मोदी की छवि को आहत करते उनके ‘मुंहफट मंत्री’

Saturday, Apr 11, 2015 - 01:12 AM (IST)

(हरि जयसिंह): हम उन कुछ नेताओं की बीमार मानसिकता से कैसे निपटें जो दुर्भाग्यवश सार्वजनिक जीवन में उच्च पदों पर आसीन हैं? यह चिकित्सा विज्ञान विषय नहीं क्योंकि यह मानसिक बीमारी मुख्यत: उस राजनीतिक अपरिपक्वता की आधारशिला है जो खून में रचे-बसे पूर्वाग्रहों और कुंठाओं में से पैदा होती है। महिलाओं के मामले में तो यह विकृत मानसिकता विशेष रूप में  क्या इसलिए सक्रिय होती है क्योंकि हमारा समाज अभी भी 18वीं शताब्दी के सामंतवादी व्यवहार और कर्मकांड की जकड़ में है?

एक प्रकार से आज भी भारत एक सामाजिक ज्वालामुखी होने के आभास देता है जो कभी सुसुप्त तो कभी सक्रिय हो जाता है लेकिन इसके अंदर की ज्वाला तो हर समय धधक रही होती है। पूर्वाग्रहों, असमान्ता और भेदभाव के इस विस्फोटक तंत्र में सबसे सक्रिय भूमिका ‘प्रशिक्षित अनपढ़ों’ का वह वर्ग अदा करता है जो अपने चापलूसों की संगत में ‘लुच्ची’ बातें करके बहुत आनंद लेता है।
 
पुरुषवादी और नस्लवादी बदजुबानी की सबसे ताजा उदाहरण गिरिराज सिंह ने प्रस्तुत की है जिन्होंने अभी गत वर्ष ही मोदी की आलोचना करने वालों को पाकिस्तान भेज देने की धमकी दी थी। अब वह मोदी मंत्रिमंडल में केन्द्रीय मंत्री हैं। 
 
जब वह कह रहे थे कि यदि राजीव गांधी ने गोरी चमड़ी वाली सोनिया की बजाय किसी नाइजीरियाई महिला से शादी की होती तो कांग्रेस पार्टी उसे अपनी नेता के रूप में स्वीकार नहीं करती, तो किसी ने इस बात को वीडियो कैमरे पर रिकार्ड कर लिया था।
 
बेशक बिना सोचे-समझे शब्दबाण छोड़ कर उन्होंने सोनिया गांधी को लक्ष्य बनाया था लेकिन इससे न केवल कांग्रेसियों को बल्कि उन अनगिनत उदारवादी भारतीयों को भी सदमा लगा है जो नैतिक मूल्यों व शालीनता में विश्वास रखते हैं और सार्वजनिक जीवन में दूसरों की भावनाओं की कद्र करते हैं। 
 
नाइजीरियाई उच्चायोग भी कोई कम आहत नहीं हुआ। फिर भी पता नहीं कैसे इस प्रकार का व्यक्ति भाजपा नीत राजग सरकार में मंत्री पद पर डटा हुआ है? इससे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि देश के अंदर और विदेश में आहत होगी।
 
 मंत्री ने बेशक जल्दी ही माफी मांग ली लेकिन फिर भी विवाद का मुद्दा यह है कि इस असुखद प्रकरण को समाप्त करने के लिए क्या क्षमा याचना पर्याप्त है? 
 
स्पष्ट है कि अन्य राजनीतिक दलों की तरह मोदी सरकार भी मंत्रिमंडल के सदस्यों का ‘ठीक और गलत’ के आधार पर आकलन करने की बजाय चुनावी राजनीति की गणनाओं को ही मद्देनजर रखती है। यानी कि मोदी जैसे प्रधानमंत्री के मामले में भी अपने दोस्तों और आलोचकों की समझदारी भरी बातों की तुलना में  इस बिहारी नेता के मुंह-फट बयान अधिक चुनावी मोल रखते हैं। बिहार भाजपा के अग्रणी भूमिहर नेता गिरिराज सिंह अपने समुदाय में बहुत जबरदस्त पैठ रखते हैं। 
 
यह सत्य है कि मुंह-फट अकेले भाजपा में ही नहीं हैं। मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी के विरुद्ध कांग्रेस नेता संजय निरुपम का जवाबी हमला भी कोई कम बद-हवास करने वाला नहीं था। 
 
एक टैलीविजन चर्चा के दौरान उन्होंने कहा : ‘‘आप कल तक ठुमके लगाती थीं और आज राजनीति में घूम रही हैं आप।’’ महाराष्ट्र के इस कांग्रेसी नेता की यह ‘ठुमके वाली’ टिप्पणी सरासर शर्मनाक थी।
 
सूक्ष्मभावी भारतीय बेशक कितने भी हताश क्यों न हों, इस देश की सड़क छाप राजनीति इसी ढर्रे पर चलती है। सपा के मुलायम सिंह यादव से लेकर ‘राजद’ नेता लालू प्रसाद यादव तथा ‘राकांपा’ प्रमुख शरद पवार सहित विभिन्न पाॢटयों के ऐसे नेताओं की लंबी सूची है जो राजनीतिक विकृतता, घोर नस्लवाद और नारी प्रति घृणा का खुलकर प्रदर्शन करते हैं। भारतीय राजनीति के भंवर में इस प्रकार के चरित्र वाले नेताओं का क्या हमारे पास कोई विकल्प है?
 
भारतीय राजनीति तंत्र को आज सबसे बड़ी समस्या यह दरपेश है कि जीवन मूल्यों का क्षरण हो रहा है और दिशाहीनता की स्थिति व्याप्त है। इस अप्रिय घटनाक्रम के लिए वे शासक ही जिम्मेदार हैं जो अवसरवादियों की सहायता और संलिप्तता से केवल ओछे हथकंडे प्रयुक्त करके किसी भी कीमत पर सत्ता पर कब्जा जमाना चाहते हैं। 
 
इस सारी उथल-पुथल और कुंठाओं के बीच ही हमें जातिगत भेदभाव, नस्लवादी दृष्टिकोण, महिलाओं के विरुद्ध पूर्वाग्रहों पर आधारित दुव्र्यवहार, भाग्यवाद तथा सामंती कर्मकांड का समूल नाश करने के लिए गंभीरता से काम करने तथा अपनी सांस्कृतिक जड़ों व नैतिक मूल्यों से जुड़ाव बनाए रखते हुए वर्तमान सामाजिक मानक अपनाने की जरूरत है।
 
यह वह क्षेत्र है जहां सोचवान लोगों और मीडिया हस्तियों के साथ-साथ ऐसे प्रेरक महानुभावों की जरूरत है जो सही समय पर सही दिशा में लोगों को चला सकें। यह काम ऐन इसी समय शुरू करने की जरूरत है। 
 
भारतीय राजनीति के ‘बीमार दिमागों’ के विरुद्ध निर्णायक युद्ध में हम मीडिया के लोग जनरल वी.के. सिंह जैसे अतिविशिष्ट लोगों के बयानों के प्रति अभी तक उचित प्रतिक्रिया विकसित नहीं कर पाए हैं, जोकि मीडिया द्वारा प्रदर्शित जोश को जानबूझ कर अपमानित करने और इसका मजाक उड़ाने के लिए ‘प्रैस्टीच्यूट’ (यानी वेश्या जैसा व्यवहार करने वाला मीडिया) जैसा ताना कसने के अभ्यस्त हैं। उन्होंने पहली बार यह शब्द एक वर्ष पूर्व प्रयुक्त किया था और तब से अनेक बार बिना किसी प्रकार के उकसावेे के इसे दोहराते रहते हैं।
 
अब विदेश मंत्रालय में राज्य मंत्री बन चुके पूर्व सेना प्रमुख ने 7 अप्रैल को ट्विटर पर लिखा था, ‘‘दोस्तो, आप प्रैस्टीच्यूट से और उम्मीद भी क्या कर सकते हैं?’’
 
पिछली बार उन्होंने यह शब्द प्रयुक्त किया तो ‘टाइम्ज नाओ’ के संपादक अर्णब गोस्वामी को लगा था कि शायद जनरल साहिब गलती से ‘ओ’ अक्षर की जगह ‘ई’ पढ़ गए हैं। वैसे जनरल वी.के. सिंह की यह अपमानित टिप्पणी किसी भी सही सोच वाले भारतीय को अमान्य होगी। 
 
सबसे परेशानी की बात तो यह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस बारे में बिल्कुल मौन हैं और कोई कार्रवाई भी नहीं कर रहे। अन्य किसी भी बात की तुलना  में मोदी सरकार के यह बड़बोले मंत्री प्रधानमंत्री की छवि को समस्त विपक्षी नेताओं से भी ज्यादा आहत कर रहे हैं।
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