बलात्कारियों को समाज में ‘जीवित’ रहने का कोई हक नहीं

Friday, Mar 06, 2015 - 02:02 AM (IST)

(पूरन चंद सरीन) हर साल की तरह 8 मार्च को अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाएगा। वैसे देखा जाए तो ये जो राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय दिवस होते हैं इनका महत्व केवल इतना है कि कुछ लोग एक जगह जमा हो जाएं, भूली-बिसरी यादों को ताजा कर लें और फिर कभी न पूरे होने वाले कार्यक्रमों की भारी-भरकम रूपरेखा बना लें और किसी अन्य विषय पर मनाए जाने वाले दिवस का इंतजार करने लगें।

इस बार बी.बी.सी. द्वारा प्रसारित डाक्यूमैंटरी को लेकर जितनी चिन्ता नेताओं से लेकर एक्टीविस्टों तक में दिखाई दी, वह एक भ्रम के अलावा कुछ नहीं है क्योंकि यह सच्चाई है कि कितना भी ढोल पीट लिया जाए, व्यवस्था के चेहरे पर न तो कोई शिकन आने वाली है, न कानों पर जूं रेंगने वाली है और न ही कमजोर महिला हो या पुरुष, उसका उत्पीडऩ रुकने वाला है। इसी के साथ यह भी कि न ही दोषी कोजल्दी सजा मिलने की उम्मीद जगेगी, मतलब सब कुछ वैसा ही चलता रहेगा जैसा अब तक चलता आया है।

यहां प्रासंगिक है निर्भया की मां का यह कहना, ‘औरतें प्लेट पर रख कर खा जाने वाली कोई चीजें हैं क्या?’ अगर निर्भया के बलात्कारियों को फांसी की सजा दिए जाने पर तुरंत सूली पर लटका दिया जाता तो एक सुखद आश्चर्य होता और जो वकील उनकी पैरवी कर रहे थे उनकी आत्मा उन्हें झकझोर देती कि उन्होंने उन लोगों के बचाव में अपनी ऊर्जा नष्ट की जिन्हें समाज में रहने का कोई हक ही नहीं है।

बलात्कारियों को अब तक जितनी भी सजाएं दी हैं उन पर जल्दी अमल न होने का ही नतीजा है कि हमारे देश में औसतन हरेक 21 मिनट में बलात्कार की एक घटना हो जाती है।

भ्रष्टाचार और बलात्कार का परिणाम क्या हो सकता है, यह समझने के लिए एक उदाहरण काफी होगा। पाकिस्तान के एक हिस्से पूर्वी पाकिस्तान के अलग होने और बंगलादेश का जन्म होने  के पीछे सबसे बड़ा कारण यह था कि पाकिस्तानी सेना मार्शल लॉ अधिकारियों और नागरिक प्रशासन के चक्कर में लिप्त होकर बहुत भ्रष्ट हो चुकी थी। पाकिस्तानी सेना अपनी व्यावसायिक सैनिक परंपराओं से भटक गई थी। वे अपनी ट्रेनिंग की अनदेखी कर चुके थे। सीमान्त इलाकों में सुंदर लड़कियों का अपहरण कर उनसे बंकरों में बलात्कार करने, लूटपाट मचाने और कानून तथा नियमों को तोडऩे-मोडऩे में पाकिस्तान सेना माहिर थी।

अपनी रिपोर्ट में रणजीत सिंह, आई.जी. बी.एस.एफ.. शिलांग ने युद्ध समाप्ति के बाद युद्ध क्षेत्र के दौरे के बाद अपनी रिपोर्ट में लिखा कि पाकिस्तानी सेना के जवान अच्छे लड़े लेकिन अफसर फेल हो गए। पाकिस्तानी सेना के अफसर, सैनिक कम शासक ज्यादा बन गए थे। हमारे अफसरों की तुलना में  पाकिस्तानी सैनिक अफसर घटिया निकले। भारत के एयर मार्शल दीवान ने लैफ्टिनैंट जनरल नियाजी से कुछ घंटे बात करने के बाद कहा था कि उसकी सैनिक दक्षता एक लैफ्टिनैंट कर्नल से ज्यादा ओहदा प्राप्त करने की नहीं थी। अफसर ढीले-ढाले और ऐश भरी जिन्दगी जीने के आदी हो चुके थे। युद्ध के लिए तैयार नहीं थे।

कुरीग्राम में उन्होंने अपने बंकरों में पंखे लगा लिए थे। आठग्राम में एक मेजर कंक्रीट बिल्डिंग में मजबूत बंकर में रहता था ताकि मोर्टार और तोपखाने की शैलिंग का उस पर कोई प्रभाव न हो। जनरल टिक्का खां के समय में ज्यादातर अफसरों ने अपने साथ लड़कियां रखी थीं।

25 मार्च, 1971 की रात में सेना ने ढाका विश्वविद्यालय पर हमला किया और लड़कियों के हॉस्टल से लड़कियों को अपनी छावनियों में ले गए। युद्ध समाप्ति के बाद ये लड़कियां अफसरों के बंकरों और बंगलों से बरामद की गईं।

कन्या के प्रति भेदभाव
भारतीय समाज में आज भी कन्या जन्म पर अफसोस करने, उसकी पढ़ाई-लिखाई में ज्यादा रुचि न दिखाने, जल्दी से जल्दी उसकी शादी कर देने और उसका जन्म ही न हो इसके लिए ङ्क्षलग परीक्षण से लेकर भ्रूण हत्या तक कर देने की परम्परा जगजाहिरहै। आखिर ऐसा क्यों है कि हमारे देश में ऐसे माता-पिता बहुत कम होते हैं जो बेटे और बेटी को एक समान समझते हैं, उनके पालन-पोषण में भेदभाव नहीं करते और बेटी की तरक्की से भी उतना ही खुश होते हों जितना बेटे की। आज भी सम्पत्ति के बंटवारे में बेटी का हिस्सा देने की बात तो छोडि़ए, इस बारे में सोचना भी वक्त बर्बाद करना समझते हैं।

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