परीक्षाओं में ‘फेल’ न करने की प्रणाली अविलंब समाप्त की जाए

Saturday, Aug 22, 2015 - 12:44 AM (IST)

पिछली सरकार ने 1 अप्रैल, 2010 से समस्त भारत में शिक्षा का अधिकार कानून लागू करके 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों के लिए शिक्षा अनिवार्य करने के अलावा आठवीं कक्षा तक परीक्षा प्रणाली समाप्त करके किसी भी छात्र को फेल न करने की नीति लागू कर दी थी।

शिक्षा का अधिकार लागू करने व परीक्षा प्रणाली समाप्त करने से प्राथमिक स्कूलों में छात्रों की संख्या भले ही बढ़ी हो परंतु शिक्षा के स्तर में निरंतर गिरावट चली आ रही है। इसी कारण एन.जी.ओ. ‘प्रथम’ ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि ‘‘लड़के-लड़कियों के सरकारी स्कूलों में दाखिलों में वृद्धि हुई है लेकिन उनके सीखने और समझने का स्तर बुरी तरह गिर रहा है।’’
 
‘‘2010 में कक्षा 5 में पढऩे वाले 46.3 प्रतिशत बच्चे कक्षा 2 का पाठ भी नहीं पढ़ पाते थे व 2011 में इनकी संख्या बढ़कर 51.8 तथा 2012 में 53.2 प्रतिशत हो गई। इसी तरह 4 साल पहले कक्षा 3 के 37 प्रतिशत बच्चे गणित के प्रश्न हल कर लेते थे परंतु अब यह संख्या 19 प्रतिशत से भी कम रह गई है।’’
 
शिक्षा की इसी दुर्दशा को देखते हुए ‘गीता भुक्कल समिति’ की रिपोर्ट के आधार पर अब आठवीं कक्षा की परीक्षा तक छात्रों को फेल न करने की नीति समाप्त करने की दिशा में केंद्र सरकार ने कदम बढ़ाया है।
 
19 अगस्त को शिक्षा के क्षेत्र में शीर्ष नीति निर्धारक संस्था ‘केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड’ (कैब) की बैठक बुलाई गई जिसमें 26 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों के प्रतिनिधियों सहित 19 राज्यों के शिक्षा मंत्रियों ने हिस्सा लिया।
 
केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी के अनुसार, ‘‘बैठक में सभी राज्य सहमत थे कि आठवीं तक बच्चों को फेल न करने की नीति का नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है जिससे उनमें पढऩे-लिखने तथा सीखने की प्रवृत्ति घट रही है।’’
 
‘‘छात्रों को फेल न करने की नीति समाप्त करने पर ‘कैब’ ने सहमति दे दी है तथा केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों से इस विषय में 15 दिनों के भीतर लिखित भेजने को कह दिया है। संभवत: यह बदलाव जल्दी ही कर दिया जाएगा।’’
 
स्मृति ईरानी के अनुसार,‘‘विशेषज्ञों और अध्यापकों का कहना है कि शिक्षा के शुरूआती दौर में ही उनकी बुनियाद मजबूत करने के लिए परीक्षा प्रणाली को बहाल करना बहुत आवश्यक है क्योंकि इसे समाप्त करने से छात्र-छात्राओं में स्पर्धा और मेहनत करने की भावना घट गई और अध्यापक वर्ग में भी लापरवाही बढऩे से छात्र-छात्राओं के शैक्षिक और बौद्धिक स्तर में भारी गिरावट आने लगी है।’’
 
आज जीवन के सभी क्षेत्रों में गुणवत्ता के मापदंड कठोरतम होते जा रहे हैं और उसी अनुपात में स्पर्धा भी बढ़ रही है। इसलिए यदि शिक्षा के आरंभिक चरण में ही नींव कमजोर हो जाए तो बाद के चरण में उसका सुधर पाना मुश्किल ही होगा और वे आगे की कक्षाओं में अपने प्रतिस्पॢधयों का सामना नहीं कर पाएंगे। 
 
पंजाब विधानसभा के स्पीकर स. चरणजीत सिंह अटवाल के अनुसार, ‘‘कमजोर बुनियाद पर हम एक सशक्त पीढ़ी तैयार नहीं कर सकते इसीलिए देश में निचले स्तर से ही बच्चों को स्तरीय शिक्षा देना आवश्यक है। ‘राइट टू एजुकेशन’ के साथ-साथ ‘राइट एजुकेशन’ देना भी जरूरी है और इसके लिए आवश्यक है कि देश भर में सभी स्कूलों के लिए एक जैसा पाठ्यक्रम हो।’’
 
‘‘आज सी.बी.एस.ई. आदि तथा सरकारी बोर्डों द्वारा संचालित स्कूलों के शिक्षा के स्तर में भारी अंतर है। एक ओर तो चंद स्कूलों में लोअर के.जी. कक्षा से ही अंग्रेजी पढ़ाई जाती है और दूसरी ओर सरकारी स्कूलों में इसकी शुरूआत ही छठी कक्षा से होती है। ऐसी हालत में सरकारी स्कूलों में पढऩे वाले बच्चे महंगे प्राइवेट स्कूलों में पढऩे वाले बच्चों की बराबरी भला कैसे कर सकते हैं।’’ 
 
पूर्व राष्टपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का भी यही कहना था कि देश को आगे ले जाने के लिए नीचे के स्तर से ही शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार आवश्यक है। अत: जितनी जल्दी बोर्ड परीक्षाएं बहाल की जाएंगी शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने में उतनी ही मदद मिलेगी।
 
बिना बोर्ड परीक्षाएं दिए पढऩे वाले बच्चों के हाथ में सर्टीफिकेट तो होंगे परंतु उनका मोल कुछ नहीं होगा और इन सर्टीफिकेटों वाले बच्चों का दूसरे माध्यमों  से पढ़े बच्चों से कोई मुकाबला तो हो ही नहीं सकता। इसलिए परीक्षाओं में छात्रों को फेल करने की प्रणाली बिना देर किए लागू की जाए ताकि शिक्षा के स्तर में आ रही गिरावट को रोका जा सके।
 
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