पंजाब आर्थिक ‘दुर्दशा’ के कगार पर

Monday, Mar 30, 2015 - 10:02 PM (IST)

(अश्विनी कुमार): भारत की खडग़-भुजा और देश के विरुद्ध पड़ोसियों द्वारा छेड़ी गई लड़ाइयों तथा आतंकवाद के विरुद्ध ढाल बन कर डटने वाले तथा हरित क्रांति का शंखनाद करने वाले पांच नदियों के प्रदेश पंजाब का ऋण के बोझ से कचूमर निकल गया है। इस स्थिति से निकलने का इसे कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा है। कभी पंजाबदेश का नम्बर-1 प्रदेश हुआ करता था, जिसके लोगअपनी बहादुरी, जिन्दादिली और पंजाबियत के नाम से परिभाषित सर्वग्राही बहुलतावाद की भावना के कारण विख्यात थे। अब इस प्रदेश का भविष्य अंधकारमय है। 

पंजाब के लगभग 70 प्रतिशत युवा नशेखोरी की गिरफ्त में हैं और बेरोजगारी की दर भी राष्ट्रीय औसत से ऊंची चल रही है। इसकी कृषि का पतन हो रहा है, जल संसाधन दूषित हो गए हैं और भू-जल स्तर तेजी से गिरता जा रहा है। प्रदूषण का उच्च स्तर और पर्यावरण का सत्यानाश इसके लोगों को खतरनाक बीमारियों की चुनौती प्रस्तुत कर रहा है। बची-खुची कसर दीर्घकालिक घटिया गवर्नैंसऔर बदलेखोरी की राजनीति द्वारा पूरी की जा रही है। 
 
इन सब बातों के बावजूद भी पंजाबी अभी तक यह असंभव उम्मीद लगाए हुए हैं कि जिन नेताओं के हाथ में उन्होंने अपने भविष्य की बागडोर थमा रखी है, वे उनके विश्वास को टूटने नहीं देंगे। लोगों की यह उम्मीद बार-बार गलत सिद्ध हो रही है। गत सप्ताह पंजाब के वित्त मंत्री द्वारा 2015-16 के लिए प्रस्तुत किया गया पंजाब का बजट यह प्रदर्शित करता है कि राज्य के भविष्य को लेकर दूर-दृष्टि और स्पष्टता की घोर कमी है, वहीं हाशिए पर जीने वाले लोगों के कल्याण के प्रति आपराधिक लापरवाही भी मौजूद है। यदि सरकारी दस्तावेजों में सामने आए आंकड़ों और तथ्यों के मद्देनजर देखा जाए तो वास्तव में तो वित्त मंत्री महोदय के प्रस्ताव बिल्कुल हीकिसी हमदर्दी और समझदारी की भावना से खाली हैं। 
 
प्रदेश की ऋण देनदारी 1.24 लाख करोड़ तक पहुंच चुकी है, जबकि अगले वर्ष के लिए राज्य की राजस्व कमाई का आकलन केवल 29351 करोड़ रुपए किया गया है, जोकि 2014-15 के 28560 करोड़ रुपए राजस्व की तुलना में केवल 3 प्रतिशत अधिक है। वेतन, पैंशन और ऋण के ब्याज  के रूप में सरकार की देनदारियों को तो टाला ही नहीं जा सकता और प्रदेश की 70 प्रतिशत राजस्व कमाई केवल इन्हीं तीन मदों के भुगतान में लग जाएगी। वार्षिक  ऋण पर ब्याज की देनदारी ही सरकारी आंकड़ों के अनुसार 9900 करोड़ रुपए आंकी गई है। इसी आधार पर 12वें वित्त आयोग के मानकों के अनुसार पंजाब आर्थिक दुर्दशा के कगार पर है। 
 
राज्य की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि क्षेत्र ही है, लेकिन इसमें 0.5 प्रतिशत की नकारात्मक वृद्धि दर दर्ज की है, जिसके चलते ऋण के बोझ से पिस रहे हजारों किसान आत्महत्याएं कर चुके हैं। गरीबों के कल्याण तथा अत्यावश्यक आधारभूत ढांचा सृजित करने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा पोषित विभिन्न योजनाओं का भी राज्य केवल इसलिए उचित लाभ नहीं उठा पाया कि अपनी कमाई में से यह न्यूनतम अनिवार्य योगदान करने में असफल रहा है। 
 
नशेखोरी की चुनौती से निपटने तथा सीमा पार से होने वाली नशीले पदार्थों की तस्करी को रोकने के लिए केवल 30 करोड़ रुपए की मामूली-सी राशि का प्रावधान किया जाना दिखाता है कि इस विकराल समस्या के प्रति सरकार का रवैया कितना कामचलाऊ किस्म का है। बजट में कहीं भी विज्ञान और टैक्नोलॉजी को बढ़ावा देने तथा पर्यावरण की रक्षा सुनिश्चित करने के लिए अर्थपूर्ण संसाधन आबंटन दिखाई नहीं देता, जबकि प्रदेश के आॢथक और सामाजिक नवीनीकरण के लिए ये चीजें बेहद जरूरी हैं। पंजाब के दक्षिणी जिलों में जलभराव की चुनौती से मुक्ति दिलाने के लिए कोई ठोस नीति दिखाई नहीं देती। अमृतसर, गुरदासपुर, फिरोजपुर के सीमांत जिलों में औद्योगिक विकास के लिए कोई सार्थक पहल सर्वथा गैर- हाजिर है। देहाती और अद्र्ध शहरी क्षेत्रों में प्रशिक्षित मैडीकल स्टाफ की अनुपलब्धता के कारण स्वास्थ्य सेवाओं का न्यूनतम वांछित ढांचा भी चरमराया हुआ है। लाखों पंजाबियों के लिए गंभीर चुनौती बन चुकी अंधाधुंध शहरीकरण की समस्या का कोई पर्याप्त हल नहीं सुझाया गया। 
 
प्रशासन के विभिन्न स्तरों पर घटिया गवर्नैंस और हेरा-फेरियों ने संभावी निवेशकों को हतोत्साहित किया है जबकि व्यापारी और कारोबारी समुदाय अत्यधिक टैक्सों तथा दमनकारी टैक्स प्रशासन के बोझ से कराह रहा है। प्रदेश के एक छोटे और मझोले औद्योगिक क्षेत्र में किसी नए निवेश की कोई संभावना दिखाई नहीं देती। 
 
इस प्रकार समूचे प्रकरण में सरकार को यह सवाल पूछना बिल्कुल तर्कसंगत है कि क्या अपनी शेष कार्यावधि में यह (1) युवाओं को रोजगार के मौके उपलब्ध करवा कर नशेखोरी से दूर  करने और (2) विनिर्माण, औद्योगिक विकास, आॢथक वृद्धि व रोजगार को बढ़ावा देने के लिए वांछित सामाजिक व भौतिक आधारभूत ढांचे के सृजन के लिए पर्याप्त कदम उठा पाएगी? (3) क्या राज्य के कुछ भागों में कैंसर जैसे रोगों से निपटने और (4) भविष्य की पीढिय़ों के लिए पर्यावरण को बचाने व हमारे किसानों को घोर कंगाली में से बाहर निकालने के लिए कोई कदम उठा पाएगी। 
 
चुनावी लोकतंत्र ने बेशक प्रदेश में लगातार अपना प्रभाव दिखाया है, लेकिन नीति-निर्धारण के मामले में विवेक बुद्धि का स्थान पूरी तरह लोक- लुभावन राजनीति ने ले लिया है और यह सारा कुछ प्रदेश की भविष्य की कीमत पर हुआ है। हमें अवश्य ही ऐसी राजनीतिक संस्कृति अपनानी होगी, जिसमें केवल सत्ता ही अपने आप में एक लक्ष्य न बन जाए। हमारे नेताओं को हृदय की विशालता प्रदर्शित करते हुए यह सिद्ध करना होगाकि उनके सामने सर्वसाधारण के कल्याण की भावनाही सर्वोपरि है।  
 
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