कहां गया अरविन्द केजरीवाल का ‘आदर्शलोक’

punjabkesari.in Thursday, Apr 02, 2015 - 12:32 AM (IST)

(शीतला सिंह): अन्नाहजारे का आदर्शलोक व्यक्तिपरक था, यानी सारी सत्ता और व्यवस्था का नियमन, नियंत्रण यदि लोकपाल को सौंप दिया जाए तो यह जगत ईश्वर के समान होगा, सब उसकी नजर में होंगे, दिखाई ऐसा देगा जिससे लोग अभिभूत हो जाएं और यह मान लें कि इस कल्पना की ओर हमारा ध्यान ही नहीं गया। लेकिन अन्ना हजारे के सहयोगी और समर्थक अरविन्द केजरीवाल को लगा कि नहीं, उसे सामाजिक स्वरूप दिया जाए जोकि  सत्ता, व्यवस्था में भागीदारी के बगैर संभव नहीं है। बाद में अन्ना हजारे भी अपने चेले के प्रयोग से अभिभूत दिखे हालांकि वह यह मानते थे कि सारी अव्यवस्थाओं की जड़ राजनीति ही है। वह भी केजरीवाल की राजनीति के समर्थक बन गए, आशीर्वाद भी दिया और उन्हें अपने बगल बैठाया भी।

अरविन्द केजरीवाल समग्र दोषों से मुक्त जिस लोकव्यवस्था के प्रति अपने को समर्पित बता रहे थे, उसमें वह यह नहीं सोच पा रहे थे कि आखिर इस प्रयोग को नाम क्या दिया जाए। अंत में उन्हें खुद को और अपने जैसे लोगों को भी इस प्रयोग में शामिल करने की घोषणा करनी पड़ी और नाम भी दिया आप की अपनी पार्टी जो अंग्रेजी के प्रथम शब्दों को मिलाकर ‘आप’ बन गई। 
 
अरविन्द केजरीवाल और उनके साथियों द्वारा आदर्शलोक की कल्पना से प्रभावित दिल्ली ने मोदी को अस्वीकार करके 70 में से 67 विधायकों को जिताकर केवल बहुमत ही नहीं दिया, बल्कि सत्ता में भी पहुंचा दिया। लेकिन इस प्रयोग को अभी 50 दिन पूरे नहीं हो पाए कि लड़ाई उनके बीच में आरम्भ हो गई। जिन्होंने इस व्यवस्था के नीतिकार, सिद्धांत प्रदाता, नियामक, नियंत्रक बनकर पिछली चली आ रही सारी बुराइयों से मुक्त कराने के लिए पारदर्शिता, विशिष्ट हैसियत का परित्याग, सीधे जनता से जुड़ाव और जिस खुलेपन की भावना को गले लगाया था, अब उनका हश्र यह हुआ कि राजनीति के लिए दोषों से मुक्ति के बजाय आवश्यकता इस बात की पड़ गई कि  उसके उन सिद्धांतकारों को ही इससे अलग कर दिया। क्योंकि यह कल्पना तब की थी जब सत्ता स्वप्न थी जिसे पाना था और अब नई स्थितियों मेें जिसे भोगना है। 
 
इसलिए निर्णय के लिए बुलाई गई बैठक में गुंडे, बदमाश, बॉक्सर ही नियामक, नियंत्रक हो गए। वे अपनी शक्ति का प्रदर्शन करके असहमत लोगों को सबक भी सिखाने लगे और इसका समर्थन करने वाले एक को छोड़कर वे सभी लोग थे जिन्हें अगले 5 वर्षों तक अपनी स्थिति को मजबूत करके उसका भरपूर लाभ उठाना था। इसलिए व्यक्तिवाद, सर्वसत्तावाद और एक व्यक्ति में सारी नियंत्रक शक्तियां होना, दोष के बजाय गुण के रूप में परिवर्तित हो गया। इसलिए जो लोग उंगली दिखा रहे थे, दोषों से मुक्ति के पहले उन लोगों का अस्तित्व मिटाना अधिक महत्वपूर्ण हो गया। तब यही लगा कि सत्ता की राजनीति का गुण यही है कि उसमें असहमतों को दुश्मन माना जाए और उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए चुप करा दिया जाए।
 
सत्ता में रहकर एक नया राजनीतिक आदर्श वाक्य मुंह से निकला कि ‘ऐसे लोगों को तो लात मार कर भगा देना चाहिए’ और इसके लिए बाद में भी उनके मन में किसी पश्चाताप की सृष्टि नहीं हुई।
 
इसी प्रकार फिर यह सवाल उठा कि पारदर्शिता, खुलापन, विशिष्ट संस्कृति का समापन और जनता के अंग के रूप में कार्य संचालन व्यावहारिक नहीं रह गया है क्योंकि लोगों ने जीवन में इसे स्वीकार ही नहीं किया है इसलिए हमें अन्य दलों के नेताओं की भांति गाड़ी भी चाहिए, झंडा भी और सरकारी सुरक्षा भी। अपने लिए अलग समय की परिकल्पना जिसमें दूसरे की भागीदारी का निषेध होगा यानी जब आदर्श की परिकल्पनाएं हो रही थीं तो वह जैसे वास्तविकता के धरातल पर नहीं बल्कि स्वप्नलोक का विषय था। आंख खुलने के बाद असलियत दिखेगी, उसके लिए हमें अलग से व्यवस्थाएं भी करनी पड़ेंगी।
 
अब सवाल यह उठता है कि हमारे शास्त्रों में तो पहले ही यह बताया गया है कि सत्ता निरंकुशता का प्रतीक है, यह गुणों की कम, दोषों की खान अधिक है, इसलिए देखना यह होगा कि आदर्शलोक का जिन्हें हम गण मानते हैं उनकी रचना जब तक नहीं हो पाएगी तब तक घोषणाओं को अमल में लाना संभव नहीं है। लेकिन ये गण निर्मित होंगे, इसका विकास अपने आप होगा या इसमें व्यवस्थाओं का भी योगदान होगा? काल इसमें निर्णायक तत्व होगा या नहीं और जिस काल में हम नया प्रयोग करने जा रहे  हैं वह इसमें कितना सहयोगी या विरोधी होगा? मानवीय प्रवृत्तियों की भूमिका क्या होगी और इसमें बदलाव के लिए हमें क्या करना होगा? क्या शक्ति और दंड के बल पर ही यह बदलाव संभव होगा? इन प्रवृत्तियों का जन्म किन कारणों से किस प्रकार होता है, इसमें परिवर्तन कब-कब, कैसे होते हैं, इस परिवर्तन में मानवीय आकांक्षाएं जो सुख या आनंद को समर्पित हैं, आखिर वे कितनी भूमिका निभाती हैं? 
 
इस प्रकार केजरीवाल जैसे लोगों का समूह और उसके जो प्रयोग हुए थे और जिन स्वप्नों की कल्पना की गई थी वे क्या अव्यावहारिक थे और मूल भावना यही है कि सत्ता पर एकाधिकार कैसे सुरक्षित हो सकता है।

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