वभाव है लेकिन खुशबूदार इत्र द्वारा सींचा जाना उसकी मौत का कारण बन सकता है। इसी तरह इंसान को अपनी जिंदगी को खुशबूदार बनाने व अपनी हस्ती को कायम रखने के लिए बदबूदार खाद यानी ‘निंदा’ व ‘आलोचना’ को अपनी जिंदगी में सही परिप्रेक्ष्य में पहचान कर अपनाने की जरूरत है।
आज के सामाजिक व खासतौर पर राजनीतिक क्षेत्र में अंतर्कलह केवल मात्र इसी भेद को सही परिप्रेक्ष्य में न समझ पाने के कारण तीव्र गति से पनप रही है। अगर हम निंदा को खनिज समझ कर अपनी कमजोरियों को दूर करने के लिए अपनाएं तो न तो हमें ‘निंदा’ रूपी खाद से बदबू आएगी और न ही अपनी हस्ती को खतरा पैदा होगा।