क्या ‘स्वच्छता रखना’ केवल सफाई कर्मियों की जिम्मेदारी है

Tuesday, Jun 16, 2015 - 12:21 AM (IST)

(पूनम आई कौशिश): राजनीतिक दिल्ली कचरे की राजनीति की दहलीज पर बैठी हुई है और इसका श्रेय प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के बीच केन्द्र की शक्तियों बनाम राज्य की शक्तियों के बारे में चल रही तू-तू मैं-मैं है और जिसके चलते दिल्लीवासियों को वास्तव में पिछले 10 दिनों में जमा एक लाख टन से अधिक कचरे के बीच में रहना पड़ रहा है और इसका कारण यह है कि सफाई कर्मचारियों को वेतन का भुगतान नहीं किया गया है जिसके कारण वह पिछले सप्ताह से हड़ताल पर हैं। भाजपा और आप  दोनों के कार्यकत्र्ताओं ने राजनीतिक लाभ के लिए झाड़ू उठाया और यह बताता है कि मेरा स्वच्छ भारत वास्तव में महान है।
 
भारत में गंदगी और कचरा है। इस बात को दोहराने की आवश्यकता नहीं है। वास्तव में हमारी गलियां और सड़कें, कूड़ेदानों और पेशाबघरों का विस्तार मात्र ही हैं। खुले में शौच, दीवार से सटकर पेशाब करना, ताजी पेंट की हुई दीवारों पर पान और तंबाकू की पीक फैंकना, कूड़े के ढेर, जल-मल का बाहर बहना, खुले नाले, चारों ओर फैला कचरा, गोबर, झुग्गी-झोंपड़ी, सड़कों पर रह रहे लोग, आवारा कुत्ते, बंदर, सूअर, प्रदूषित वायु, आप दिल्ली में कहीं भी जाओ, आपको ये देखने को मिलेंगे। 
 
एक उदाहरण देखिए, केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार भारत के शहरों में लगभग 10 करोड़ टन ठोस कचरा पैदा होता है जिनमें से 3 लाख टन नगर पालिका वाले शहरों में पैदा होता है। 2 करोड़ टन शहरों के बाहर फैंका जाता है जबकि 2.7  करोड़ टन कचरे के बने स्थानों में डाला जाता है और 1.4 करोड़ टन कूड़ा वैसे ही बिखरा रहता है। इस संबंध में उच्चतम न्यायालय ने चेतावनी दी है कि हमारा देश प्लास्टिक टाइम बम पर बैठा हुआ है। 
 
इसके अलावा देश के 498 टीयर-1 शहरों द्वारा प्रतिदिन 48 बिलियन लीटर सीवेज पैदा किया जाता है और इसमें से 26 बिलियन लीटर नदियों में छोड़ा जाता है। गंगा विश्व स्वास्थ्य संगठन की सुरक्षित नदी की सीमा से लगभग 3000 गुणा अधिक गंदी है। इसमें  विषैले औद्योगिक अपशिष्ट, घरेलू कचरा, मानव विष्टा आदि छोड़ा जाता है। वाराणसी में लगभग 55 प्रतिशत जनसंख्या के पास शौचालय नहीं हैं 
 
और वे पवित्र गंगा नदी में शौच करते हैं और उसी का पानी पीते हैं जिसके कारण नदी का जल दूषित हो रहा है और इसके चलते आंत्रशोथ सहित कई बीमारियां पैदा हो रही हैं जो बाल मृत्यु का दूसरा सबसे बड़ा कारण बन गया है। पिछले 5 वर्षों में मलेरिया के मामलों में भी 71 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
 
इसके अलावा नैशनल कैंसर रजिस्टरी प्रोग्राम द्वारा कराए गए अध्ययन में पाया गया है कि भारत में औद्योगिक शहरों और गंगा बेसिन के आसपास रहने वाले लोगों में कैंसर की बीमारी सर्वाधिक है और इसका कारण विषैली धातुएं और तत्व हैं। दिल्ली की हवा पहले ही विषाक्त है। इससे प्रश्न उठता है कि क्या स्वच्छता केवल सफाई कर्मचारियों का दायित्व है? क्या अपने वातावरण को स्वच्छ रखने में हमारी कोई भूमिका नहीं है या हम चाहते हैं कि यदि किसी दूसरे के घर के सामने कचरा जमा हो रहा हो तो इससे मुझे क्या लेना? इसका गरीब, अमीर, शहरी, ग्रामीण जनता से कुछ लेना-देना नहीं है अपितु इसका स्वच्छता से संबंध है। 
 
हम अपने गंदे वातावरण में रहने में खुश हैं और गंदगी फैलाते रहते हैं। इसलिए गंदगी के लिए किसी और को दोष देने से कोई फायदा नहीं। हम कहीं पर भी थूकने, पेशाब करने या कचरा फैलाने से बिल्कुल नहीं कतराते। आज शहरों में धुआं बढ़ता जा रहा है, कचरे के ढेर लगे हुए हैं, कारों, ट्रकों और बसों के हॉर्न की कर्कश आवाज से शहर हो या गांव, सभी लोग परेशान हैं। इसके अलावा राजनीतिक प्रचार  करते तथा मंदिरों व मस्जिदों में धर्म का उपदेश देते हुए लाऊडस्पीकर हमारे कानों को भेदते रहते हैं। 
 
विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा-निर्देशों के अनुसार शहरी क्षेत्रों में ध्वनि का स्तर 50 डैसीबल तक होना चाहिए और 85 डैसीबल से अधिक होने पर कानों को नुक्सान पहुंचता है। किन्तु भारत के शहरों में यह 118 डैसीबल से अधिक है। इस ध्वनि के दूषण से भी लोगों का स्वास्थ्य बिगड़ रहा है, उन्हें सुनने में दिक्कत होती है, नींद खराब होती है, हृदय रोग बढ़ते हैं। कार्य और स्कूलों में कार्य निष्पादन पर प्रभाव पड़ता है, तनाव बढ़ता है तथा पर्यावरण को क्षति पहुंचती है और यदि गंदगी फैलाने के लिए किसी को कुछ कहते हैं तो वह कहता है कि तुम मुझे गंदा कह रहे हो। इतना ही है तो विदेशों में जाओ जहां लोग स्वच्छता में विश्वास करते हैं। आप बताओ कि फ्रांस के लोगों ने परफ्यूम की खोज क्यों की? आप किसी ब्रिटिश नागरिक के साथ लिफ्ट में जाओ तो वहां आपको बासी परफ्यूम की और मध्य पूर्व के  लोगों के साथ जाओ तो मांस की गंध सूंघने को मिलेगी।
 
विसंगति देखिए। भारतीय स्वच्छ हैं लेकिन भारत गंदा है। क्यों और कैसे? इसका कारण यह है कि हमारे यहां यह सिखाया जाता है कि अपना घर और वातावरण साफ रखें और अपना कचरा पड़ोसी के घर के आगे फैंक दो। फिर भी लोग जाने-अनजाने अपनी आत्मा को स्वच्छ करने के लिए गंदी गंगा-यमुना में डुबकी लगा देते हैं। 
 
हाल ही में कराए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि सब्जी काटने की 92 प्रतिशत चौकियां और चाकू दूषित होते हैं। 51 प्रतिशत लोग सब्जी पकाने से पहले उन्हें धोते नहीं हैं और 45 प्रतिशत लोग खाने से पहले फलों को धोते नहीं हैं। केवल 44 प्रतिशत लोग अपने बच्चों के लंच बॉक्स की सफाई करते हैं और 44 प्रतिशत बच्चे ही खेलने के बाद हाथ धोते हैं। घरों में सबसे दूषित वस्तु किचन का डस्टर होता है। हमारी रेलगाडि़यों में कचरा और गंदगी भरी रहती है। उनके शौचालय तथा वाश बेसिन गंदगी के कारण प्रयोग करने लायक नहीं होते हैं और इसका प्रभाव सरकार पर भी दिखाई देता है। 
 
आप किसी भी सरकारी कार्यालय या अस्पताल में चले जाओ, आपको यही स्थिति देखने को मिलेगी। हमारे लोक स्वास्थ्य प्राधिकारियों ने इस संबंध में चेतावनी दे रखी है किन्तु इसका हम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। मोदी के स्वच्छ भारत अभियान का असर अभी दिखाई नहीं दे रहा है और यह केवल झाड़ू पकड़कर सैल्फी खींचने तक ही सीमित रह गया है। सरकार की अपेक्षा हमारे विनाशकारी दृष्टिकोण और लोगों की उदासीनता के कारण पर्यावरण के प्रति लोगों में बिल्कुल भी जागरूकता नहीं है। हमारे समुद्र में अपशिष्ट भरा पड़ा है। हमारे गांव और शहर जमीन, वायु, जलमार्ग सभी को गंदा कर रहे हैं। शहरों में वायु प्रदूषण का मुख्य कारण कचरे को जलाना है। मुम्बई में 20 प्रतिशत वायु प्रदूषण का कारण कचरे को जलाया जाना है। 
 
इस समस्या का एक बड़ा कारण हमारे नेतागण भी हैं जो कानून को किसी विदेशी गण्यमान्य व्यक्ति की यात्रा से पूर्व प्रदॢशत किया जाने वाला गहना मानते हैं। अक्सर कानून की उपेक्षा की जाती है क्योंकि लालबत्ती कारों में बंदूकधारी कमांडो के साथ बैठे हमारे राजनेता यह संदेश देते हैं कि हम कानून द्वारा शासन करते हैं।
 
इस स्थिति में सुधार के लिए क्या किया जा सकता है? इसका एक तरीका यह है कि कचरा फैलाने वालों, सार्वजनिक स्थान पर पेशाब करने वालों, थूकने वालों, पान की पीक थूकने वालों पर कठोर कानूनी कार्रवाई की जाए, सिंगापुर की तरह कानून का पालन किया जाए जहां पर यदि आप सड़क पर एक कागज भी फैंकते हैं या च्यूइंगम चबाते हैं तो आपको भारी जुर्माना देना पड़ेगा या जेल की सजा हो सकती है। 
 
यदि हमारे देश को विश्व का सबसे बड़ा सीवर नहीं बनना है तो सरकार की उपेक्षा और उदासीनता के स्थान पर एक ठोस कार्य योजना बनाई जानी चाहिए। यदि भारत को वास्तव में विकसित देश बनना है तो उसे इस संबंध में कानून बनाने होंगे और उन कानूनों को लागू भी करना होगा। यदि हमें अपने सर्वोत्तम संसाधनों का उपयोग करना है तो हमें अपने नागरिकों को गंभीरता से लेना होगा और उन्हें एक अच्छा निवेश मानना होगा। 
 
भारत में स्थानीय स्तर पर गंदगी को साफ करने के बजाय किसी व्यक्ति को अंतरिक्ष में पहुंचाना आसान है हालांकि मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान चलाया है। समय आ गया है कि हम बदलाव के लिए कार्य करें अन्यथा भारत गंदगी और कचरे के लिए नोबेल पुरस्कार जीतने में पीछे नहीं रहेगा। 
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