‘कश्मीरी पंडितों की वापसी’ से कौन डरता है

Sunday, Apr 12, 2015 - 12:28 AM (IST)

(संजय द्विवेदी): घाटी में कश्मीरी पंडितों को वापस बसाने को लेकर अलगाववादी संगठनों की जैसी प्रतिक्रियाएं हुई हैं, वे बहुत स्वाभाविक हैं। यह बात साबित करती है कि कश्मीर घाटी में जो कुछ हुआ, उसमें इन अलगाववादियों की भूमिका और समर्थन रहा है। कश्मीरी पंडितों की कालोनी बनाने की बात पर उन्हें  ‘यहूदी’ शब्द से संबोधित करना कितना खतरनाक है। यह वहां पल रही घातक मानसिकता और विचारधारा दोनों का प्रगटीकरण है। कश्मीरी पंडित एक पीड़ित पक्ष हैं जबकि इसराईल के यहूदी एक ताकतवर समूह हैं। उनसे कश्मीरी पंडितों की तुलना अन्याय ही है। 
 
इतने अत्याचार और दमन के बावजूद पंडितों ने अब तक अपनी लड़ाई कानूनी और अङ्क्षहसक तरीके से ही लड़ी है। वे हथियार उठाने और कत्लेआम करने वाले लोग नहीं हैं। पाक-प्रेरित अलगाववादी संगठन घाटी को हिन्दू मुक्त करने के नापाक इरादे में कामयाब हुए तो उन्हें यह लगा कि कश्मीर अब अलग हो जाएगा। किन्तु हिन्दुस्तान के लोग, कश्मीर के लोग इस हिस्से को भारत का मुकुट मानते हैं। उनके सुख-दुख में साथ होते हैं, समान संवेदना का अनुभव करते हैं।
 
कुछ मु भर लोग इस सांझी विरासत से भरोसा उठाना चाहते हैं। उन्हें बार-बार विफलता हाथ लगी है और आगे भी लगेगी। क्या कश्मीरी अलगाववादी यह कहना चाहते हैं कि जहां मुसलमान बहुसंख्यक होंगे वहां दूसरे पंथ के लोग नहीं रह सकते?
 
पाकिस्तान के द्विराष्ट्रवाद पर तमाचा
कश्मीर दरअसल पाकिस्तान के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत पर एक तमाचा है। किसी राज्य में बहुसंख्यक मुस्लिम जनता और भारत का शासन यह पाकिस्तान से बर्दाश्त नहीं होता। हम साथ मिलकर रह रहे हैं, रह सकते हैं, यही पाकिस्तान की पीड़ा है। कश्मीर भारत का सांस्कृतिक परम्परा का अविछिन्न अंग है। हमारे तीर्थ, पर्व, मंदिर, देवस्थल सब यहां हैं। अमरनाथ और वैष्णो देवी से लेकर शंकराचार्य के मंदिर यही कथा कहते हैं। यह क्षेत्र ऋषि-मुनियों की तपस्या स्थली रहा है।
 
लेकिन अलगाववादियों के अपने तर्क हैं। उन्होंने बंदूकों, अपहरणों, दुराचारों, लूट और आतंक के आधार पर इस इलाके को नरक बनाने की कोशिशें कीं, किन्तु हाथ क्या लगा? आज भी वहां एक चुनी हुई सरकार है, जिसमें भारत का एक राष्ट्रवादी दल हिस्सेदार है। यह साधारण बात नहीं है कि घाटी में भाजपा को वोट नहीं मिले, यह गहरे विभाजन का संकेत है। यह बात बताती है कि एक खास इलाके में किस तरह से लोगों को राष्ट्र की मुख्यधारा से काटकर देश के खिलाफ खड़ा कर दिया गया है। इस मानसिकता को पालने-पोसने और विकसित करने के यत्न निरन्तर हो रहे हैं। 
 
भारत के खिलाफ आतंकी गतिविधियां चलाने वालों को समर्थन देने वाले तत्व आज भी घाटी में मौजूद हैं। भारतीय सेना पर पत्थर फैंकना इसी मानसिकता का परिचायक है। ऐसे असुरक्षित वातावरण में जहां पुलिस और सेना के लोग पत्थर खा रहे हों, मार दिए जाते हों, वहां मु_ी भर कश्मीरी पंडित किस भरोसे और विश्वास पर बसेंगे? निश्चय ही यह अलगाववादियों की पीड़ा है कि उन्होंने कितने जतन और षड्यंत्रों से कश्मीरी पंडितों को यहां से भगाया और वे फिर यहां बस जाएंगे। अलगाववादी वही लोग हैं जो भारत से आजादी चाहते हैं और पाकिस्तानी हुक्मरानों के तलवे चाटते हैं।
 
शुरू कीजिए पाक अधिकृत कश्मीर की मांग
कश्मीर की आजादी का सवाल उठाने वाले लोग अब यह अच्छी तरह समझ चुके हैं कि उनकी हसरत पूरी नहीं हो सकती। भारत के लोग कभी यह होने नहीं देंगे। राजनीतिक पहलकदमी से परे हिंसक आंदोलन चलाने वाली ये ताकतें भारत के खिलाफ कश्मीरी मानस में जहर भरने का काम निरन्तर कर रही हैं। भारत सरकार भी इनके प्रति नरम रवैया अख्तियार करती रही है। 
 
जाने किस कूटनीति के चलते भारत ने पाक अधिकृत कश्मीर के बारे में बात करनी बंद कर रखी है, जबकि भारत की सरकार को प्रखरता से आजाद कश्मीर (पाक अधिकृत कश्मीर) के बारे में बात करनी चाहिए। कश्मीर घाटी ही नहीं, हमें पूरा कश्मीर चाहिए, यही इस संकट का वास्तविक समाधान है। 
 
कश्मीर में जो हुआ उससे पूरी इंसानियत शॄमदा है। सरकार को चाहिए कि ऐसे मानवता विरोधी आतंकियों की पड़ताल कर उनके खिलाफ, उनके मददगारों के खिलाफ मामले खोले और नए सिरे से कार्रवाई प्रारम्भ करे। जिन कश्मीरी पंडितों के घरों पर कब्जे करके लोग बैठे हैं, उनके कब्जे हटाए जाएं। भारत की आजादी के बाद शायद यह सबसे बड़ा विस्थापन था, जिसमें 65 हजार कश्मीरी पंडितों को अपना घर छोडऩा पड़ा। भारत और राज्य की सरकार की यह जिम्मेदारी है वे गुनहगारों को कतई माफ  न करें। 
 
यहां सिर्फ सेना ही है भारत के साथ
आज चारों तरफ से एक ही आवाज आती है कि घाटी से सेना को हटाओ। सवाल यह उठता है कि क्या सेना को हटाने से कश्मीर में आया अमन-चैन रह पाएगा? क्या इस हिस्से में पुन: आतंकी शक्तियां हावी नहीं हो जाएंगी? लोकतंत्र के मायने मनमानी नहीं होते किन्तु कश्मीरी अलगाववादियों ने इस राज्य को बहुत नुक्सान पहुंचाया है। 
 
अहमद शाह गिलानी की लंबी हड़तालों, प्रदर्शनों ने राज्य की अर्थव्यवस्था को तो चौपट किया ही है, लोगों को जान-माल के खतरे भी दिए। ऐसे नेताओं से लोग अब ऊब चुके हैं। गिलानी भी अब बूढ़े हो चुके हैं और कश्मीर को भारत से अलग करने का उनका सपना अब तो पूरा होने से रहा। एक चुनी हुई सरकार अब कश्मीर में है। जरूरत इस बात की है कश्मीर को विकास के मोर्चे पर आगे लाकर खड़ा किया जाए। 
 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी निरन्तर कश्मीर के सवाल को अपनी प्राथमिकता में रखा है। तमाम आलोचनाओं और राजनीतिक मजबूरियों के बावजूद इस राज्य में मुफ्ती सरकार के साथ गठजोड़ किया। 
 
ये संकेत बताते हैं कि भारत सरकार इस राज्य के विकास में रोड़े अटकाना नहीं चाहती, किन्तु इस पूरे खेल में सिर्फ लेना ही नहीं चलेगा। यह संभव नहीं कि भारत की सरकार आपके हर दर्द में साथ खड़ी हो और आप पाकिस्तान के झंडे लहराएं। 
 
कश्मीर के अलगाववादी तत्वों को साफ संदेश देने की जरूरत है कि वे आतंक, हिंसा, खून-खराबे, पत्थर फैंकने जैसे सारे हथियार आजमा चुके हैं अब उन्हें चाहिए कि वे लोकतंत्र की खुली हवा में लोगों को सांस लेने दें। ऐसे हालात बनाएं कि सेना बैरकों में जा सके। 
 
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