भारतीय हिन्दू-मुस्लिमों के ‘हीरो’ डा. कलाम हैं, न कि कोई आतंकवादी

punjabkesari.in Tuesday, Aug 04, 2015 - 02:05 AM (IST)

(संजय द्विवेदी): काफी समय हुआ पटना में एक आयोजन में माओवाद पर बोलने का प्रसंग था। मैंने अपना वक्तव्य पूरा किया तो प्रश्रों का समय आया। राज्य के बहुत वरिष्ठ नेता, उस समय विधान परिषद के सभापति रहे स्व. ताराकांत झा भी उस सभा में थे। उन्होंने मुझ जैसे बहुत कम आयु और अनुभव में छोटे व्यक्ति से पूछा ‘‘आखिर देश का कौन-सा प्रश्र या मुद्दा है जिस पर सभी देशवासी और राजनीतिक दल एक हैं?’’ 

जाहिर तौर पर मेरे पास इस बात का उत्तर नहीं था। आज जब झा साहिब इस दुनिया में नहीं हैं तो याकूब मेमन की फांसी पर देश को बंटा हुआ देखकर मुझे उनकी बेतरह याद आई।
 
आतंकवाद जिसने कितनों के घरों के चिराग बुझा दिए, भी हमारे लिए विवाद का विषय है। जिस मामले में याकूब को फांसी हुई है, उसमें कुल संख्या को छोड़ दें तो सेंचुरी बाजार की अकेली साजिश में 113 बच्चे, बीमार और महिलाएं मारे गए थे। पूरा परिवार इस घटना में संलग्र था। लेकिन हमारी राजनीति और मीडिया दोनों इस मामले पर बंटे हुए नजर आए। 
 
यह मान भी लें कि राजनीति का तो काम ही बांटने का है और अगर वे बांटेंगे नहीं तो उन्हें गद्दियां कैसे मिलेंगी? इसलिए हैदराबाद के ओवैसी से लेकर दिग्विजय सिंह, शशि थरूर सबको माफी दी जा सकती है क्योंकि वे अपना काम कर रहे हैं। वही काम जो हमारी राजनीति ने अंग्रेजों से सीखा था, यानी ‘फूट डालो और राज करो।’ इसलिए राजनीति की सीमाएं तो देश समझता है, किन्तु हम उस मीडिया को कैसे माफ कर सकते हैं जिसने जन-जागरण और सत्य के अनुसंधान का संकल्प ले रखा है।
 
टी.वी. मीडिया ने जिस तरह हमारे राष्ट्रपुरुष, प्रज्ञ पुरुष, संत-वैज्ञानिक डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम की खबर को गिराकर तीनों दिन याकूब मेमन की फांसी को ज्यादा तरजीह दी, वह माफी के काबिल नहीं है। पिं्रट मीडिया ने थोड़ा संयम दिखाया पर टी.वी. मीडिया ने सारी हदें पार कर दीं। एक हत्यारे आतंकवादी के पक्ष पर वह दिन भर ओवैसी को लाइव पेश करता रहा। क्या मीडिया का सामाजिक सरोकार यही है कि वह दो कौमों को बांट कर सिर्फ सनसनी फैलाता रहे।
 
किन्तु टी.वी. मीडिया लगभग तीन दिनों तक यही करता रहा और देश खुद को बंटा हुआ महसूस करता रहा। क्या आतंकवाद के खिलाफ लडऩा सिर्फ सरकारों, सेना और पुलिस की जिम्मेदारी है? आखिर यह कैसी पत्रकारिता है जिसके संदेशों से यह ध्वनित हो रहा है कि हिन्दुस्तान के मुसलमान एक आतंकी की मौत पर दुखी हैं? आतंकवाद के खिलाफ इस तरह की बंटी हुई लड़ाई में देश तो हारेगा ही, दो कौमों के बीच रिश्ते और भी असहज हो जाएंगे। हिन्दुस्तान के मुसलमानों को एक आतंकी के साथ जोडऩा उनके साथ भी अन्याय है। 
 
हिन्दुस्तान का मुसलमान क्या किसी हिन्दू से कम देशभक्त है? किन्तु ओवैसी जैसे वोट के सौदागरों को उनका प्रतिनिधि मानकर उनके विचारों को सारे हिन्दुस्तानी मुसलमानों की राय बनाना या बताना कहां का न्याय है? किन्तु ऐसा हुआ और सारे देश ने ऐसा होते हुए देखा।
 
इस प्रसंग में हिन्दुस्तानी टी.वी. मीडिया के बचकानेपन, हल्केपन और हर  चीज को बेच लेने की भावना का ही प्रकटीकरण होता है। आखिर हिन्दुस्तानी मुसलमानों को मीडिया मुख्यधारा से अलग करके क्यों देखता है? क्या हिन्दुस्तानी मुसलमान आतंकवाद की पीड़ा के शिकार नहीं हैं? जब धमाके होते हैं तो उसका असर क्या उनकी जिन्दगी पर नहीं होता? देखा जाए तो हिन्दू-मुसलमान के दुख-सुख और उनकी जिन्दगी के सवाल एक हैं। वे भी समान दुखों से घिरे हैं और समान अवसरों की प्रतीक्षा में हैं। उनके सामने भी बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई के सवाल हैं। वे भी दंगों में मरते और मारे जाते हैं। बम उनके बच्चों को भी अनाथ बनाते हैं।
 
इसलिए यह लड़ाई बंटकर नहीं लड़ी जा सकती। कोई भी याकूब मेमन मुसलमानों का आदर्श नहीं हो सकता जो एक ऐसा खतरनाक आतंकी हो जो अपने परिवार से रेकी करवाता हो कि बम वहां फटे जिससे अधिक से अधिक खून बहे, हिन्दुस्तानी मुसलमानों को ऐसे आतंकियों के साथ जोडऩा एक पाप है। हिन्दुस्तानी मुसलमानों के सामने आज यह प्रश्र खड़ा है कि क्या वे अपनी प्रक्षेपित की जा रही छवि के साथ खड़े हैं या वे इसे अपनी कौम का अपमान समझते हैं? ऐसे में उनको ही आगे बढ़कर इन चीजों पर सवाल उठाना होगा।
 
इस बात का जवाब यह नहीं है कि पहले राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी दो या बेअंत सिंह के हत्यारों को फांसी दो। अगर 22 साल बाद एक मामले में फांसी की सजा हो रही है तो उसकी ङ्क्षनदा करने का कोई कारण नहीं है। कोई पाप इसलिए कम नहीं हो सकता कि एक अपराधी को सजा नहीं हुई है। हिन्दुस्तान की अदालतें जाति या धर्म देखकर फैसले करती हैं, यह सोचना और बोलना भी एक तरह का पाप है। फांसी दी जाए या न दी जाए, इस बात का एक बृहत्तर परिप्रेक्ष्य है। किन्तु जब तक हमारे देश में यह सजा मौजूद है तब तक किसी की फांसी को साम्प्रदायिक रंग देना कहां का न्याय है?
 
कांग्रेस के कार्यकाल में भी फांसी की सजाएं हुई हैं तब दिग्विजय सिंह और शशि थरूर कहां थे? इसलिए आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के सवाल को हल्का बनाना, देश की सबसे बड़ी अदालत और राष्ट्रपति के विवेक पर संदेह करना एक राजनीतिक अवसरवाद के सिवाय क्या है? राजनीति की इसी देश तोड़क भावना के चलते आज हम बंटे हुए दिखते हैं। पूरा देश एक स्वर में कहीं नहीं दिखता, चाहे वह सवाल कितना भी बड़ा हो। 
 
हम बंटे हुए लोग इस देश को कैसे एक रख पाएंगे? दिलों में दरार डालने वाली राजनीति, उस पर झूमकर चर्चा करने वाला मीडिया क्या राष्ट्रीय एकता का काम कर रहा है? ऐसी हरकतों से राष्ट्र कैसे एकात्म होगा? राष्ट्र रत्न-राष्ट्रपुत्र कलाम के बजाय याकूब मेमन को अगर आप हिन्दुस्तान के मुसलमानों का हीरो बनाकर पेश कर रहे हैं तो ऐसे मीडिया की राष्ट्रनिष्ठा भी संदेह से परे नहीं है? क्या मीडिया को यह अधिकार दिया जा सकता है कि वह किसी भी राष्ट्रीय प्रश्र पर लोगों को बांटने का काम करे? किन्तु मीडिया ने ऐसा किया और पूरा देश इसे अवाक् होकर देखता रहा।
 
मीडिया का काम बेहद जिम्मेदारी का काम है। डा. कलाम ने एक बार मीडिया विद्यार्थियों को शपथ दिलाते हुए कहा था, ‘‘मैं मीडिया के माध्यम से अपने देश के बारे में अच्छी खबरों को बढ़ावा दूंगा, चाहे वे कहीं से भी संबंधित हों।’’ शायद मीडिया अपना लक्ष्य पथ भूल गया है। पूरे मीडिया की समझ को लांछित किए बिना यह कहने में संकोच नहीं है कि टी.वी. मीडिया का ज्यादातर हिस्सा देश का शुभचिन्तक नहीं है। वह बंटवारे की राजनीति को स्वर दे रहा है और राष्ट्रीय प्रश्रों पर लोकमत के परिष्कार की जिम्मेदारी से भाग रहा है। सिर्फ दिखने, बिकने और सनसनी फैलाने के अलावा सामान्य नागरिकों की तरह मीडिया का भी कोई राष्ट्रधर्म है, पर उसे यह कौन बताएगा। उसे कौन यह बताएगा कि भारतीय हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों के नायक भारतरत्न कलाम हैं न कि कोई आतंकवादी। देश को जोडऩे में मीडिया एक बड़ी भूमिका निभा सकता है, पर क्या वह इसके लिए तैयार है?    
 

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