6 जून की घटनाओं को ‘पंजाबी सूबा आंदोलन’ के संदर्भ में देखने की जरूरत

Sunday, Jun 14, 2015 - 01:19 AM (IST)

(बी.के. चम): कार्ल माक्र्स ने एक बार कहा था : ‘‘मजहब जनता के लिए अफीम है।’’ 20वीं शताब्दी के अंत में मजहब उग्रवाद और आतंकवाद की क्रीड़ास्थली बन गया है और इन दोनों शैतानी शक्तियों ने कई वर्षों दौरान विश्व के विभिन्न हिस्सों में अपना जाल फैला लिया। भारत भी इनके बड़े शिकारों में से एक है। 

भारत में यह प्रक्रिया 80 के दशक में पंजाब से शुरू हुई और कड़ाई से दबा दिए जाने से पहले इसने हजारों हिन्दुओं और सिखों की जिन्दगी लील ली थी। बेशक पंजाब में इस चुनौती  पर 90 के दशक में अंकुश लगा लिया गया था। परन्तु 1989 में जम्मू-कश्मीर इसका अगला शिकार बना और आज तक इसकी गिरफ्त में जकड़ा हुआ है। 
 
गत सप्ताह के कुछ घटनाक्रम संकेत देते हैं कि मजहबी भावनाओं को भड़काने हेतु साजगार स्थितियां पैदा करने के लिए फिर से प्रयास हो रहे हैं, जिनके चलते पंजाब में फिर से उग्रवाद पनपने में देर नहीं लगेगी। भारत और विदेश में कुछ निहित स्वार्थी तत्व (खास तौर पर पाकिस्तान की आई.एस.आई.) भारत के टुकड़े करने का अपना पसंदीदा खेल खेलने के लिए फिर से मौके की तलाश में हैं। 
 
सत्तारूढ़ अकाली दल के लिए यह एक खतरे की घंटी है। इस पर हावी नेतृत्व ने पार्टी के लिए घटते जनसमर्थन तथा तेजी से बढ़ रही एंटी इनकम्बैंसी की भावनाओं पर काबू पाने के लिए गर्मदलीय मजहबी और भावनात्मक मुखौटा धारण करना शुरू कर दिया है। इसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं : 
 
गहरी धार्मिक श्रद्धा रखने वाले सिखों को अकाली दल का मुख्य वोट बैंक माना जाता है। समस्याओं को हल करने में सरकार की विफलता के कारण इस वर्ग में अकाली दल के प्रति समर्थन घटता जा रहा है। इस वर्ग का ध्यान भटकाने के लिए सत्तारूढ़ अकाली नेतृत्व ने पंथक एजैंडे को फिर से ठंडे बस्ते में से निकालने का फैसला लिया है। इस दिशा में पहले कदम के तौर पर सिख गुरुओं के पवित्र यादगारी चिन्हों को धार्मिक दर्शन यात्रा के माध्यम से राज्य भर में जलूसों के रूप में प्रदॢशत किया गया। यात्रा को व्यापक रूप में प्रचारित करने के लिए सरकार ने अपने लोक सम्पर्क विभाग को इसकी वीडियोग्राफी करने और फील्ड स्टाफ को अपने स्मार्ट फोनों के माध्यम से यात्रा के फोटो खींचने का निर्देश दिया। सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों को निर्देश दिया गया कि वे इन वीडियो को फेसबुक और अन्य सोशल नैटवर्क साइटों पर वायरल की तरह फैलाएं। 
 
दूसरा उदाहरण है कि सत्तारूढ़ और अकाली दल पर हावी नेतृत्व ने देश भर की जेलों में बंद सिख उग्रपंथियों को राज्य की जेलों में लाने का फैसला लिया। पंजाब सरकार के देश भर की जेलों में बंद पूर्व सिख उग्रपंथियों को राज्य की जेलों में लाने के फैसले के विरुद्ध केन्द्रीय गुप्तचर एजैंसियों ने रिपोर्ट भेजकर केन्द्रीय गृह मंत्रालय को आगाह किया है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पंजाब में उग्रपंथियों की आमद न केवल राज्य की सुरक्षा के मामले में बहुत संवेदनशील मुद्दा है, बल्कि इससे कुख्यात तत्वों को पंजाब की जेलों के अंदर और बाहर नए हमदर्द पैदा करने का मौका मिलेगा। इसके अलावा उन्हें अक्सर पैरोल पर जाने की अनुमति मिलनी शुरू हो जाएगी। 
 
अकाली दल की गठबंधन सहयोगी  भाजपा ने वीरवार को कहा था कि आतंक संबंधी मामलों में जेलों में बंद सिख कैदियों को देश भर की जेलों से पंजाब में स्थानांतरित करने के मुद्दे पर उसे विश्वास में नहीं लिया गया। पंजाब भाजपा अध्यक्ष कमल शर्मा ने कहा कि पार्टी ऐसे किसी भी कदम के उठाए जाने के विरुद्ध है, जिससे प्रदेश की अमन-कानून की स्थिति भंग होती हो। 
 
तीसरा उदाहरण है, 6 जून को आप्रेशन ब्ल्यू स्टार की 31वीं बरसी के मौके पर श्री दरबार साहिब परिसर में हुईं घटनाएं। ये घटनाएं चिन्ता का विषय इसलिए हैं कि सिखों के इस पवित्रतम तीर्थ के अंदर तलवारें लहराते युवकों द्वारा खालिस्तान के नारे लगाने और अकाल तख्त के जत्थेदार द्वारा  विवादित टिप्पणियां करने और लुधियाना में जरनैल सिंह भिंडरांवाला के पोस्टर भी हटाए जाने पर ङ्क्षहसा का प्रदर्शन  हुआ। इन पोस्टरों को कांग्रेस नेता परमिन्द्र मेहता द्वारा हटाया गया था (जिन्हें बाद में पार्टी ने निलंबित कर दिया) जिससे भिंडरांवाला के समर्थक भड़क उठे। 
 
भिंडरांवाला समर्थक सिख गुटों और भिंडरांवाले विरोधी दक्षिण पंथी हिन्दू गुटों के बीच टकराव टालने में पुलिस उस समय सफल हो गई जब इसने मोटरसाइकिलों पर सवार भिंडरांवाला के समर्थक सिख गुटों को हिन्दू वर्चस्व वाले पुराने लुधियाना शहर के व्यापारिक गढ़ चौड़ा बाजार में शामिल होने की अनुमति नहीं दी। 
 
हिन्दू शिवसेना और हिन्दू जागृति मंच सहित दक्षिणपंथी हिन्दू पंथों ने पुराने शहर में पथ संचलन निकाल कर आरोप लगाया कि सत्तारूढ़ अकाली दल की शह पर ही आतंकी संगठन राज्य में ‘पुन: पैर जमाने’ की खुली कोशिशें कर रहे हैं। इतिहास सबक तो सिखाता है लेकिन जो न सीखने पर ही बजिद हों वे कोई सबक नहीं सीखते। 
 
6 जून की घटनाओं को 50 के दशक के मध्य में मास्टर तारा सिंह द्वारा संचालित पंजाबी सूबा आंदोलन  के संदर्भ में देखे जाने की जरूरत है। मेरा पुश्तैनी शहर लुधियाना इस आंदोलन का केन्द्र बिन्दु था। नंगी तलवारें लहराते हुए अकाली युवा चौड़ा बाजार सहित हिन्दू वर्चस्व वाले अन्य कारोबारी केन्द्रों में जलूस निकाल कर नारे लगाया करते थे। इसके जवाब में स्थानीय डैंटिस्ट कालीचरण नीत महा पंजाब फ्रंट (जोकि तत्कालीन विकास मंत्री स्व. प्रताप सिंह कैरों की सरपरस्ती में गठित लुधियाना स्थित एक उग्रपंथी हिन्दू गुट था), के कार्यकत्र्ता बाजार के आसपास की इमारतों पर मोर्चाबंदी करके आंदोलनकारियों पर पत्थर बरसाया करते थे। इसके फलस्वरूप न केवल शहर के आंदोलनग्रस्त कारोबारी केन्द्रों में कफ्र्यू लागू हुआ बल्कि प्रदेश भर में हिन्दुओं और सिखों के बीच साम्प्रदायिक तनाव भड़क उठा। 
 
ऊपर जिन घटनाक्रमों का उल्लेख किया गया है, उन्हें भी विभाजनकारी मजहबी उग्रवाद की रोशनी में देखा जाना चाहिए जोकि नरेन्द्र मोदी नीत सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद चिन्ताजनक हद तक विकराल रूप धारण कर चुका है। 
 
मोदी के मंत्रियों और पार्टी सांसदों में से कुछेक साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने वाले बयान देते रहते हैं। जिनकी प्रतिक्रिया में मुस्लिम गर्मदलीय द्वारा भी इतने ही साम्प्रदायिक उन्माद का प्रदर्शन किया जाता है। आर.एस.एस. के प्रतिबद्ध प्रचारक रह चुके प्रधानमंत्री को जब लगा कि इन बातों से उनकी वैश्विक छवि दागदार हो रही है, तो उन्हें मजबूर होकर साम्प्रदायिक सौहार्द का मुखौटा पहनना पड़ा। 
 
अधिक चिन्ता की बात यह है कि ऐसे पार्टी नेताओं को यदाकदा चेतावनी देने से बढ़कर मोदी ने अपने किसी भी ऐसे मंत्री, सांसद अथवा साध्वियों व स्वामियों के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की, जिनके भड़काऊ और ध्रुवीकरण करने वाले बयानों से बहुसांस्कृतिक और बहुपंथक भारत की एकता और एकजुटता को खतरा खड़ा हो गया था। 
 
मजहब और राजनीति की खिचड़ी बनाई जा रही है और इसे पंजाब के सत्तारूढ़ नेतृत्व के साथ-साथ आर.एस.एस. से संबद्ध हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों द्वारा सत्ता संचालन के हथियार के रूप में प्रयुक्त किया जा रहा है। यही हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथी मुख्य तौर पर इस चिन्ताजनक स्थिति को पैदा करने के लिए जिम्मेदार हैं। 
 
प्रसिद्ध पत्रिका ‘फार्चून’ के वरिष्ठ संपादक फिलिप एल्मर-डी. विट का कहना है, ‘‘कुछ लोग अखबारी सुर्खियां सृजित करते हैं और कुछ लोग इतिहास बनाते हैं।’’ इन दोनों में से मोदी किस पक्ष के साथ संबंधित हैं, यह उनकी सरकार के शेष बचे 4 साल के कार्यकाल दौरान स्पष्ट हो जाएगा। तब तक के लिए हम उनके लिए केवल शुभकामना ही कर सकते हैं। 
 
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