फिर से सिर उठा रहा ‘आरक्षण’ का भूत

Wednesday, Sep 02, 2015 - 01:43 AM (IST)

(पूनम आई.कौशिश)- हार्दिक पटेल, कौन? कल तक इस 21 वर्षीय अनजान से लड़के ने आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी के लिए सिरदर्द पैदा कर दिया है और वह भी प्रधानमंत्री के गृह राज्य गुजरात में क्योंकि वह पाटीदारी अमानत आंदोलन समिति का नेतृत्व कर रहा है जो आरक्षण की मांग कर रही है और यह आंदोलन दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। यह बताता है कि 21वीं सदी के भारत में भी कोई बदलाव नहीं आएगा। कोटा और कतारें ही देखने को मिलेंगी। 

वस्तुत: यह बड़ी हैरान करने वाली तथा विडम्बनापूर्ण बात है कि समृद्ध समुदाय पटेल अपने लिए पिछड़े वर्ग और आरक्षण की मांग कर रहा है क्योंकि उनका गुजरात में हीरा, कृषि, वस्त्र आदि उद्योगों में 15 प्रतिशत पर कब्जा है और वे अमरीका में लगभग एक-चौथाई मोटलों के मालिक हैं किन्तु पटेलों की इस बात में तर्क दिखाई देता है। इंजीनियरिंग में 90 प्रतिशत अंक प्राप्त करने वाला छात्र दवाई बेच रहा है, जबकि डाक्टरी में 40 प्रतिशत अंक प्राप्त करने वाला एक डाक्टर बन जाता है और इसका कारण आरक्षण है। इसलिए या तो सरकार हमें भी आरक्षण दे या इसे समाप्त कर दे। प्रश्न उठता है कि क्या आरक्षण की मांग के नाम पर हार्दिक आरक्षण विरोधी आंदोलन का नेतृत्व कर रहा है या आरक्षण यदि जाति की बजाय आर्थिक आधार पर हो तो उचित है? 
 
तथापि पटेल की इस मांग की गूंज आधुनिक भारत में सुनाई दे रही है जहां पर लोगों का मानना है कि आरक्षण की मांग करने वालों की तुलना में रोजगार के अवसर नहीं बढ़े हैं और इससे एक विस्फोटक ढंग से भानुमति का पिटारा खुल सकता है। हाॢदक ने पहले ही भड़काऊ भाषा का प्रयोग किया है ‘‘हम गांधी और सरदार पटेल के मार्ग पर चल रहे हैं किन्तु हम भगत सिंह  के मार्ग पर भी चल सकते हैं।’’ अर्थात बंदूकें भी उठा सकते हैं। इस पटेल ने न केवल केन्द्र और राज्य सरकार की नींद हराम कर दी है अपितु 15 वर्ष तक राज्य में ‘नमो’ की मजबूत पकड़ के बाद पहली बार इस नौसिखिए पटेल ने 5 लाख से अधिक की भीड़ जुटाई और यह चेतावनी दी कि यदि उनकी मांग को नहीं माना गया तो 2017  के चुनाव में आनंदीबेन सरकार को उखाड़ फैंक दिया जाएगा।
 
हार्दिक पटेल उसी बात का समर्थन कर रहे हैं जो 1996 के घोषणा पत्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा ने की थी अर्थात् आर्थिक आधार पर आरक्षण हो। वस्तुत: मोदी ने सबका साथ, सबका विकास का नारा देकर इसे  आगे बढ़ाया जिसके अनुसार प्रत्येक छात्र को शिक्षा सुविधाएं दी जाएंगी और कोई भी आरक्षण की मांग नहीं करेगा किन्तु यह कहना आसान है और करना कठिन है क्योंकि विगत वर्षों में हमारे नेतागणों ने कोटा और कतारों को एक दुधारू गाय बनाया है और वे नकारात्मक कदमों से वोट बैंक बनाने का प्रयास करते हैं जिसके अंतर्गत सामाजिक और उत्थान को वोट बैंक की राजनीति के तराजू में तोला जाता है और उनके लिए योग्यता एक गंदा शब्द है। हमारे नेतागण उच्चतम न्यायालय द्वारा आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा से संंतुष्ट नहीं हैं और वे इस सीमा को बढ़ाने का प्रयास करते हैं। तमिलनाडु में यह पहले ही 69 प्रतिशत और बिहार तथा कर्नाटक में 80 प्रतिशत तक पहुंच गई है। 
प्रश्न उठता है कि हमारे संविधान द्वारा प्रदत्त समानता को पिछड़ा वर्ग कब प्राप्त करेगा? क्या भारत के सामाजिक ताने-बाने और सौहार्द को बनाए रखने का उपाय आरक्षण है? यदि कुछ लोगों को रोजगार मिल जाता है तो इससे पटेलों और अन्य पिछड़े वर्गों की स्थिति में कैसे सुधार आएगा? फिर योग्यता और उत्कृष्टता का क्या होगा? क्या एक योग्य छात्र को इसलिए प्रवेश नहीं दिया जाएगा कि उसका कोटा पूरा हो गया है? क्या आरक्षण एक साध्य है? क्या जिन लोगों को आरक्षण दिया गया है उन्हें लाभ मिल रहा है या नुक्सान हो रहा है? यह सच है कि सरकार का मुख्य उद्देश्य गरीब लोगों का उत्थान करना, उन्हें शिक्षा सुविधाएं और समान अवसर उपलब्ध कराना है। किन्तु जब रोजगार में आरक्षण को किसी विशेष जाति या धर्म के आधार पर आंकलित किया जाता है तो यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 15 (1) के विरुद्ध है। इससे न केवल लोगों में मतभेद पैदा होते हैं अपितु यहराष्ट्रीय एकता और भाईचारे के लिए भी नुक्सानदायक है। 
 
त्रासदी यह है कि हमारे नेतागणों द्वारा पैदा किया गया ‘मंडल’ दानव अब उन्हें ही घेरने  लग गया है। ये नेतागण आरक्षण के माध्यम से 70 प्रतिशत से अधिक वोट बैंक पर अपना कब्जा करना चाहते हैं किन्तु वे भूल गए हैं कि जाति आधारित आरक्षण विभाजनकारी और उद्देश्यों को परास्त करने वाला बन गया है। आरक्षण लोगों की जीवन दशा में सुधार करने का उपाय नहीं है। हमारे नेताओं को यह समझना होगा कि 2015 के भारत और 1989 के भारत में अंतर है जब 18 वर्षीय छात्र राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह कर लिया था। समय आ गया है कि अविवेकपूर्ण, लोकप्रियतावाद और तुच्छ राजनीति से ऊपर उठकर आरक्षण पर रोक लगाई जाए क्योंकि यह देश के दीर्घकालीन विकास के लिए बाधकहै।
 
शैक्षिक संस्थानों में मनमाने ढंग से प्रवेश में आरक्षण करने के 2 खतरे हैं। पहला यह है कि गुणवत्ता से समझौता करने से उसमें गिरावट अवश्यंभावी है और जिससे भारत के आर्थिक विकास में ब्रांड इंडिया कमजोर हो जाएगा क्योंकि इसकी सफलता का मूल मस्तिष्क कौशल और विशेषज्ञता है। इसके कारण अर्थव्यवस्था में गिरावट आएगी और आर्थिक उन्नति के अवसर कम होंगे और इसका सबसे अधिक प्रभाव उन पर पड़ेगा जो आर्थिकदृष्टि से सबसे निचले क्रम पर हैं। साथ ही इससे प्रतिभा पलायन होगा और छात्रों का मोह भंग होगा। 
 
नि:संदेह सरकार का मूल उद्देश्य शिक्षा उपलब्ध कराना, गरीबों का उत्थान करना और वंचित वर्गों को बेहतर जीवन शैली प्रदान करना है और सरकार को इस दिशा में सोचना होगा कि समानता के आधार पर इन उद्देश्यों को कैसे प्राप्त किया जा सकता है। केवल शिक्षा में आरक्षण करने से उत्कृष्टता प्राप्त नहीं होगी। सरकार को पिछड़े वर्गों को बुनियादी प्राथमिक शिक्षा देने की नई विधियां ढूंढनी होंगी ताकि वे सामान्य श्रेणी के छात्रों के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकें और उच्च शिक्षा में योग्यता के आधार पर प्रवेश पा सकें। उच्च शिक्षा में आरक्षण का तात्पर्य घोड़ी के आगे गाड़ी जोतना है जिससे भारत एक सदी पीछे चला जाएगा। जब तक प्राथमिक स्तर पर शिक्षा में सुधार नहीं होता तो फिर वे बाद में जीवन और विज्ञान के सिद्धांतों को कैसे सिद्घ कर पाएंगे? 
 
कुल मिलाकर हर कीमत पर सत्ता की चाह रखने वाले हमारे नेताओं को वोट बैंक की राजनीति से परे सोचना होगा और उन्हें अपने निर्णयों के खतरनाक प्रभावों का आकलन करना होगा। उन्हें भारत की प्रगति के साथ अविवेकपूर्ण ढंग से खिलवाड़ करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। सरकार को संपूर्ण आरक्षण नीति पर पुनर्विचार करना चाहिए और आरक्षण को आंख मूंदकर लागू नहीं करना चाहिए और यदि आज इस स्थिति मेेंं सुधार नहीं किया जाता है तो भारत अक्षम और औसत दर्जे का राष्ट्र बन जाएगा। अब सारा दारोमदार मोदी पर है। दृष्टि से सबसे निचले क्रम पर हैं। साथ ही इससे प्रतिभा पलायन होगा और छात्रों का मोह भंग होगा। 
 
नि:संदेह सरकार का मूल उद्देश्य शिक्षा उपलब्ध कराना, गरीबों का उत्थान करना और वंचित वर्गों को बेहतर जीवन शैली प्रदान करना है और सरकार को इस दिशा में सोचना होगा कि समानता के आधार पर इन उद्देश्यों को कैसे प्राप्त किया जा सकता है। केवल शिक्षा में आरक्षण करने से उत्कृष्टता प्राप्त नहीं होगी। सरकार को पिछड़े वर्गों को बुनियादी प्राथमिक शिक्षा देने की नई विधियां ढूंढनी होंगी ताकि वे सामान्य श्रेणी के छात्रों के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकें और उच्च शिक्षा में योग्यता के आधार पर प्रवेश पा सकें। उच्च शिक्षा में आरक्षण का तात्पर्य घोड़ी के आगे गाड़ी जोतना है जिससे भारत एक सदी पीछे चला जाएगा। जब तक प्राथमिक स्तर पर शिक्षा में सुधार नहीं होता तो फिर वे बाद में जीवन और विज्ञान के सिद्धांतों को कैसे सिद्घ कर पाएंगे? 
 
कुल मिलाकर हर कीमत पर सत्ता की चाह रखने वाले हमारे नेताओं को वोट बैंक की राजनीति से परे सोचना होगा और उन्हें अपने निर्णयों के खतरनाक प्रभावों का आकलन करना होगा। उन्हें भारत की प्रगति के साथ अविवेकपूर्ण ढंग से खिलवाड़ करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। सरकार को संपूर्ण आरक्षण नीति पर पुनर्विचार करना चाहिए और आरक्षण को आंख मूंदकर लागू नहीं करना चाहिए और यदि आज इस स्थिति मेेंं सुधार नहीं किया जाता है तो भारत अक्षम और औसत दर्जे का राष्ट्र बन जाएगा। अब सारा दारोमदार मोदी पर है।        
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