भ्रष्टाचार व रिश्वतखोरी का ‘वर्गीकरण’

Saturday, Jul 18, 2015 - 03:22 AM (IST)

(मृणाल पांडे): कई बरस पहले भारतेंदु हरिश्चंद्र के प्रहसन ‘अंधेर नगरी’ में दीवार के नीचे दब मरी बुढिय़ा की बकरी की मौत का अपराधी कौन? सवाल पर राज दरबार से फैसला आया था कि मुई बकरी तो दोबारा मरेगी नहीं,  लिहाजा दीवार को ही क्यों न फांसी दे दी जाए? जब हुजूर के कानों में यह बात डाली गई कि दीवार तो गारे-चूने की बनी बेजान चीज है, तो हुक्म हुआ कि जो सामने पड़े उसे ही सूली पर चढ़ा दिया जाए। आखिर इंसाफ का तकाजा भी तो कुछ चीज है। है या नहीं?

पिछली सरकार के समय उस वक्त भी, जब भ्रष्टाचार हटाने और इंसाफ के तकाजे पर मीडिया और विपक्ष की तरफ से इतना कुछ कहा सुना जा रहा था, सरकार के वरिष्ठ वित्तीय सलाहकार जनाब कौशिक बासु ने (वित्त मंत्रालय की वैबसाइट पर डाले अपने लेख में) अपनी तरफ से एक अनूठा सुझाव पेश किया था। उनकी राय में भारत में कानूनन घूस लेना और देना दोनों ही संज्ञेय अपराध हैं और इसके तहत हर घूस देने वाला लेने वाले के खिलाफ रिपोर्ट लिखवा कर मुजरिम बनने से डरता है। 
 
क्यों न इस मामले में नैतिकता तज कर घूस को वैध घोषित कर दिया जाए? घूस देने को बाध्य नागरिक तब आगे आकर घूस में दी गई राशि सहित भ्रष्ट बाबुओं, नेताओं की रिपोर्ट और निशानदेही से सजा दिलवाने में पुलिस और सरकार की भारी मदद करेगा। देश के एक बड़े अंग्रेजी फाइनैंशियल दैनिक ने भी इस सुझाव को तर्कसंगत करार देते हुए गंभीरता से फरमाया कि हम हिन्दुस्तानी भ्रष्टाचार के मुद्दे को नाहक नैतिक और भावनात्मक चश्मे से देखते हैं। आज जरूरत है कि हम भावना की बजाय तर्क और व्यावहारिकता की दृष्टि से बदलते समयानुसार व्यावहारिक बनें।
 
आम नागरिक, जो बासु साहिब या अंग्रेजी अखबारों के सम्पादकों की दुनिया में नहीं बसते, तब भी बखूबी जानते थे कि भारत में घोटालों को जन्म देने वाली यह घूस की दुनिया कैसी व्यापक तथा विविधतामय है। 
 
पुलिसिया भाषा में इसके 3 प्रकार हैं : नजराना, इसके तहत अंग्रेजों के समय से हाकिम की दयादृष्टि बनाए रखने के लिए बड़े साहिब लोगों की कोठियों पर सामथ्र्यानुसार सामान से भरी डालियों के रूप में आज भी दीवाली, होली या बड़े दिन पर सत्तावान जनों से लेकर नामी दलालों के घरों तक तोहफों का अंबार भिजवाया जाता है। 
 
दूसरा है शुक्राना, जो काम तसल्लीबख्श तरीके से निपट जाने पर बतौर धन्यवाद भेजा या दिया जाता है। तुम यदि हमारी पीठ खुजाओगे तो हम भी तुम्हारी पीठ खुजाएंगे। तीसरा होता है जबराना, इस श्रेणी में, जैसा नाम से ही जाहिर है, सत्तावान बंदा गरजमंद और कमजोर पार्टी के जरूरी काम को निपटाने के लिए मनमानी कीमत दबंगई से वसूल करता है। चुंगी नाकों से लेकर सड़क पर रिक्शेवालों और रेहड़ीवालों के ठेले पलटते नगरपालिका व पुलिसिया दस्ते इस विधा के सार्वजनिक प्रमाण हैं। अब बासु महोदय तथा अंग्रेजी दैनिक की राय मानें तो इनमें से जबराना ही असली भ्रष्टाचार ठहरता है। सिविल सोसायटी में तोहफों का सादर आदान-प्रदान तो एक लंबी दुनियादार भारतीय परम्परा का अंग है उस पर नैतिक जिरह क्यों हो?
 
हाल में, जाने ग्रहों की वजह से हुआ कि गले तक भर जाने से पाप का बहुत बड़ा घड़ा फूटा और उससे निकला एक गंदा रेला राज्य-दर-राज्य और केन्द्र के खेल से लेकर विदेश मंत्रालय तक भलभला कर बहता दिख रहा है। ईमानदारी और नैतिकता जैसे शब्द इतने मैले ही नहीं अर्थहीन भी लगने लगे हैं कि दलीय प्रवक्ता जब इनका इस्तेमाल करे तो उसके गले का सुर किसी पाखंडी प्रवचनकत्र्ता बाबा जैसा सुनाई देता है। इससे याद आया कि एक त्रिकालदर्शी बाबा जी भी जेल की सलाखों के पीछे से इस बहती गटर गंगा में डुबकियां देकर कई जानें तबाह कर रहे हैं।
 
ऐसे समय में यह अजीब है कि टी.वी. चैनलों पर राजनेता इन पर सिर्फ अपने विपक्षियों को दोषी करार देते हुए यूं टिप्पणी करते हैं जैसे डिस्कवरी चैनल का कोई गोरा संवाददाता पिछड़े जंगली कबीलों के विचित्र और बेमतलब रीति-रिवाजों पर तटस्थ बयान दे रहा हो। यह तो ऐसा ही है कि वेश्यावृत्ति को कानूनन वैध बनाने की राय देते हुए (यकीन मानें इसके भी कई समर्थक हैं) व्यभिचार के खिलाफ मुहिम का अर्थहीन आह्वान किया जाए। संभव है कि कई बार लोग भ्रष्टाचरण करना नहीं चाहते लेकिन उसमें निमग्न बिरादरी का साथ दिए बिना उनका जीना दुश्वार हो जाता है इसलिए वे विवशता में हाथ मिलाने को मजबूर हैं। उधर जब कानूनी पकड़-धकड़के भय से मुक्त कोई शोषण की रिपोर्ट लिखाता भी है तो उसे तुरन्त खामोश कर दिया जाता है और गवाहकीमौत या मुकर जाने से कानूनी कार्रवाई कठिन बन जाती है। 
 
पर फिर भी नैतिकता के हवाले से ही भ्रष्टाचार उन्मूलन का आग्रह भावुक पोंगापंथी नहीं। वह देश के हर आम-ओ-खास नागरिक से भ्रष्टाचार के खिलाफ  राष्ट्रीय मुहिम में स्वेच्छा से अपना उत्तरदायित्व स्वीकार करने की एक कड़क जिद है। इस जिद के लायक नैतिक बल गांधी के बाद किसी नेता ने नहीं दिखाया है। उन्होंने भी नहीं, जो फिलहाल सिविल सोसायटी के स्वयंभू नेता हैं और सिर्फ मध्यवर्ग को अपना भरोसेमंद साथी और शेष गरीब मतदाताओं को अज्ञानी तथा भ्रष्ट नेताओं के हाथों आसानी से बिकने वाला बता रहे हैं। समय के साथ उत्पादन के साधन ज्यों-ज्यों बदलते हैं, इतिहास कई पुरानी मान्यताओं से उबर कर नई पकड़ लेता है। लेकिन एक अनैतिकता से दूसरी तरह की अनैतिकता की तरफ बढऩा तो एक मूर्ख कौम का ही लक्षण कहा जाएगा। 
 
आर्थिक उदारता आने के बाद ईमानदार पूंजीवाद तो हमने नहीं अपनाया, पर पुराना समाजवाद जातिवाद से जोड़कर भ्रष्टाचार का नया राजमार्ग बनवा दिया और अब हमारे महामहिम नेतागण युवकों से आग्रह कर रहे हैं कि वे नौकरी पाने को जरूरी ‘स्किल’ कमाने पर ही ध्यान टिकाएं, परदेसी पूजी की बछिया के दांत न गिनें। 
 
अगर सरकार बस इतना ही सुनिश्चित कर दे कि सब लोग अपने-अपने धंधे का ईमानदारी से निर्वाह करें, यानी हमारे मंत्री नियमित रूप से अपने मंत्रालय का कामकाज निपटाएं, प्रशासनिक अधिकारी  सचिवालयोंमें जनता के लिए अपनी और मातहतों की 10 से 6 बजे तक मौजूदगी और फाइलों के निपटान तथा मीटिंगों के बाद उसकी कार्रवाई की समयबद्ध औपचारिक जवाबदेही सुनिश्चित करा दें तो यकीन मानिए बिना हो-हल्ले या कानून को बदले भी आज का सडिय़ल परिदृश्य रातों-रात बदलने लगेगा।   
 
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