धुले हुए संसद अधिवेशन की ‘उपलब्धि’

punjabkesari.in Monday, Aug 17, 2015 - 01:14 AM (IST)

प्राचीन रोम में भाषण कला को सीनेटरों की विशेष योग्यता माना जाता था। वे मानते थे कि क्रांतिकारियों, धार्मिक नेताओं व राजनीतिज्ञों द्वारा लोगों को प्रभावित करने की कला सीनेटरों द्वारा अपनाई जाने वाली शैली से भिन्न है, अत: उन्हें सुविचारित होने के साथ-साथ सटीक और संक्षिप्त होना चाहिए ताकि अन्य सीनेटरों का समय नष्ट न हो। इसीलिए उन्हें दार्शनिकों, विचारकों आदि द्वारा विशेष प्रशिक्षण दिया जाता था।  

हालांकि नए चुनावों के बाद जब नई संसद प्रथम सत्र शुरू करती है तो लोकसभा व राज्यसभा दोनों ही सदनों के नए सदस्यों को संसदीय विचार-विनिमय, प्रक्रियाओं व यहां तक कि सदन में बैठने के तरीकों का प्रशिक्षण दिया जाता है पर शायद हमारे अधिकांश वर्तमान सांसदों ने कुछ सीखा नहीं। 
 
सुषमा स्वराज और राहुल गांधी के पक्ष-विपक्ष में ट्विटर पर  बहुत कुछ कहा जा चुका है और प्रिंट व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया में संसद के धुल गए मानसून अधिवेशन के संबंध में काफी चर्चा हो चुकी है जिससे सार्वजनिक कोष पर 200 करोड़ रुपए से अधिक का अनावश्यक बोझ पड़ा। राज्यसभा में कुल समय का मात्र 9 प्रतिशत ही इस्तेमाल हो सका और लोकसभा में तो इतना भी नहीं।
 
17 दिवसीय मानसून अधिवेशन में मात्र एक विधेयक (दिल्ली हाईकोर्ट संशोधन विधेयक) ही पारित किया जा सका और लोकसभा के 47 घंटे 27 मिनट तथा राज्यसभा के 80 घंटे हंगामे की भेंट चढ़ गए जिस कारण अनेक विधेयक लटक गए। पिछले 5 वर्षों में सदन में इस बार सबसे कम विधेयक पारित हुए। 
 
इससे पूर्व 2010 में संसद का अधिवेशन सर्वाधिक खराब रहा था जब  भाजपा के नेतृत्व में विपक्ष ने 2-जी स्पैक्ट्रम घोटाले पर रोष प्रदर्शन किए और उस सत्र के दौरान राज्यसभा केवल कुल समय का 2 प्रतिशत ही इस्तेमाल कर सकी और लोकसभा मात्र 6 प्रतिशत समय का।
 
हालांकि ऐसा कांग्रेस के दूसरे शासनकाल के दौरान हुआ जिसे अपने विभिन्न घोटालों के कारण भारी फजीहत झेलनी पड़ी थी लेकिन भाजपा नीत विपक्ष ने भी तो परमाणु समझौते के मुद्दे पर संसद में हंगामा किया था। 
 
इसके अलावा भी अनेक मौकों पर अधिवेशन हंगामों की भेंट चढ़ गए जब दोनों ही पक्ष किसी मुद्दे पर सहमत न हो सके। ‘राष्ट हित’ के नाम पर अपने रोष प्रदर्शन को दूसरे पक्ष के रोष प्रदर्शन से अधिक प्रभावशाली सिद्ध करने में बहुत अधिक राष्ट्रीय धन बर्बाद किया जा चुका है।  
 
बेशक सरकार और विपक्ष दोनों ही अलग-अलग एजैंडा आगे बढ़ाने की  कोशिश करते हैं और मतभेदों को संसद में इसे सुलझाने या उभारने के लिए समय भी दिया जाता है तो फिर भला सरकार ने उन्हें ललित गेट पर चर्चा के लिए पहले या दूसरे दिन ही 150 मिनट क्यों नहीं दिए?
 
साथ ही ये सवाल भी उठते हैं कि कांग्रेस ने तर्कसंगत ढंग से अपनी बात रखने के लिए 150 मिनट का इस्तेमाल क्यों नहीं किया? भाजपा ने सदन में मल्लिकार्जुन खडग़े द्वारा उठाए प्रश्रों का उत्तर क्यों नहीं दिया और यह स्टैंड लेने की कोशिश क्यों की कि मेरी गलती तुम्हारी गलती से हल्की है। अन्य महत्वपूर्ण प्रश्र ये हैं कि हमारे महान वक्ता, विचारक और पालयामैंटेरियन कहां हैं? क्या हमारे देश में वैचारिक परिपक्वता और संसद तक में स्वस्थ विचार-विनिमय का अकाल पड़ गया है? 
 
क्या अब पालयामैंटेरियन्स में नैतिकता नहीं रही और क्या अब समय आ गया है कि हम अपने सांसदों के चयन के मापदंड बदल डालें और या फिर हमें संसद का चुनाव लडऩे के इच्छुकों के लिए कुछ शैक्षिक मापदंड तय करने या अध्यक्षीय शासन प्रणाली को अपनाने का समय आ गया है? 
 
संकटमोचक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी न सिर्फ ‘150 मिनट अधिवेशन’ के दौरान संसद से अनुपस्थित रहे बल्कि अधिकांश समय संसद से अनुपस्थित रहे। मोदी के साथ काम कर चुके अफसरों के अनुसार काम करने का उनका यही तरीका है क्योंकि वह महसूस करते हैं कि वह जनता से सीधे तौर पर जुड़े हुए हैैं, लिहाजा मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के रूप में भी वह शायद ही विधानसभा में आते थे। सदन से उनकी अनुपस्थिति का एक अन्य कारण शायद यह हो कि वह अपनी छवि खराब होने के डर से सुषमा के विवाद में पडऩा नहीं चाहते थे परंतु एक प्रधानमंत्री के रूप में ‘बराबर के दर्जे वालों में प्रथम’ द्वारा इस तरह का आचरण करना उचित नहीं है। मोदी ने अध्यक्षीय शासन प्रणाली के मुखिया की तरह आचरण किया। 
 
यह अधिवेशन सुषमा की सफलता या कांग्रेस द्वारा अधिवेशन ठप्प करने की क्षमता सिद्ध करने वाला नहीं बल्कि एक पाॢलयामैंटेरियन के रूप में 16 वर्षों के बाद सोनिया गांधी को संसद के वैल में खींच लाने की उपलब्धि प्राप्त करने वाला सिद्ध हुआ जिससे सरकार का स्वच्छ गवर्नैंस संबंधी दावा भी झूठा सिद्ध हो गया। ललित गेट, व्यापमं, सुषमा गेट ये सब अभी भी वहीं खड़े हैं जहां पहले थे और अब जबकि सरकार 30 अगस्त से एक संक्षिप्त अधिवेशन बुलाने की योजना बना रही है तो यह सवाल फिर पूछा जाएगा कि हमारे तमाम अच्छे वक्ता कहां चले गए हैं!

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