बिहार विधानसभा चुनाव मोदी-अमित शाह के लिए ‘चुनौती’

Saturday, Jun 27, 2015 - 02:04 AM (IST)

(हरि जयसिंह): 243 सदस्यों वाली बिहार विधानसभा के लिए जल्दी होने जा रहे चुनाव जनता परिवार और भाजपा नीत राजग परिवार के बीच कांटे की टक्कर होंगे। इस महत्वपूर्ण चुनाव में लोग जिस प्रकार मतदान करेंगे वह न केवल राज्य का भविष्य तय करेगा बल्कि भावी राजनीति के संभावित रुझानों का संकेत भी देगा। इन चुनावों के नतीजे चाहे कुछ भी हों केन्द्र में भाजपा नीत राजग सरकार को इनसे कोई खतरा नहीं।

लेकिन बिहार के चुनाव में अमित शाह-मोदी द्वारा नियंत्रित भाजपा की कारगुजारी यदि बढिय़ा नहीं रहती तो  यह संभवत: प्रधानमंत्री को संघ परिवार के अंदर व राष्ट्रीय स्तर पर कमजोर पैंतरे पर धकेल देगा। जैसा कि इस समय लग रहा है केन्द्र की सरकार का रास्ता इस समय कांटों भरा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का सुधारों के लिए नए कानून बनाने का अभियान राज्य सभा में जाम होकर रह गया है।
 
राहुल गांधी के नए अवतार के नेतृत्व में फटाफट नतीजे हासिल करने के चक्कर में कांग्रेस पार्टी बहुत अवसरवादी ढंग से एक मुद्दे से दूसरे  की ओर हिचकोले खा रही है जिससे यह प्रभाव पैदा हो रहा है कि 128 वर्ष पुरानी यह पार्टी केवल उन मुद्दों की परछाईं मात्र के विरुद्ध तलवारें भांजती रहती है जो राहुल गांधी को सपने में याद आ जाते हैं या जिन मुद्दों पर उन्हें प्रभावशाली फोटो ङ्क्षखचवाने का मौका मिल सकता है।
 
मैं अक्सर हैरान होता हूं कि इस  वयोवृद्ध पार्टी के युवराज के नए ‘मार्ग दर्शक और वैचारिक प्रणेता’ कौन हैं। बहुत दुख की बात है कि कांग्रेस पार्टी उन वास्तविक राष्ट्रीय मुद्दों पर  अपनी पकड़ और फोकस खो चुकी है जो देश को आगे ले जा सकते हैं। सैकुलरवाद और साम्प्रदायिकवाद के मुखौटे में मोदी का विरोध करना ही इसका एकमात्र ध्येय बन चुका है।
 
इस प्रक्रिया में कांग्रेस पार्टी रोजगार और बेहतर जीवन की भारतीयों  की नई पीढ़ी की आशाओं और उमंगों की अनदेखी कर रही है। केन्द्र और राज्यों के स्तर पर लगभग 60 वर्ष तक चले कांग्रेस शासन दौरान इसके नेता केवल वोट बैंक की राजनीति करने और समाज के सभी वर्गों, खास तौर पर मुस्लिमों को साम्प्रदायिकवाद का हौवा और सैकुलरवाद के सुहावने सपने बेचते रहे हैं।
 
हर प्रकार के सैकुलरवादी प्रलाप के बावजूद खेद की बात यह है कि मुस्लिम आज भी हमारे समाज के सबसे पिछड़े वर्गों में शामिल हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि विभिन्न रंगों और बानगियों के समाजवादी नेता रात-दिन सैकुलरवाद का शोर मचाने के बावजूद कोरी लफ्फाजी तक ही सीमित रहे हैं और मुस्लिमों के कल्याण के लिए कोई वास्तविक कदम नहीं उठाया। 
 
बिहार में कल तक जो एक-दूसरे के कट्टर दुश्मन थे वही लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार यादव अब आश्चर्यजनक ढंग से दोस्त बन चुके हैं। यह ‘दोस्ती’ वास्तव में नीतीश कुमार के पक्ष में राहुल गांधी की ‘क्विक फिक्स’ राजनीति की उपलब्धि है। राहुल ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में आगे बढ़ाया है। इस मुद्दे पर कोई सवाल उठाने की जरूरत नहीं क्योंकि बिहार की जाति आधारित राजनीति अनेक प्रकार के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष अंतवरोधों से भरी हुई है।
 
राष्ट्रीय स्तर पर तो प्रत्येक नेता ने जाति आधारित पंथक राजनीति का विरोध किया है जबकि सच्चाई यह है कि वे सार्वजनिक रूप में जो कहते हैं व्यावहारिक रूप में उसके विपरीत करते हैं। यह दोगलेपन और पाखंड की राजनीति है। ऐसे दोहरे मापदंड बिहार के सामाजिक परिदृश्य का अभिन्न अंग हैं। प्रदेश के राजनीतिक खेलों को वर्तमान सामाजिक यथार्थों से अलग करके नहीं देखा जा सकता, बेशक ये खेल कितने भी खतरनाक क्यों न हों और इनसे राष्ट्रीय हित को कितना भी आघात क्यों न पहुंचता हो।
 
समस्या तो तब पैदा होती है जब दूसरे समुदायों की भावनाओं की सरासर अनदेखी करते हुए जातिगत राजनीति को आगे बढ़ाया जाता है। दुर्भाग्यवश इस प्रकार की भाव-भंगिमाएं तनाव के बीज बोती हैं जो अक्सर खुले टकराव के रूप में अंकुरित होते हैं और विभिन्न जाति समूहों में परस्पर ङ्क्षहसा को जन्म देते हैं। 
 
एक-दो सप्ताह में जब बिहार में  चुनाव लीला सक्रिय रूप में शुरू हो जाएगी तो हमें इसके नतीजों की आहट लेते रहना होगा। बिहार में हम आज जो कुछ देख रहे हैं वह सुविधा की राजनीति है। भाजपा ने औपचारिक रूप में महादलित पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी और उनकी हिन्दुस्तान आवामी पार्टी के साथ गठबंधन बनाया है। जिस प्रकार मांझी को नीतीश कुमार की शह पर अपमानजनक ढंग से पद से हटाया गया उसके चलते उनके साथ कई लोगों की हमदर्दी जुड़ गई है और इस प्रक्रिया में वह अनुसूचित जातियों के कुछ वर्गों के नेता के रूप में उभरे हैं। इससे भाजपा की चुनावी संभावनाओं को कितना लाभ पहुंचेगा  यह भविष्य ही बताएगा। बहुत कुछ जनता के ‘मूड’ और बिहार के राजनीतिक समीकरणों पर निर्भर करेगा।
 
भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में हम बहुत-सी उठा-पठक देख चुके हैं। राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोस्पा) ने अपने नेता और केन्द्रीय राज्य मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके भाजपा के लिए काफी परेशानी खड़ी कर दी है। रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) ने भाजपा को चेतावनी दी है कि जदयू के उन 5 बागी विधायकों को टिकट न दी जाए जो अब मांझी के साथ हैं क्योंकि कभी वे लोजपा के सदस्य थे।
 
इसका तत्पार्य यह है कि भाजपा के लिए मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार का निर्णय लेना बहुत ही फिसलन भरा हो गया है। यह अपने आप में भाजपा प्रमुख अमित शाह और प्रधानमंत्री मोदी के लिए भारी-भरकम चुनौती है। 
 
भाजपा की दयनीय स्थिति इस तथ्य से स्पष्ट हो जाती है कि संभावी मुख्यमंत्री की घोषणा करने की बजाय इसने इस मुद्दे को लेकर राजग घटकों के साथ विचार-विमर्श करने का फैसला किया है कि क्या चुनावी अभियान प्रधानमंत्री मोदी के गिर्द ही चलाया जाए।
 
विवाद का विषय यह है कि क्या बिहार नए दोस्तों में घिरे पुराने घाघ नेता के गिर्द एकजुट हो जाएगा अथवा वह अभी भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विकास के पैंतरे पर निष्ठा व्यक्त करेगा? सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि नीतीश-लालू की जुंडली द्वारा सैकुलरवाद की पुरानी शराब को जनता परिवार की नई लीक कर रही बोतल में प्रस्तुत करने के प्रयासों के प्रति लोगों की प्रतिक्रिया कैसी होगी।
 
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