अर्जुन के तीरः आज़ाद भारत की व्यवस्था के गहरे जानकार थे भगत सिंह !

Monday, Mar 23, 2015 - 04:05 AM (IST)

(अर्जुन शर्मा) दिन 9 सितंबर, वर्ष 1928, स्थान फिरोजशाह कोटला, नई दिल्ली। भारत के विभिन्न राज्यों में कार्यरत क्रांतिकारी देश की आज़ादी को लेकर भविष्य की योजनाबंदी के लिए राष्ट्र स्तरीय नीति बनाने को लेकर एकत्रित थे। बैठक का आगाज़ सरदार भगत सिंह ने इन शब्दों के साथ किया, ‘‘आज़ादी हमारा मकसद नहीं है।’’ चारों तरफ सरगोशियां होने लगीं। यहां तक कि भगत सिंह के नज़दीकी साथी सुखदेव ने भी उन्हें टोका, ‘‘यह क्या कह रहे हो भगत!’’ भगत सिंह अपनी बात को जारी रखे रहे, ‘‘सिर्फ आज़ादी हमारा मकसद नहीं है। आज़ादी का मतलब क्या है? क्या यही आज़ादी का मकसद है कि हुकूमत अंग्रेज़ों के हाथों से निकल कर मुट्ठी भर रईस और ताकतवर हिंदोस्तानियों के हाथ में चली जाए? गोरे साहिब की जगह पर भूरे साहिब बैठ जाएं? क्या यही आज़ादी होगी? क्या इस आज़ादी से आम आदमी की जि़ंदगी में कोई फर्क आएगा? क्या मज़दूर और किसान वर्ग के हालात बदलेंगे? उन्हें उनका सही हक मिलेगा? नहीं। आज़ादी सिर्फ पहला कदम है, कामरेडस। मकसद है वतन बनाना। एक ऐसा वतन जहां हर तबके के लोगों को बराबरी से जीने का हक मिले। जहां मजहब के नाम पर समाज में बटवारा न हो। एक ऐसा वतन, जो इन्सान पर इन्सान का ज़ुल्म बर्दाश्त न करे।’’ 

बंगाल से आए फोनीश्वर नामक क्रांतिकारी ने भगत सिंह को टोका, ‘‘यह कोरी औदर्शवादी कौल्पना है भौगत सिंह।’’ भगत सिंह का जवाब था, ‘‘ये मुश्किल तो है फोनी दा, पर असंभव नहीं है। ये ठीक है कि जिस देश में इतनी सारी भाषाएं, जातियां व कल्चर है उसे जोड़ कर रखना कोई आसान काम नहीं लेकिन यदि इस समस्या को हम आज नहीं समझेंगे व इसको लेकर आज से ही संघर्ष नहीं करेंगे तो हिंदोस्तान कल एक आज़ाद मुल्क तो होगा लेकिन भ्रष्ट, शोषक व साम्प्रदायिक समाज बन कर रह जाएगा।’’ 

इसी बैठक के बाद समाजवाद को मुख्य रख कर हिदोंस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच.आर.ए) का नया नामकरण हुआ, हिदोंस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन। इसी दिन सारे देश के क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जंग का ऐलान किया था। क्या दूरदृष्टता थी भगत सिंह में, जो 87 साल पहले आज़ाद भारत की आने वाली व्यवस्था की कल्पना करके उसके हल के लिए भी उतने ही सावधान थे जितने कि आज़ादी लेने को लेकर संघर्षशील। पर ये बात कहने के तीन साल के भीतर ही सरदार भगत सिंह, शहीद-ए-आज़म हो गए। और उनके साथ ही उनके इन विचारों ने पुस्तकों में जाकर शब्द समाधि ले ली। 

आज के भारत की बात करें तो ये सोच कर भी झुरझुरी होती है कि कैसे हमारे कर्णधार उसी अंग्रेज़ की व्यवस्था को  पिछले अठासठ साल से मक्खी पर मक्खी मार कर चला रहे हैं। आई.सी.एस को आई.ए.एस का नाम दे दिया, बस हो गई छुट्टी। वैसे ही डिप्टी कमिश्नरों, कमिश्नरों के कई कई एकड़ के बंगले हैं, जैसे अंग्रेज़ अफ्सरों के हुआ करते थे। 

भगत सिंह जिस समाज के दबे कुचलों के हकों की बात करते थे उन्हें तो पेट भरने के लिए मुहावरों को नए सिरे से घडऩा पड़ रहा है। घर की मुर्गी दाल बराबर वाली बात के भी मायने बदल गए हैं क्योंकि मुर्गी सस्ती है और दाल महंगी हो गई है। आटा 13 रुपए से 22 रुपए हो गया? कोई तर्क भी नहीं देता! कोई जवाब नहीं देता! गन्ने की पिछले साल की फसल पर क्या चीनी मिल वालों ने किसान को घर बैठे बैठे ही उनके ‘बोनस’ की दूसरी किस्त जारी कर दी थी जो चीनी 29 रुपए से उछल कर 40 तक जा पहुंची! सभी खामोश हैं? और दाल को किसकी नज़र लग गई। 50 रुपए से नब्बे रुपए तक कीमतें जा पहुंची! पिछे रही सरकार का कृषि मंत्री ही बिना किसी तर्क के खाद्य पदार्थों के भाव बढऩे की विधिवत घोषणा कर देता रहा और ‘देश के सारे जमाखोरो एक हो जाओ’ के नतीजे से कीमतों में लगातार उछाल आने लगा पर कहीं कोई कुछ नहीं बोलता! सब गूंगे हो गए। शायद इसलिए कि जनता कुछ नहीं बोल रही। जनता बोले भी तो क्या बोले, कैसे बोले? उसकी जुबान तो अंग्रेज के उस सिस्टम ने बंद कर रखी है जो गुलामों को दबाने के लिए बनाया था जिसे भूरे साहबों ने पूरी तरह से धूप बत्ती देकर किसी पवित्र ग्रंथ की तरह संभाल कर रखा हुआ है। 

समाजवाद लाने वाले इस विचार का गौना सीधा अपने ही घर ले जाने में लगे हैं ताकि भाई-बेटे भतीजे के बाद बहुरिया को भी समाजवाद का प्रसाद चखा दिया जाए। जाति पर अभिमान करने का पाठ पढ़ाने वालों के बुत ही खत्म नहीं हो रहे। किसान मज़दूरों के नेता सारी जि़ंदगी किसी अफ्सर के बीवी को घर पर रखे रहे और उम्र के आखिरी दौर में उनकी असली बीवी के लोगों को दर्शन हुए। 

कल्पना कीजिए कि यदि इन हालात को देखने के लिए भगत सिंह जीवित बचे होते तो क्या करते। अंग्रेका शासन के लिए कयामत का प्रतीक बन जाने वाले भगत सिंह कोयले की लूट मचाने वालों, दूरसंचार में लाख करोड़ की हेराफेरी करने वालों, कामनवैल्थ खेल के बजट को पूरी बेशर्मी से लूट लेने वालों से, रेत बजरी को तकडिय़ों से तौल देने वालों से कैसे लड़ते? भगत सिंह भगत सिंह के प्रशंसक के नाते मुझे तो यही लगता है कि उन्हें फांसी पर चढ़ा कर अंग्रेज़ एक प्रकार से उन पर उपकार ही कर गए। उन्हें सरदार भगत सिंह से शहीद-ए-आज़म भगत सिंह बना कर सदा के लिए जि़ंदा कर दिया। यदि वे आज जि़ंदा होते तो इस आकााज  इस आकााद भारत के हालात देखते हुए शायद खुद ही गले में फंदा डाल कर अपनी गर्दन लंबी कर गए होते और....पुलिस की रपट में लिखा जाता...एक भगत सिंह नाम का बेहद कृश्काय बुजुर्ग पारिवारिक कारणों के चलते आत्महत्या कर गए और...पुलिस की फाईल बंद कर दी जाती।

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