‘आप’ की जीत ने समाज के सभी वर्गों में ‘उम्मीद’ जगाई

Thursday, Mar 05, 2015 - 01:58 AM (IST)

(सुरेश ज्ञानेशरण) दिल्ली के चुनाव में आम आदमी पार्टी (आप) की जीत ऐसी स्थिति में देश के लिए बहुत ही शुभ शगुन है जब अल्पसंख्यक अपने बचाव के लिए छिपने की जगह ढूंढ रहे हैं और दलित प्रत्यक्षत: आक्रोश में हैं। आंतरिक नीति का मामला हो या विदेश नीति, भाजपा के प्रोग्राम और एजैंडे में कुछ भी नया नहीं था जिसे लफ्फाजी और मंच प्रबंधन से बढ़कर कुछ अन्य कहा जा सकता। इस चुनाव से भाजपा की राष्ट्रीय सरकार बेशक 8 माह से भी अधिक पहले अस्तित्व में आई थी लेकिन नए भारत के निर्माण के धुआंधार वायदों को व्यावहारिक रूप में पूरा करने के संबंध में इसने कुछ भी नहीं किया था। बस ‘नई बोतलों में पुरानी शराब’ ही थी जो धीरे-धीरे उन भारतीय नागरिकों के मन-मस्तिष्क पर भी असर करती जा रही है जो पढ़े-लिखे हैं और भाजपा के दंभ को समझते हैं।

लेकिन क्या ‘आप’ की विजय सचमुच ही एक निर्णायक मोड़ है जैसा कि मीडिया विशेषज्ञ दुहाई दे रहे हैं? या यह राजनीतिक तंद्रा और अवहेलना के अंतरालों के बाद भारतीय जनतंत्र की दस्तक की सूचक है? भारतीय जनतंत्र और इसकी परिपक्व गुंजायमानता सर्वविदित है। देश के नागरिक कांग्रेस की चाल को समझ गए थे और किसी बदलाव के लिए हताश थे। ऐन ऐसी स्थिति में राजनीतिक क्षितिज पर मोदी प्रकट हुए और लोगों ने उनमें विश्वास व्यक्त किया। प्रधानमंत्री के तौर पर उनकी काबिलियतआंकने के लिए 8 माह का अंतराल बहुत कम है। फिर भी घरेलू और विदेशी नीतियों के मोर्चे पर जो संकेतमिल रहे हैं वे  सिर्फ यह सिद्ध करते हैं कि कांग्रेस युग की नीतियों का केवल बाहरी शृंगार ही बदलाहै और समूचे तौर पर यथास्थिति ही जारी है- वही भ्रष्टाचार, सामंतवादी आडंम्बर और स्वप्रदर्शन की नौटंकी।

आडम्बर भरी राजनीतिक संस्कृति बहुत ऊबाऊ बन चुकी थी और देश के नागरिक नाउम्मीदी की दलदल में से निकलने के लिए कांग्रेस की दादागिरी को चुनौती देने वाले किसी भी आंदोलन के स्वागत के लिए तैयार थे। ‘आप’ की रोमांचक आभा और गैर-परम्परावादिता के साथ-साथ इससे संबंधित लोगों की गुणवत्ता ने पढ़े-लिखे युवकों, मध्य वर्गों, अल्पसंख्यकों, दलितों और अन्य सभी प्रकार के उपेक्षित लोगों को आकर्षित किया। ‘आप’ का आकर्षण सार्वभौमिक था। यदि इससे पहले भाजपा और कांग्रेस के पक्ष में मतदान करते लोगों ने अपनी वफादारियां बदल कर ‘आप’ से जोड़ ली हैं तो इसमें हैरान होने की कोई बात नहीं।

आलोचकों का कहना है कि ‘आप’ का आकर्षण दीर्घकालिक नहीं क्योंकि इस पार्टी के पास विचारधारा नाम की कोई चीज नहीं। आखिर विचारधारा किस बला का नाम है? यह ‘‘उन अचेत और सचेत विचारों का सिलसिला है जो किसी व्यक्ति के लक्ष्यों, आकांक्षाओं और गतिविधियों को आकार देते हैं।’’ इन अर्थों में हमारे दौर के सबसे महान भारतीय गांधी जी के पास एक निश्चित विचारधारा थी। इसी तरह अरविन्द केजरीवाल और ‘आप’ की भी एक विशिष्ट विचारधारा है। ‘आप’ को विचारधारा-विहीन करार देना केवल पोंगापंथी और अज्ञानी लोगों को ही शोभा देता है। ‘आप’ का नेतृत्व उस विचारधारा को प्रतिबिंबित करता है जिसके लिए भारतीय नागरिकों के मन में प्रबल तड़प है। बेशक उनका रवैया कितना भी रोमांचक, सरल स्वभाव या मंझा हुआ अथवा अंतर्विरोधों से भरा हुआ क्यों न हो, फिर भी जनता को इसमें आकर्षण और संभावना दिखाई देती है।

इसका महत्वपूर्ण पहलू यह है कि  जितने सहज ढंग से गांधी जी के माध्यम से विचारधारा प्रकट होती थी वैसा ही केजरीवाल के मामले में होता है। दोनों मामलों में कभी भी वर्तमान दौर के राजनीतिक इवैंट मैनेजरों की तरह खास तौर पर प्रयास करके विचारधारा का पोषण नहीं किया जाता। बस सादगी, बेबाकी, स्पष्टवादिता और यह कहने की दिलेरी है कि हमारे पास भविष्य की कोई सुनियोजित रणनीति नहीं। फिर भी समस्याओं और अवरोधों पर काबू पाने का भरपूर आत्मविश्वास है। राष्ट्र का नेतृत्व करने वाले अंतिम महान भारतीय महात्मा गांधी में निश्चय ही यह गुण था।

दिल्ली चुनावों के निर्णायक दौर में भाजपा और कांग्रेस दोनों द्वारा राजनीति की नामचीन हस्तियों और धन-बल के बूते चुनावी प्रचार की आंधी मचाने का दाव पूरी तरह उलटा पड़ा क्योंकि मतदाता तो इसी प्रकार के व्यवहार से तंग आए हुए थे और बदलाव की बाट जोह रहे थे। कांग्रेस और भाजपा में कोई मूल अंतर दिखाई नहीं देते थे। ‘भाजपा-कांग्रेस’ के खाते में केवल 3 सीटें आना और ‘आप’ की झोली में 67 सीटें आना इस तथ्य का पुख्ता प्रमाण है कि दिल्ली के मतदाताओं ने  केजरीवाल के आक्रोश को अपना लिया था।

कार्रवाई और व्यवहार की नई राजनीतिक संस्कृति की जरूरत थी। हवा का एक ताजा झोंका अपेक्षित था जोकि अपने आप में एक वैचारिक नवोन्मेष था। यह बिल्कुल गांधी जी के लोकवादी राजनीति में पदार्पण की पुनरावृत्ति जैसा था। गांधी जी की तरह यह भी गुलामी की जंजीरों से मुक्ति हासिल करने के दृढ़ता भरे आत्मविश्वास जैसा था। बेशक दोनों स्थितियों का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य बिल्कुल भिन्न है तो भी पराजित राजनीतिज्ञों की तरह भड़ास निकाल कर इनके महत्व को कम नहीं किया जा सकता।

उद्धव ठाकरे को दिल्ली चुनाव एक ऐसी सुनामी की तरह दिखाई देते हैं जिसकी तुलना में मोदी की लहर कुछ भी नहीं। जबकि अन्य राजनीतिज्ञों को ये एक दैत्याकार शक्ति दिखाई देते हैं जो रास्ते में आने वाली हर रुकावट को तबाह करती जाएगी। ये विशेषण बिना किसी खून-खराबे, गोलियों की गडग़ड़ाहट या फौजी बूटों की दगड़-दगड़ के दिल्ली में आई सुखद क्रांति के लिए उपयुक्त नहीं है।

‘आप’ के उद्देश्य नीति और कार्यान्वयन के स्तर पर नए सिरे से गढऩे होंगे और सीढ़ीदार शक्ति तंत्र पर आधारित पुराने माडल को तोड़-फोड़ कर नवजात क्रांति के अनुकूल ढालना होगा। दुनिया के बड़े भाग की तरह भारत भी सत्ता और इससे जुड़ी संस्कृति के नकारा और मरणासन्न हो चुके, लेकिन फिर भी एक नशे जैसी हैसियत रखने वाले, तंत्र की जकड़ में है। इस तंत्र के गरुड़ पाठ का भोग डालना होगा और एक नए तंत्र का श्रीगणेश करना होगा।

दिल्ली के नागरिक विभाजन के दौर से चली आ रही साम्प्रदायिक वफादारियों और धर्म, जाति पर आधारित उस विभाजनकारी दीवालिया राजनीति से आगे निकल चुके हैं जिसको भाजपा आज भी परोसे जा रही है और कांग्रेस भी जिसका चोरी-चोरी कार्यान्वयन करती रहती है। जनता को अब राजाओं-महाराजाओं अथवा उनके महंगे, चमचमाते परिधानों के प्रति कोई आकर्षण नहीं। मोदी ने इन्हीं राजाओं के गुजर चुके दौर को अपने सूट के माध्यम से जिंदा करने का प्रयास किया लेकिन वह भूल गए कि  नए युग के प्रतीक वह नहीं बल्कि केजरीवाल हैं।

दिल्ली चुनाव मोदी की प्रधानमंत्री के रूप में कारगुजारी पर जनमत नहीं थे बल्कि कांग्रेस और भाजपा द्वारा अपनाई जा रही संस्कृति के विरुद्ध फतवा थे। मजहबी आतंकवाद और असंतुष्ट माओवादियों के साथ-साथ ही मजहब, जाति व क्षेत्र के नाम पर अपने ही देश के लोगों को दरकिनार करने की नीति का अंत होना चाहिए। इस दिशा में आगे बढऩे का मार्ग ‘आप’ और केजरीवाल प्रशस्त करते हैं न कि मोदी। भारत के लंबे इतिहास में यदा-कदा कुछ भटकाव भी आए हैं लेकिन इसकी सांस्कृतिक धारा अविछिन्न जारी रही है। ‘आप’ की विजय और इसके परिणामों को भारत की सांस्कृतिक धारा की गर्जन के रूप में देखा जाना चाहिए। इसी मुद्दे पर भाजपा और कांग्रेस इससे मात खा गई हैं। दलितों और अल्पसंख्यकों को आशा की किरण दिखाई देने लगी है जबकि श्रमिक और युवा वर्ग उल्लासित है। समाज के सभी वर्गों में आशावाद का संचार हुआ है। ‘आप’ और देश को केजरीवाल जैसे अनेक नेताओं की जरूरत है। सत्ता की चुनौतियां अनगिनत हैं और केजरीवाल को एक ‘नाराज मुख्यमंत्री’ के रूप में डटे रहना होगा और अपने संघर्ष को जारी रखना होगा। (मंदिरा पब्लिकेशन्ज)

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