‘व्यापमं घोटाला’ : अब सबकी नजरें सी.बी.आई. पर

Sunday, Jul 12, 2015 - 12:51 AM (IST)

(वीरेन्द्र कपूर): रात्रि टैलीविजन पर चीख-चीख कर बोलने के बावजूद व्यापमं घोटाले के बारे में जुबान खोलने वालों में कांग्रेसियों को सबसे अंतिम व्यक्ति होना चाहिए था क्योंकि इस प्रकार के घोटाले देश में बहुत लंबे समय से जारी हैं, खास तौर पर ‘बीमारू राज्यों’ में। सबसे अधिक शोर मचाने वाले दिग्विजय सिंह की शायद यह जानकर बोलती बंद हो जाएगी कि व्यापमं घोटाले के मुख्य व्हिसलब्लोअर को प्री-मैड परीक्षाओं में हो रही धांधली के बारे में पहली बार 90 के दशक के आरंभ में ही भनक लगी थी। क्या दिग्विजय सिंह बताएंगे कि इस मामले में अब कौन-सी नई जादू की पुडिय़ा उनके हाथ लगी है? 

यह सच है कि व्यापमं प्रकरण का सबसे दुखद पहलू इससे जुड़ी हुई कथित गैर-कुदरती मौतें हैं। उम्मीद करनी चाहिए कि सी.बी.आई. मौत के सौदागरों को दबोचने में पूरी मुस्तैदी से काम लेगी और साथ ही यह भी सुनिश्चित करेगी कि इस घोटाले से दूर-दूर तक संबंध रखने वाला कोई व्यक्ति भी अपने अंजाम से बच न सके। इस शीर्ष जांच एजैंसी से इससे कम किसी अन्य बात की उम्मीद नहीं की जा सकती। 
 
ब्रेकिंग न्यूज के प्रति टी.वी. एंकरों के जुनून और किसी भी कीमत पर राजनीतिक प्रासंगिकता बनाए रखने की कांग्रेसी नेताओं की हताशा के विपरीत यदि सी.बी.आई. कथित हत्यारों की तलाश करने के लिए शक की सुई को केवल राजनीतिज्ञों तक ही सीमित रखती है तो इसके हाथ पल्ले कुछ भी पडऩे वाला नहीं क्योंकि  सरकारी नौकरियां पाने या सफल परीक्षाॢथयों में अपना नाम शामिल करवाने के लिए जिन हजारों लोगों ने नौसरबाजों को लाखों रुपए दिए हैं, उनमें से कोई भी यह नहीं चाहेगा कि सच्चाई सामने आए। 
 
यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि व्यापमं से जुड़ी हुई जो संदिग्ध मौतें हुई हैं, उनमें से कुछ ऐसे लोगों की हैं, जो इस घोटाले के लाभाॢथयों की पहचान करने में लगे हुए थे। ये लाभार्थी शायद अब अपनी एम.बी.बी.एस. पूरी करने के करीब पहुंच चुके होंगे या पहले ही प्राइवेट अथवा सरकारी अस्पतालों में डाक्टर के पद पर सुशोभित हो चुके होंगे। जिन लोगों ने मैडीकल कालेज में सीट लेने के लिए घर के गहने तक बेचे होंगे, क्या सच्चाई पर पर्दा डालने में उनका भी निहित स्वार्थ नहीं होगा? 
 
व्यापमं घोटाले से जुड़ी हुई सभी मौतें केवल मध्य प्रदेश में ही नहीं हुई हैं, कई लोग इस राज्य से बाहर भी मौत के मुंह में गए हैं। स्पष्ट है कि इस घोटाले के पीछे कार्यरत माफिया का तंत्र बहुत लंबा-चौड़ा है। यानी कि घोटाले के लाभार्थी भी कई राज्यों से संबंधित हैं। बदमाशी के लिए जाने जाते यू.पी. के अनेक इलाकों के छोकरे भी इन घोटालेबाजों की सेवाएं लेकर ‘डाक्टर’ बने है।
 
इस तंत्र से लाभान्वित होने वाले लोगों की संख्या 7000 से भी ऊपर बताई जा रही है। इनमें से 2000 के लगभग तो पहले ही सलाखों के पीछे पहुंच चुके हैं। शक की सुई  शेष 5000 की तरफ अवश्य ही मुडऩी चाहिए जो अभी तक पुलिस के चंगुल से बचे हुए हैं क्योंकि उन्हें पता है कि पकड़े जाने पर उनका शेष जीवन जेल में ही बीतेगा। संक्षेप में कहा जाए तो अपनी जांच का फोकस केवल मुठ्ठी भर राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों और पुलिस अफसरों इत्यादि पर रख कर सी.बी.आई. कहीं भी नहीं पहुंच पाएगी। 
 
अब हम इस गलत जन अवधारणा की ओर मुड़ते हैं कि मध्य प्रदेश में जो कुछ हुआ, वह असाधारण है। वास्तव में ऐसी कोई बात नहीं। व्यापमं में केवल खास बात यह है कि बहुत-सी मौतें इससे जुड़ी हुई हैं। लेकिन इस देश में रोजगार और दाखिले से जुड़े हुए घोटाले तो हर ईंट के नीचे दबे हुए हैं। 
 
हाल ही में हमने देखा कि किस प्रकार बिहार के एक बहुमंजिला परीक्षा केन्द्र में प्रणालीबद्ध ढंग से नकल और जालसाजी का धंधा चलता है। बिहार में यह धंधा काफी फल-फूल रहा है। अब तो राष्ट्रीय राजधानी के ऐन बीचों-बीच ऐसे समाचार आ रहे हैं कि आर्थिक रूप में कमजोर वर्गों के लिए आरक्षित कोटे में हेरा-फेरी करके अन्य लोगों को दाखिला दिया जा रहा है। 
 
पुराने लोगों को याद होगा कि किस प्रकार 80 के दशक के प्रारंभ में दिल्ली के तत्कालीन पुलिस कमिश्रर प्रीतम सिंह भिंडर ने पुलिस कांस्टेबलों की भर्ती प्रक्रिया में हेरा-फेरी करके अपनी पत्नी सुखबंस कौर भिंडर के संसदीय क्षेत्र गुरदासपुर से संबंधित लगभग 400 लोगों की नियुक्ति की थी। वह यह काम इसलिए अंजाम दे सके कि उन्हें कानून में हेरा-फेरी करने के लिए अपने जैसे ही एक आई.ए.एस. अधिकारी नवीन चावला का सहयोग मिल गया। इन दोनों व्यक्तियों ने आपातकाल के दौर में पूरी दिल्ली को भयभीत कर रखा था और वे इंदिरा गांधी तथा उनके बिगड़ैल बेटे संजय गांधी के चहेते थे। 
 
इन बातों के उल्लेख से मेरा अभिप्राय यह है कि जिस समाज में हर प्रकार के अच्छे सार्वजनिक गुणों का अभाव हो, वहां अवसरवादी लोग शासनतंत्र में सेंध लगाने का मौका कभी भी हाथ से नहीं जाने देंगे। यहां तक कि ‘आम लोग’ भी इस मामले में बेकसूर नहीं हैं। वे चाहते हैं कि नेता लोग उनके बच्चों का भविष्य संवारने के लिए शासन तंत्र से खिलवाड़ करें। जो राजनीतिज्ञ लोगों की इन इच्छाओं की पूर्ति करने से इंकार कर देते हैं, उन्हें उनके क्षेत्र के मतदाता इसकी सजा चुनावों में देते हैं। इसलिए अपनी लोकप्रियता बरकरार रखने के लिए मतदाताओं के आश्रितों को नौकरियां देना हर राजनीतिज्ञ की पीड़ादायक मजबूरी है। 
 
सिंह, मोदी और राहुल 
मनमोहन सिंह एक सब्जी वाले की दुकान पर गए और पूछा ‘‘भिंडी का भाव क्या है’’? दुकानदार ने जवाब  दिया, ‘‘आपके लिए सब मुफ्त है क्योंकि आपने पहली बार जुबान खोली है।’’
 
उनके बाद नरेन्द्र मोदी उस दुकान पर आए और यही सवाल पूछा। दुकानदार ने जवाब दिया, ‘‘आप कोई भी सब्जी ले लीजिए, मुफ्त मिलेगी क्योंकि लोकसभा चुनाव के बाद हमें आपके पहली बार भारत में पधारने पर बहुत खुशी हुई है।’’
 
मोदी के बाद राहुल की बारी आई तो उन्होंने भी जाकर पूछा, ‘‘भिंडी का भाव क्या है?’’ दुकानदार ने तड़ाक से जवाब दिया, ‘‘अरे ओ भौंदू, ये भिंडी नहीं, मटर है।’’     
 
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