इटली के पनीर उद्योग की ‘रीढ़ की हड्डी’ हैं सिख आप्रवासी

Saturday, Mar 14, 2015 - 02:13 AM (IST)

(मिथिला फड़के): रात आधी से अधिक बीत चुकी थी जब उत्तरी इटली के पैस्सिना क्रैमोनीज कम्यून के डेयरी फार्म में ओंकार सिंह ने प्रवेश किया। कतारों में बंधी फ्रीशियन गायों ने सिर हिलाते हुए उनका स्वागत किया, हालांकि उस समय पर उन पर भी कुछ हद तक नींद हावी थी। बुजुर्ग अवस्था को पहुंच चुके ओंकार सिंह इन गायों को निहारते हैं, पाइप से पानी डाल कर उन्हें नहलाते हैं और दूध दुहने की ऑटोमैटिक प्रणाली चालू करते हैं। यह काम करते-करते सूर्योदय हो जाता है। 
 
यह बहुत थका देने वाला काम है और ओंकार सिंह भली-भांति जानते हैं कि अधिकतर इटैलियन ऐसा काम करना पसंद नहीं करते। उनका कहना है, ‘‘इटैलियन लोगों की नजरों में यह गंदा काम है और उनके पास ऐसे काम के लिए समय नहीं। मध्य रात्रि में गहरी नींद से कौन जागे और भीगे कपड़ों से काम कौन करे?’’ पंजाब से गए आप्रवासियों की प्रथम पीढ़ी के लिए यही काम बेहतर जिन्दगी की  सीढ़ी साबित हुआ। 
 
जैसे ही ओंकार सिंह का दिन का काम खत्म होने पर आता है, इन्द्रजीत सिंह बैंस का दिन शुरू हो जाता है। वह पैस्सिना क्रैमोनीज की एक पनीर फैक्टरी में काम करता है और क्षेत्र के डेयरी फार्मों से दूध इकठ्ठा करने के लिए रोजाना ट्रक के दो ‘गेड़े’ लगाता है। बैंस ने फैक्टरी में मशीनों के बड़े-बड़े ड्रमों में मथे जा रहे दूध में से क्रीम निकालते हुए कहा, ‘‘जब मैं पहली बार इटली आया तो मैं फॉरमैग्गियो (पनीर के लिए इतालवी शब्द) बनाने वालों के साथ काम नहीं करना चाहता था।’’
 
ओंकार सिंह और बैंस इस इलाके  में बसे हुए अनेकों सिख आप्रवासियों में शामिल हैं, जो डेयरी फार्मों और इटली के  प्रसिद्ध ‘पार्मीज्ञानो रेजिआनो’  और ‘ग्रैना पदानो’ पनीर बनाने वाली फैक्टरियों में काम करते हैं। वे गऊओं का दूध दुहते हैं, पनीर का पानी छानने के बाद पनीर को सांचों में पैक करते हैं और जमे हुए पनीर के ‘चक्के’ मजबूत लकड़ी के बने रैकों पर सजाते हैं। 
 
जब काम की लंबी अवधि और कठोर परिश्रम ने स्थानीय श्रमिकों को ‘व्हाइट कालर’ कामों की ओर धकेल दिया तो सिख आप्रवासियों ने फटाफट उनकी जगह संभाल ली। एक नए वृत्तचित्र ‘सिख फॉरमैग्गियो’ में यह दिखाने की कोशिश की गई है कि किस प्रकार यह समुदाय इस इलाके के पनीर उद्योग के लिए अब अत्यंत महत्वपूर्ण बन चुका है। इस वृत्तचित्र की निर्देशक केटी वाइज ने बताया कि इतालवी पनीर उद्योग को सिखों के योगदान के संबंध में अखबार में एक आलेख पढ़ कर उन्हें इस परियोजना की प्रेरणा मिली। 
 
लेकिन केटी वाइज और उनके सह निर्देशकों देव्यन बिस्सन व डैन ड्यूरन को जल्दी ही यह महसूस हो गया कि उनके पास शुरूआत करने के लिए एक अखबारी आलेख के सिवाय और कुछ भी नहीं है। उन्होंने इलाके की भाषा समझने वाले एक यूनिवर्सिटी विद्यार्थी के माध्यम से पनीर फैक्टरियों को कुछ टैलीफोन कालें कीं लेकिन इनका कोई नतीजा न निकला। कुछ फैक्टरी मालिकों ने तो बस उनकी एक-दो बातें सुनकर ही फोन बंद कर दिए। जबकि शेष को कुछ सूझ नहीं रहा था कि वे कैसे उनकी सहायता कर सकते हैं?
 
 लेकिन इन प्रयासों से उन्हें एक ऐसा सिख मिला जो इस उद्योग में तो कार्यरत नहीं था, लेकिन उसने विश्वास दिलाया कि वह उन्हें ऐसे लोगों को मिलवाएगा जो इस उद्योग में काम करते हैं, लेकिन ऐसा वह तभी कर पाएगा जब वे वास्तव में इटली में पहुंच जाएंगे। 
 
फिल्म निर्माता दल के सदस्य जिन्होंने कि मुश्किल से अभी-अभी किशोर अवस्था पार की थी, विमान पर इस आशा से सवार हुए कि उन्हें फिल्म बनाने के लिए किसी न किसी तरह काफी सामग्री मिल जाएगी। यह एक जुआ था, जिसका उन्हें काफी लाभ हो सकता था। 
 
सिख समुदाय के लोग गत काफी वर्षों से यहां कृषि मजदूरों के रूप में कार्यरत हैं। लेकिन पनीर उद्योग की रीढ़ की हड्डी केवल 90 के दशक में ही बने थे। पैस्सिना क्रैमोनीज में आप्रवासियों की संख्या अब 16 प्रतिशत है। इनमें से अधिकतर भारतीय हैं। 2011 में इस क्षेत्र में एक गुरुद्वारे का निर्माण हुआ, जो इस बात का सूचक है कि सिख समुदाय का महत्व पहले से कितना बढ़ गया है। वृत्तचित्र में क्रैमोना के मेयर ने कहा, ‘‘उन्होंने सही अर्थों में हमारी अर्थव्यवस्था को बर्बाद होने से बचा लिया है।’’
 
‘सिख फॉरमैग्गियो’ वृत्तचित्र में जिन सिखों का साक्षात्कार लिया गया, उन्होंने बताया कि अब वे अपनाई हुई नई भूमि में पूरी तरह रच-बस गए हैं। लेकिन अभी तक उन्हें अपने संघर्ष के पुराने दिन नहीं भूले। इस संघर्ष का मूल बिन्दू यह था कि अपने परम्परागत रीति-रिवाजों को बचाते हुए पश्चिमी जीवन शैली से कैसे सामंजस्य बिठाना है। ओंकार सिंह जब इटली में नए-नए आए तो उन्हें यहां पैर जमाने के लिए अपने केश कटवाने पड़े। कुछ वर्षों बाद जब उनकी जिन्दगी पटरी पर लौट आई और काम भी अच्छा चल पड़ा तो स्थिति बदल गई। तब उन्होंने फिर से अपने केश धारण  कर लिए और पगड़ी बांधनी शुरू कर दी। 
 
इटली की वैरोना यूनिवर्सिटी में विदेशी भाषाओं और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का अध्ययन कर रही उनकी बेटी जसपिन्द्र ने बताया कि ऐसा उनके पिता जी ने तब किया जब उन्हें लगा कि अब कोई भी उन्हें देखकर भयभीत नहीं होगा और न ही उन पर कोई अभद्र टिप्पणी कसेगा। 
 
ओंकार सिंह ने कहा कि उनके बच्चे जैसी शिक्षा हासिल कर रहे हैं, उससे यह सुनिश्चित हो जाएगा कि उन्हें फार्मों और फैक्टरियों में काम  नहीं करना पड़ेगा। यानी कि सिख आप्रवासियों की अगली पीढ़ी इटली के श्रमिकों की तरह ही ‘व्हाइट कालर’ कामों की ओर चली जाएगी। इस बात की संभावना से ‘फॉरमैग्गियो’ विनिर्मातकों को एक बार फिर श्रम शक्ति की अनुपलब्धता का भय सताने लगा है।    
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