अपने ही ‘घर में बेघर’ बन कर रह गए हैं दलित

Thursday, Apr 16, 2015 - 01:20 AM (IST)

(एम्ब्रोस पिंटो) अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों को हमारे देश के मूलवासी माना जाता है। वे देश की आबादी का 25 प्रतिशत से भी अधिक बनते हैं। 

फिर भी संयुक्त राष्ट्र में भारत सरकार लगातार इस बात से इंकार करती रही है कि ‘मूलवासियों’ का कोई अस्तित्व है तथा यह अवधारणा अनुसूचित जाति/जनजाति पर लागू ही नहीं होती। हालांकि 13 सितम्बर 2007 को भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में इनके पक्ष में मतदान किया था। 

स्वतंत्र देशों में मूलवासियों तथा अन्य कबायलियों एवं अद्र्ध-कबायली समुदायों के संरक्षण व समावेषण के संबंध में अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन कन्वैंशन पर भारत ने भी हस्ताक्षर किए हुए हैं। भारत ने जब्री श्रम कन्वैंशन, जब्री श्रम उन्मूलन कन्वैंशन, समान मजदूरी कन्वैंशन एवं रोजगार/पेशे में भेदभाव पर कन्वैंशन जैसे संयुक्त राष्ट्र की महापंचायतों दौरान भी हस्ताक्षर किए हैं। इन सब बातों के बावजूद मूलवासी लोगों की अवधारणा पर भारत में अक्सर सवाल उठाया जाता है। 

अनुसूचित जातियां किसी प्रकार भी कम उत्पीड़ित नहीं हैं। जाति प्रथा ने दलितों के जीवन में जहर घोल रखा है। उनके साथ पशुओं से भी बदतर व्यवहार होता रहा है और उन्हें गांवों के बाहर अति गंदी परिस्थितियों में जीने और सदैव उच्च जातियों की इच्छापूर्ति के लिए तत्पर रहने को मजबूर किया जाता रहा है। घटिया से घटिया काम करना ही उनके भाग्य में लिखा है और उच्च जातियों के साथ प्राकृतिक संसाधनों की किसी प्रकार की हिस्सेदारी उनके लिए वर्जित थी। 

यहां तक कि उनकी एक झलक या स्पर्श कोभी मनहूस समझा जाता था और ऐसा माना जाता था कि उच्च जातियों के लोग इससे अपवित्र हो जाते हैं।दलित व्यावहारिक अर्थों में समाज से बहिष्कृत लोग रहे हैं। 

अपनी अमानवीय जीवन स्थितियों को ही उन्होंने अपना नसीब समझ कर स्वीकार कर लिया। इसके साथ-साथ अन्य कई व्यवस्थाओं को भी उन्होंने सामाजिक मर्यादा के अटूट अंग के रूप में स्वीकार कर लिया, जैसे यह प्रकृति का कोई विधान हो। इस देश के मूलवासी होने के बावजूद दलितों में से अधिकतर लोग बेघर हैं और यदि किसी का घर है तो भी उसके साथ ऐसा व्यवहार होता रहा है जैसे वह भारतीय समाज का अंग न हो।

यानी कि वे अपने ‘घर’ में बेघर हो गए, वे अपने ही वतन में ‘विदेशी’ बन गए हैं। भारत की वर्तमान  सरकार और इससे सम्बद्ध अन्य समूह  यदि सही अर्थों में ‘घर वापसी’  पर विश्वास रखते हैं तो क्या वे इन लोगों के अवैध रूप में हथियाए हुए घरों को खाली करेंगे और फिर से उन्हें लौटाएंगे? यदि वे ऐसा करने की स्थिति में नहीं हैं तो क्या वे कम से कम इन लोगों को उनके अपने घर उपलब्ध करवा सकते हैं ताकि वे सम्मानजनक और अर्थपूर्ण जीवन व्यतीत कर सकें?

घर के दावेदार नहीं बन सकते आव्रजक 

कौन लोग हैं जिन्होंने मूलवासियों की भूमि हथिया ली? मोटे अर्थों में कहा जाए तो भारत आव्रजकों का ही देश है। भारत की आबादी का 70 प्रतिशत भाग शायद ऐसे लोगों का है जो बाहरी भूमियों से आए आव्रजकों के वंशज हैं। मनुष्य सदा से असुखद इलाकों से सुखद क्षेत्रों की ओर पलायन करते रहे हैं ताकि आराम से जीवन- यापन कर सकें। भारत एक कृषि प्रधान समाज है और आव्रजकों को यहां एक स्वर्गलोक हासिल हुआ क्योंकि इस देश की भूमि बहुत उपजाऊ होने के साथ-साथ सिंचाई सुविधाओं से भी युक्त है।

हजारों वर्ष बाहरी इलाकों से लोग भारत की ओर मुंह उठाए चले आते रहे हैं क्योंकि प्रकृति की अनंत कृपा के कारण यहां उन्हें सुख-सुविधा सम्पन्न जीवन हासिल होता था।

भारत की अनेकता की व्याख्या केवल इस एकमात्र दलील के आधार पर ही की जा सकती है कि यहदेश मुख्य तौर पर आव्रजक आबादी पर आधारितहै। हमारे देश में मजहबों, जातियों, भाषाओं, नस्लीसमूहों और संस्कृतियों इत्यादि की भारी संख्या मौजूद है। ऐसा केवल इसलिए है कि भारत आव्रजकों का देश है।

कुछ लोग लम्बे हैं तो कुछ नाटे, कुछ काले हैं तो कुछ गोरे तथा इनके बीच चमड़ी के रंगों की एक विशाल छटा मौजूद है। विभिन्न आव्रजक तथा भारत में आने वाले आक्रमणकारी अपने साथ विभिन्न संस्कृतियां, भाषाएं, मजहब इत्यादि लेकर आए, जिसके कारण भारत में विराट अनेकता मौजूद है।

औद्योगिकीकरण की वैश्विक प्रक्रिया जैसे ही शुरू हुई तो लोगों ने रोजगार और सुख-सुविधाओं की तलाश में एक बार फिर पश्चिम की ओर रुख कर लिया। अमरीका और यूरोप में भारतीय भारी संख्या में मौजूद हैं जो अधिक सुखद जीवन की तलाश में विदेशी धरती की ओर पलायन कर गए। इन इलाकों में जाकर तो उनका जीवन इतना सफल और सार्थक हुआ है कि वे उन लोगों से भी आगे निकल गए हैं जो अनेक वर्षों से वहां बसे हुए हैं।

2012 के एक शोध अध्ययन के अनुसार 25 साल से ऊपर आयु के 70 प्रतिशत भारतीय अमरीकी स्नातक डिग्रीधारक थे और यह दर अमरीकी समाज के समस्त वर्गों में सबसे ऊंची थी।

अभी 2013 में हुए एक ताजा अमरीकन कम्युनिटी सर्वे के अनुसार 25 वर्ष से अधिक आयु के 40.6 प्रतिशत अमरीकी भारतीयों के पास ग्रैजुएट या प्रोफैशनल डिग्री थी जबकि 32.3 प्रतिशत बैचलर डिग्रीधारक थे। एच1-बी वीजा कार्यक्रम के अन्तर्गत 2011 में उच्च शिक्षा प्राप्त 72438 भारतीयों को अमरीका का वीजा मिला जोकि उस वर्ष विदेशियों को दिए कुल अमरीकी वीजा का 56 प्रतिशत बनताहै।

2010 में भारतीय अमरीकी परिवार की औसत सालाना आय 88000 डालर थी, जबकि समस्त एशियाई अमरीकियों के लिए यह आंकड़ा 66000 डालर था। इसके विपरीत अमरीकी परिवारों की औसत आय केवल 49800 डालर थी। अमरीकी भारतीयों में से गरीबी में जी रहे लोगों की संख्या केवल 9 प्रतिशत है, जबकि समस्त एशियाइयों के लिए यह आंकड़ा 12 प्रतिशत और विशुद्ध अमरीकी आबादी के लिए 13 प्रतिशत है।

2010 में भारतीय अमरीकियों में से 28 प्रतिशत लोग विज्ञान और इंजीनियरिंग क्षेत्रों में कार्यरत थे। अमरीकन कम्युनिटी सर्वे के अनुसार 16 वर्ष या इससे अधिक आयु के 69.3 प्रतिशत भारतीय अमरीकी लोग मैनेजमैंट, कारोबार, साइंस और कला जैसे व्यवसायों में लगे हुए हैं।
 
इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि जो लोग अपनी काबिलियत और कठोर परिश्रम के बूते किसी अन्य देश की ओर पलायन करते हैं वे धीरे-धीरे वहां कुंजीवत पदवियों और शक्तिशाली पदों पर कब्जा जमा लेते हैं। वे लोग वहां के नागरिक बन चुके हैं लेकिन फिर भी उस धरती के मूलवासी नहीं।
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