आखिर तक ‘हिन्दुस्तानी’ ही थे मंटो

Thursday, May 28, 2015 - 01:07 AM (IST)

(ईश्वर डावरा) उर्दू के प्रसिद्ध कहानीकार सआदत हसन मन्टो का जन्मदिन 11 मर्ई को पड़ता है। इसी दिन 1914 को इसका जन्म जिला लुुधियाना में समराला के एक गांव में हुआ। मन्टो की जन्म शताब्दी बड़ी धूमधाम से इसके ग्रामवासियों ने मनाई बड़े-बड़े साहित्यकारों व शायरों की उपस्थिति में। समारोह शानदार ढंग से चल ही रहा था कि स्वर्गीय अफसाना निगार की जन्म स्थली का विवाद चल पड़ा। बहुत से उपस्थित सम्माननीय जन इस मत के थे कि यह गांव उनके जन्म का वास्तविक स्थल था ही नहीं। उनकी अपनी बेटी, जो पति समेत वहां मौजूद थी, उसकी भी यही राय थी। मुझे आगे नहीं मालूम कि यह विवाद सुलझा कैसे।

खैर, मन्टो के छोटे से जीवन, कुल 43 वर्ष के ज्यादातर साल अमृतसर, बम्बई (तब यही नाम था) तथा लाहौर में बीते। अमृतसर शहर तो मन्टो के कहानी साहित्य का एक जीता-जागता चरित्र जैसा ही है। मन्टो के अनेकों अफसानों में या तो अमृतसर का जिक्र है या लाहौर और बम्बई का। यहीं के गली-कूचे, बदनाम बाजार, तांगे वाले और देश के स्वाधीनता संग्राम में जूझ रहे आम लोग मन्टो के अफसानों में वह रंग भरते हैं जिनसे सआदत हसन मन्टो भारत व पाकिस्तान के उन तीन महान साहित्यकारों में गिनेजाते हैं जिन्हें दोनों ही देश अपनी विभूति बता कर गौरवान्वित होते हैं। अन्य दो डा. सर मोहम्मद इकबाल व फैज अहमद फैज-भारत उपमहाद्वीप के दो बड़े शायर हैं।

सआदत हसन मन्टो को खुदा ने बहुत थोड़ी उम्र दी। अपने 43 वर्षों में फिर भी मन्टो ने अपने साहित्यिक विरसे को इतना महान बना दिया कि बड़े-बड़े लेखक भी रश्क करें। ऐसा क्या था इस ‘मुफलिस’ कहानीकार में जो यूरोप के पेंटर वैन गॉग की तरह उम्र भर पैसे-पैसे के लिए तरसता रहा? बम्बई के फिल्म जगत में भी इसने भाग्य आजमाया पर आठ-नौ फिल्मों में मामूली लेखन सफलता व कमाई से आगे नहीं बढ़ पाया। वह दूसरे राजेंद्र कृष्ण या डी.एन. मधोक या आगा जानी कश्मीरी नहीं बन पाए। शराब की लत ने भी जिंदगी में उसे भौतिक सफलता से दूर रखा।

मन्टो को हिंदुस्तान से बहुत प्यार था। वह जिन्ना की दो कौमों की थ्योरी में विश्वास कतई नहीं रखते थे-पाकिस्तान बनने के हक में भी नहीं थे। फिर भी देश विभाजन के बाद वह पाकिस्तान क्यों चले गए? कइयों ने यह अफवाह उड़ाई कि वह हिंदुओं की छोड़ी जायदाद का कुछ अंश अलाट कराने के लालच में वहां गए पर यह सच न था।

अपनी पत्नी सफिया व तीनों बेटियों को मन्टो बहुत प्यार करता था। 1948 में बम्बई में बड़ी शिद्दत सेबंटवारे का रक्तपात हो रहा था। हालांकि  और कई मुस्लिम लेखक व फिल्म लाइन से संबंधित लोग वहीं डटे रहे पर अंत में भयाक्रांत मन्टो परिवार लाहौर चला ही गया।

लाहौर के अदबी हलकों ने मन्टो का गर्मजोशी से स्वागत किया पर उसकी मुफलिसी न गई। इसका फायदा कई अखबार व पत्रिकाओं वालों ने खूब उठाया। हर शाम मन्टो को शराब की  तलब होती तो सम्पादक लोग उन्हें उस शाम की बोतल की लागत एकाध अफसाना व लेख लिखवा कर ही देते। मन्टो का नाम प्रिंट में देखते ही अखबार व रसाले धड़ाधड़ बिकते थे।

मन्टो एक जादूनिगार कहानीकार थे- उर्दू में तब एक ही! हालांकि अपनी स्कूल-कालेज की पढ़ाई की तरफ उन्होंने ज्यादा ध्यान नहीं दिया पर उर्दू पर उनकी पकड़ कमाल की थी। उन्होंने अपने अंदाजे-बयां से उर्दू का खजाना खूब भरा। उनकी कहानियों के कई जुमले व उनके अपने बनाए मुहावरे पुराने लोगों की जुबां पर आज भी हैं।

मन्टो के कुल बीस कहानी संग्रह छपे-1936 से लेकर 1956 तक। इसके अलावा कई ड्रामे, निबंध व लेख भी। बम्बई में रहते हुए उन्होंने कुछ फिल्मकारों को लेकर एक बहुत दिलचस्प लेख संग्रह ‘मीना बाजार’ भी प्रकाशित किया। ये लेख दरअसल फिल्मी हस्तियों के बारे में अति मनोरंजक व हास्यात्मक शैली में लिखे रेखाचित्र हैं, जिनमें नूरजहां, नसीम, कुलदीप कौर, नर्गिस, सितारा व नीना इत्यादि के अनदेखे जीवन की परतें मन्टो ने अपनी मख्सूस शैली में इस अंदाज से खोली हैं कि बार-बार पढऩे को मन करता है।

मन्टो के कई कहानी संग्रह अब हिंदी व इंगलिश में भी अनूदित हो चुके हैं। अपने बेबाक व खुले बयान से मन्टो को सरकार के गुस्से का भी शिकार होना पड़ा। उन पर उनकी लिखी कहानियों ‘बू’, ‘काली सलवार’ व ‘धुआं’ पर देश विभाजन से पहले केस चले। बाद में पाकिस्तान में भी ‘ठंडा गोश्त’ व ‘ऊपर नीचे, दरम्यान’ पर केस चले।

मन्टो ने अपने इर्द-गिर्द जो भी देखा- इंसान के अनेकों रूप, उसका प्यार, नफरत, दरिंदगी, लालच, ढोंग, वहशीपना-और जो भी सुना उसे अपनी कहानियों में पिरो दिया। जिस युग में वह था, वह परिवर्तन का युग था। देश अंग्रेजी हुकूमत की गुलामी से छुटकारे के लिए संघर्षरत था। मन्टो के जीवनकाल में ही दो विश्वयुद्ध हुए जिन्होंने मानवीय दृष्टिकोण में क्रांति ला दी, पहचान ही बदल गई। इस परिवर्तनशील युग में रह कर मन्टो की साहित्यिक प्रतिभा, जो यथार्थ पर आधारित थी, खूब पनपी। अपने पाठकों को मनोरंजन के साथ-साथ एक शॉक- ट्रीटमैंट भी उसने दिया ताकि वे बेहतर इंसान बन सकें।

मन्टो की कहानियों का विषय-क्षेत्र विस्तृत था। उसकी कहानियों में देश के स्वतंत्रता आंदोलन का संघर्ष था तो देश के बंटवारे के वक्त मानवता का जनाजा निकलने के दृश्य भी थे। भारतीय तवायफ को मन्टो से ज्यादा बड़ा शुभचिंतक शायद ही कोई और मिला हो। मन्टो की हास्य शैली उसके कथा-साहित्य की गंभीरता को और भी बढ़ाती है।

भारत के एक अति घटना-प्रधान युग का प्रतिनिधि मन्टो आज भी यहां इतना ही लोकप्रिय है जितना कि पाकिस्तान में। सच ही कहा गया है कि मन्टो अंत तक एक ङ्क्षहदुस्तानी ही था। उसकी कला भारत के भूगोल के इर्द-गिर्द घूमती है। किसी भी धर्म या सियासत का उससे कोई लेना-देना नहीं।

और उसके जाने के बाद
18.1.1955 के दिन मन्टो का देहांत हुआ। दिल्ली म्यूनिसिपल कमेटी (तब यही नाम था) ने 5.2.1955 के दिन शाम 6 बजे कमेटी के टाऊनहाल में एक शोकसभा में मन्टो की मृत्यु का शोक मनाया। जो नोटिस दिल्ली के नागरिकों की सूचना के लिए निकला, उसमें कन्वीनर्ज के नामों की सूची पढ़कर उस समय की बरबस याद आ जाती है। नाम यूं थे :

जोश मलीहाबादी (प्रसिद्ध शायर), कृष्ण चन्दर (प्रसिद्ध उर्दू कहानीकार, मन्टो के मित्र), कुदसिया बेगम जैदी (प्रतिष्ठित नागरिक), युनूस देहलवी (‘शमां’ के सम्पादक), खुशतरग्रामी
(प्रसिद्ध उर्दू पत्रिका ‘बीसवीं
सदी’ के सम्पादक), धर्मपाल
गुप्ता ‘वफा’, जगन्नाथ ‘आजाद’, श्यामसुंदर परवेज, प्रकाश पंडित (सभी जाने-माने शायर)।
अपनी मृत्यु से पहले ही 18.8.1954 को मन्टो ने अपना समाधि लेख (अपनी कब्र पर लिखने के लिए) इस तरह तैयार कर दिया था:
‘‘यहां सआदत हसन मन्टो द$फन है। उसके सीने में फने-अफसानानिगारी के सारे इसरारो-रमूका द$फन हैं। वह अब भी मनों मिट्टी के नीचे सोच रहा है कि वह बड़ा अफसानानिगार है या खुदा।’’

Advertising