कांग्रेस पर सोनिया की ‘पकड़’ ढीली

Monday, Mar 30, 2015 - 10:02 PM (IST)

(पूनम आई. कौशिश): एक नेता के गुण क्या होते हैं? जन्म, अनुभव, घाघपन, कुशलता, कद, करिश्मा या जादुई गुण? यदि भाग्य आपका साथ दे तो इनमें से सभी गुण एक नेता में होने चाहिएं किन्तु यदि किसी नेता के पास इनमें से अधिकतर गुण  न हों तो क्या होगा? संगठन कमजोर हो जाता है जैसा कि लगता है सोनिया की कांग्रेस के साथ हो रहा है। 

आप इसे मधुर विडम्बना कहें या कुछ और, परन्तु भारतीय राजनीति की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस में इस समय नेतृत्व का संकट गहरा रहा है। यह इस समय अपनी सबसे कमजोर स्थिति में है। कांग्रेस के इस समय लोकसभा में 44 सांसद हैं और हिन्दी भाषी राज्यों में इसका सफाया हो चुका है और इसका एक कारण भ्रष्टाचार के महाघोटाले हैं। साथ ही इसका युवराज गायब है, पार्टी में राजनीतिक भ्रम व्याप्त है, यह संगठनात्मक रूप से कमजोर हो चुकी है, पार्टी में कार्यकत्र्ताओं का मनोबल टूटा हुआ है और अति कमजोर हुए इस संगठन को नया जीवन देने के लिए कोई नए विचार नहीं हैं। इन सबके कारण पार्टी की स्थिति इतनी नाजुक हो गई है जितनी पहले कभी नहीं थी। ऐसा लगता है कि सोनिया की पार्टी पर पकड़ ढीली होती जा रही है। 
 
यही नहीं, पहली बार कांग्रेस में यह देखने को मिल रहा है कि सोनिया की खुलेआम आलोचना हो रही है और यह कांग्रेस की दयनीय स्थिति को दर्शाता है। हाल ही में गांधी परिवार के निष्ठावान और पूर्व कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज ने कांग्रेस की इस दुर्दशा के लिए सोनिया की आलोचना की है जिन्होंने कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं पर निशाना साधते हुए कहा, ‘‘सोनिया चाटुकारों और भ्रष्ट लोगों के शिकंजे में जकड़ी हुई हैं। वे कोई भी जिम्मेदारी नहीं उठाते हैं और तब भी सब कुछ करते हैं। क्या सोनिया नहीं जानतीं कि क्या हुआ, यह क्यों हुआ और यह किसने किया’’ (2जी स्पैक्ट्रम)।
 
क्या आप यह सुनकर हैरान हैं? बिल्कुल नहीं। भारद्वाज ने ऐसा कुछ नहीं कहा जो अन्य वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं जैसे दिग्विजय सिंह, जनार्दन द्विवेदी, जी. वेंकटस्वामी, शशि थरूर और अन्य ने पहले न कहा हो। यह आलोचना अलग लगती है किन्तु सबका सार एक जैसा है। आज पार्टी अनेक संकटों का सामना कर रही है जिनमें न केवल भारी-भरकम घोटाले भी शामिल हैं अपितु पहचान और राजनीतिक रणनीति के संकट का सामना भी कर रही है। 2009 के आम चुनावों  में पार्टी ने अपने चुनावी अभियान के केन्द्र में आम आदमी को रखा था किन्तु 2015 में अब जब मोदी दिल्ली की गद्दी पर विराजमान हो गए हैं तो स्थिति बदल गई है। 
 
फिर भी सोनिया गांधी भारत के भावी राजनीतिक क्षितिज पर कांगे्रस के इन्द्रधनुष को दर्शाती हैं जबकि वास्तविकता अत्यन्त कटु है। आज पार्टी में अनेक छुटभैये नेता हैं जिन्हें केवल अपने हित दिखाई देते हैं जिसके कारण पार्टी आज व्यक्तिगत और यहां तक कि सामंती सोच कार्यशैली और दृष्टिकोण के पिंजरे में बंद हो गई है। पार्टी की नॉमिनेशन संस्कृति में वही फलता-फूलता है जो नेतृत्व के प्रति निष्ठावान होता है। 
 
यही नहीं, पार्टी में आज अनुशासनहीनता व्याप्त है। विभिन्न नेताओंं के बीच में तीखी नोक-झोंक होती है जिसके कारण किसी पर किसी का अंकुश नहीं है। राज्यों में स्थिति और भी बुरी है। पार्टी के बड़े और छोटे सभी नेता अलग-अलग दिशाओं में बढ़ रहे हैं। दिल्ली में पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित  और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय माकन के गुटों में अंतर्कलह चल रही है। यही स्थिति हरियाणा में पूर्व मुख्यमंत्री हुड्डा और विपक्ष की नेता किरण चौधरी की है। राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच टकराव है तो तमिलनाडु में चिदम्बरम समर्थक और विरोधी गुटों में तनातनी चल रही है। 
 
स्थिति को सोनिया की बेपेंंदे की चौकड़ी ने और उलझा दिया है और वह यह नहीं समझ पा रही हैं कि इस संकट से कैसे निपटा जाए। इससे न केवल कार्यकत्र्ताओं का मनोबल गिरा है अपितु पार्टी कमजोर हो रही है। कांग्रेस की ऐसी व्यवस्था में पूरी व्यवस्था अपने अन्नदाता के साथ चिपकी रहती है। एक खिन्न नेता के शब्दों में, ‘‘पार्टी में निर्णय लेने की प्रक्रिया बहुत धीमी है। यदि सोनिया जी अपनी यथास्थिति की नीति को जारी रखती हैं तो पार्टी का निश्चित रूप से बेड़ा गर्क होगा।’’
 
कांग्रेस में आज सबसे दुखद स्थिति यह है कि उसमें आंतरिक लोकतंत्र समाप्त हो गया है जिसके कारण पूरी पार्टी पूर्णत: कांगे्रस अध्यक्ष की पहल पर निर्भर हो गई है और यदि कांग्रेस अध्यक्ष पहल नहीं करती हैं तो पार्टी जड़ बन जाती है। यही नहीं, कांग्रेस नेता एक-दूसरे से आगे बढऩे का प्रयास करते हैं और प्रत्येक मुद्दे को विरोध बनाम निष्ठावान का प्रश्न बना देते हैं। आज पार्टी में ऐसे चाटुकार हैं  जो ब्लादिमिर  नोबोकोव की लोलिता से अधिक निष्ठावान हैं। सोनिया के बचाव में इनका कहना है कि वह अब सेवानिवृत्ति की ओर बढ़ रही हैं किन्तु उनके पुत्र राहुल के गायब होने के कारण उनके पास कोई विकल्प नहीं बचा है। वे सिर्फ राहुल की वापसी की प्रतीक्षा ही कर सकते हैं। हालांकि इस माह के अंत तक राहुल के राज्यारोहण की तैयारियां चल रही हैं। सोनिया के विरोधी उन्हें भारत की साम्राज्ञी कहते हैं किन्तु सोनिया हमेशा की तरह इन आलोचनाओं पर चुप्पी साधे रहती हैं।
यह सच है कि सोनिया अपनी सास इंदिरा की तरह लौह महिला नहीं हैं और लगता है कि वह आम सहमति की राजनीति में विश्वास करती हैं। उनके दृष्टिकोण को  लेकर कुछ लोग उन्हें कहते हैं कि वह असमंजस की स्थिति में हैं और कुछ लोग कहते हैं कि वे नहीं चाहते कि उनकी नैया डगमगाए और कुछ लोग इसे स्मार्ट राजनीति कहते हैं। 
 
यदि किसी नेता को जाने-अनजाने अपने निष्ठावान मिल जाते हैं तो वे अपने आप ही पार्टी के कार्यकत्र्ताओं में आम सहमति बनाने का प्रयास करते हैं और ऐसा समझा जाता है कि ये विचार कांग्रेस के वृहद् परिवार से आ रहे हैं। सोनिया में अत्यधिक धैर्य है जो अपने नेताओं को अपने साथ बांधे रखती हैं किन्तु कुछ वर्ष पूर्व तेल के बदले खाद्यान्न घोटाले में गांधी परिवार के पुराने निष्ठावान नटवर सिंह का कांग्रेस से निष्कासन बताता है कि सोनिया कमजोर नेता नहीं हैं और वह स्थिति के अनुसार कठिन निर्णय ले सकती हैं और कांग्रेस की त्रासदी भी यही है कि कांग्रेसी गांधी परिवार से इतने चिपके हुए हैं कि उन्हें कोई बाहरी स्वीकार्य नहीं है और इसी कारण कांग्रेस में आज चाटुकारिता कूट-कूट कर भरी हुई है फलत: कोई नए विचार सामने नहीं आते और हर कोई पार्टी की साम्राज्ञी को खुश करने का प्रयास करता है।
 
जरा देखिए। कांग्रेस नेता इस तरह राहुल की वापसी का इंतजार करते हैं कि मानो उनके पास जादुई छड़ी हो और उस छड़ी को घुमाकर वह पार्टी को फिर से भारतीय राजनीति के शीर्ष पर ले जाएंगे। यह और भी विडम्बनापूर्ण है कि कांग्रेसी कहते हैं कि पार्टी में पहल या प्रतिभा की कमी नहीं है किन्तु ऐसे नेताओं को पार्टी के विकास में योगदान देने के लिए नहीं कहा जाता है। यही नहीं, पार्टी के अनेक महासचिव और राज्यों के पर्यवेक्षक अपने हितों को साधने और अपने निष्ठावान नेताओं को तैयार करने में इतने व्यस्त हैं कि पार्टी के विकास की अनदेखी हो जाती है। फिर पार्टी का भविष्य क्या है? आज पार्टी ऐसी स्थिति में पहुंच गई है कि उसे इस प्रश्न का उत्तर देना होगा कि चलना है पर कहां। 
 
Advertising