‘सुशासन’ की बातें केवल कागजों तक ही सीमित

Tuesday, May 12, 2015 - 12:05 AM (IST)

(पूनम आई. कौशिश): इस सप्ताह हमारे शासकों के बारे में कई कटु सच्चाइयों का पर्दाफाश हुआ है और जिससे पता चला है कि हमारी सर्वशक्तिमान सरकारी प्रणाली में निजी लाभ के लिए लोक-पदों का उपयोग किया जा रहा है। सत्ता के लालच को भूल जाइए। आज लालच की सत्ता सब पर हावी है जिसके चलते और अधिक पैसा कमाने की लालसा सब पर भारी पड़ जाती है, यह बताता है कि सुशासन की बातें केवल कागजों तक सीमित हैं। सरोगेट मंत्री क्लब में आपका स्वागत है और इसका श्रेय केन्द्रीय परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी तथा पंजाब के पिता-पुत्र मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल को जाता है। वे रियायत के लोकतंत्र या राज्य सत्ता की रियायतों तथा सीधी बिक्री की राजनीति के प्रतीक बन गए हैं और इस खेल में विजेता का ही सब कुछ होता है। 

पिछले सप्ताह राज्यसभा में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की उस रिपोर्ट पर खूब शोर-शराबा हुआ जिसमें कहा गया कि गडकरी का ‘पूर्ति ग्रुप’ भारतीय अक्षय ऊर्जा विकास एजैंसी लिमिटेड से लिए गए 84 करोड़ रुपए में से 12 करोड़ रुपए वापस नहीं कर पाया है। यह ऋण मार्च 2002 में महाराष्ट्र में गन्ने की खोई से 22 मैगावाट बिजली संयंत्र की स्थापना के लिए लिया गया था। कांग्रेस ने गडकरी के इस स्पष्टीकरण को स्वीकार नहीं किया कि उन्होंने 2011 में पूर्ति ग्रुप के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया था और धमकी दी कि यदि गडकरी ने त्यागपत्र नहीं दिया तो वह सदन को चलने नहीं देंगे। विपक्षी सदस्यों ने उन पर 7 से 9 जुलाई 2013 को फ्रैंच रिवेरा में रूइया की याच में यात्रा करने के लिए भी कटाक्ष किए। 
 
आयकर विभाग ने इस बात का पता लगाया है कि 12 फर्मों ने 2012 में गडकरी के पूर्ति ग्रुप में निवेश किया और इन फर्मों के पते जाली पाए गए। इस प्रकार इन फर्मों ने 70 मिलियन रुपए के कर की चोरी की। क्या यह उनके लोक, कत्र्तव्यों और निजी हितों के बीच टकराव का द्योतक है? यदि है तो क्या? 
 
इसके बाद पंजाब के मोगा जिले में एक बस के यात्री ने एक किशोर लड़की के साथ छेड़छाड़ का प्रयास किया और इसमें विफल रहने पर उन्होंनेे उसे बस से धक्का दे कर गिरा दिया जिससे उसकी मौत हो गई। इस पर खूब शोर हुआ और जब यह पता चला कि यह बस बादल की कम्पनी ऑर्बिट एविएशन की है तो इस पर जनाक्रोश और भी बढ़ गया। इस कम्पनी में सुखबीर सिंह बादल और केन्द्रीय खाद्य प्रसंस्करण मंत्री तथा उनकी पत्नी हरसिमरत की मुख्य हिस्सेदारी है। अब आप चाहें कुछ भी कहें किन्तु नैतिकता, ईमानदारी और सत्यनिष्ठा आदि जैसे शब्द राजनीतिक शब्दकोष में नहीं मिलते हैं। इससे यह प्रश्न भी उठता है कि हम कब तक राज्य द्वारा प्रायोजित सुविधाएं नेताओं को उपलब्ध कराते रहेंगे? और निजी-सरकारी सांझेदारी के माध्यम से हमारे राजनेताओं ने एक नया प्रयोग शुरू किया है। हमारे नेतागण अपना अनैतिक धंधा कब बंद करेंगे? कौन किसकी नजरों में दोषी है? 
 
नि:संदेह गडकरी और बादल ने लाभ के पद विधेयक की खामियों का लाभ उठाया है। इस विधेयक में संसद सदस्यों को कोई भी सरकारी पद लेने से प्रतिबंधित किया गया है किन्तु उन्हें कार्पोरेट जगत में किसी भी पद को लेने से इंकार नहीं किया गया है। इस खामी को दूर करने की आवश्यकता है तथा लाभ के पद में निजी क्षेत्र को भी शामिल किए जाने की आवश्यकता है। 
 
आज हम एक ऐसे युग में रह रहे हैं जहां पर लोक-नैतिकता और व्यावहारिक राजनीति ने एक विशेष आयाम ले लिया है और जिसके चलते क्रोनी कैपिटलिज्म (जुंडलीदार पूंजीवाद) फल-फूल रहा है। एक घाघ नेता के शब्दों में-इस हमाम में सब नंगे हैं। 2-जी स्पैक्ट्रम घोटाला, आदर्श हाऊसिंग सोसाइटी, कोलगेट घोटाला आदि इसके उदाहरण हैं। कोलगेट  में कोयला ब्लॉक यू.पी.ए. सरकार के मंत्रियों, कांग्रेस और इसके सहयोगी दलों के सांसदों, पार्टी से घनिष्ठ रूप में जुड़े लोगों, पारिवारिक जनों और मित्रों को दिए गए। नीरा राडिया टेप बताते हैं कि उद्योगपतियों, मीडिया, नेतागणों और बाबुओं के बीच किस प्रकार सांठगांठ चलती है। 
 
2011  में सूचना के अधिकार के अंतर्गत एक प्रश्न के उत्तर में राज्यसभा में हितों के रजिस्टर का खुलासा हुआ जिसमें पाया गया कि राज्यसभा के 232 सदस्यों में से 92 सदस्यों के आॢथक हित जुड़े हुए हैं जिनमें पैसा प्राप्त कर डायरैक्टरशिप नियमित लाभ कार्यकलाप, नियंत्रक शेयरधारिता, पैसा लेकर कंसल्टैंसी और पेशेवर सेवाएं देना शामिल है। साथ ही इनमें से कई सदस्य ऐसे थे जो उन स्थायी समितियों के सदस्य थे जिनसे इनके व्यावसायिक हित जुड़े हुए थे। महाराष्ट्र के समाचार पत्र व्यवसायी विजय दर्दा और रिलायंस पैट्रोलियम के डायरैक्टर वाई.पी. त्रिवेदी वित्त  संबंधी स्थायी समिति, वाणिज्य और उद्योग संबंधी परामर्शदात्री समिति के सदस्य थे। 
 
उसके बाद द्रमुक के केन्द्रीय जहाजरानी मंत्री टी.आर. बालू ने पूर्ववर्ती यू.पी.ए. सरकार के मंत्री मुरली देवड़ा से कहा था कि वह उनके परिवार की किंग पावर कार्पोरेशन को गैस उपलब्ध कराए। यह कम्पनी उनके पुत्र द्वारा चलाई जा रही थी और मंत्री बनने से पूर्व वह ही इसके प्रबंध निदेशक थे और मंत्री बनने के बाद वे अपने बेटे की सहायता करते थे किन्तु क्या आप उनसे अन्य लोगों के बच्चों की मदद की अपेक्षा कर सकते हैं? तमिलनाडु के मारन बंधु भी हितों के टकराव के मामलों में संलिप्त रहे और इसमें उन्होंने अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर अपने आवास पर 223 उच्च गति वाली टैलीफोन लाइनें उपलब्ध कराईं जिससे उनके पारिवारिक उपक्रम सन टी.वी. नैटवर्क को सहायता मिले। 
 
राज्यसभा की प्रक्रिया तथा कार्य संचालन 
नियमों के नियम 293  के अनुसार सदस्यों को शपथ लेने के 90 दिनों के भीतर हितों के रजिस्टर में अपने वित्तीय, व्यावसायिक और पेशेवर हितों की घोषणा करनी होती है और सदन में बोलने से पहले यह घोषणा करना आवश्यक है।  किन्तु इसका कभी भी पालन नहीं किया गया। इस समस्या का समाधान क्या है? मुद्दा गडकरी और बादल के व्यावसायिक हित नहीं अपितु यह है कि हमारे राजनेता अर्थात शासक स्वयं को अन्य सामान्य नागरिकों से ऊपर मानते हैं और वे अपने को अन्य लोगों से अधिक समान मानते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें व्यवसाय या उद्योग चलाने का कोई अधिकार  नहीं है क्योंकि इससे हितों का टकराव होगा। और यदि हितों का टकराव होता है तो उन्हें ऐसे निर्णयों से स्वयं को अलग रखना चाहिए जहां उनके हितों का टकराव हो। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन कर यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि जो लोग जनता का प्रतिनिधित्व करना चाहते हैं उनके प्रत्यक्ष या परोक्ष व्यावसायिक हित न हों। 
 
हितों के टकराव को रोकने का सर्वोत्तम उपाय यह है कि उनसे बचा जाए। उदाहरण के लिए किसी पद को लेने वे पूर्व किसी भी संसद सदस्य को उस कंपनी के सारे शेयर बेच देने चाहिएं जो उसके पास हैं तथा विभिन्न कम्पनियों के बोर्ड से त्यागपत्र दे देना चाहिए। या ऐसे शेयरों को किसी ऐसे न्याय में डाल देना चाहिए जो उनकी खरीद-बिक्री करती रहे और सदस्य को उसकी जानकारी न मिले। ऐसा कर संसद सदस्य को यह पता नहीं होगा कि उस न्याय ने कहां निवेश किया। इसलिए वह उन कम्पनियों के हित में काम नहीं कर सकेगा। 
 
हमारे राजनेताओं को यह सुनिश्चित करना होगा कि जो लोग निर्णय लेने की स्थिति में हैं या जिनके पास सत्ता है उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके निजी हित उनके व्यावसायिक कत्र्तव्यों के साथ प्रतिस्पर्धा न करें और हितों के टकराव की स्थिति न बने। जिस कम्पनी में किसी सदस्य के व्यावसायिक हित होंगे उसे उसकी स्थिति से वित्तीय लाभ नहीं मिलना चाहिए। समय आ गया है कि भारत की जनता को हमारे लेाकतंत्र को कमजोर कर रही इस बीमारी को पंचायत से लेकर केन्द्र सरकार के स्तर तक रोकने के लिए आगे आना चाहिए। उन्हें हर कीमत पर सत्तालोलुप तुच्छ राजनेताओं को राजनीति से बाहर करना चाहिए और क्रोनी कैपिटलिज्म के खतरों से बचने के उपाय करने चाहिएं। जब नेता ही अपराध कर रहा हो तो फिर दोषी का निर्णय कौन करेगा? 
 
कुल मिलाकर हमने नेताओं को शासन करने के लिए चुना है। इसलिए हमारे नेताओं को परोक्ष रूप से व्यवसायी बनने का प्रयास नहीं करना चाहिए। जब अन्नदाता व्यापारी बन जाएगा तो आम आदमी गरीब ही बना रहेगा। हमारे  नेताओं को इस सच्चाई को समझना होगा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता के प्रति जवाबदेही अपरिहार्य है। सत्ता के साथ उत्तरदायित्व भी जुड़ा है। हमें सार्वजनिक चेहरे से निजी मुखौटे को उतारना होगा। आपका क्या कहना है?      
 
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