स्वच्छता अभियान पर मंडराते ‘खतरों’ को समझना जरूरी

Saturday, Feb 28, 2015 - 12:59 AM (IST)

(पूरन चंद सरीन) प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा शुरू किया गया स्वच्छता अभियान आजादी के बाद से अब तक महसूस की जा रही एक बेसिक जरूरत थी जो अब पूरी होने जा रही है।

यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि यह हालत एक सदी से भी ज्यादा वक्त से चली आ रही है। राष्ट्रपिता बापू गांधी जब आजादी की लड़ाई का नेतृत्व करने भारत आए तो उनका ध्यान सफाई और इस काम में लगे लोगों पर गया और उन्होंने इस समस्या का हल निकालने के लिए स्वयं आगे बढ़कर सफाई करने और मैला उठाने का जिम्मा लिया।

क्या आपने कभी किसी सफाईकर्मी को आधुनिक मशीनों से सड़कों, नालियों और सीवरों की सफाई करते देखा है या किसी सफाईकर्मी को हाथों में दस्ताने, पैरों में बूट और मुंह पर सुरक्षा कवच लगाकर सीवर में उतरते देखा है? ज्यादातर जवाब न में ही मिलेंगे।

यह स्थिति इसलिए है क्योंकि हम फोटो खिंचाई आयोजनों से आगे सोच नहीं पाते, कूड़ा-कचरा फैला कर उसे साफ करने का नाटक करने में बड़प्पन समझते हैं और सफाईकर्मी अगर किसी दिन घर, गली-मोहल्ले में न आए तो उसे गाली देते हैं तथा पूरी प्रशासनिक व्यवस्था को कोसते हैं।

आश्चर्य होता है कि कहीं ये सफाईकर्मी आदिम युग में तो नहीं रह रहे हैं। सरकार ने इनके लिए कानून बनाकर अपने को जिम्मेदारी से मुक्त कर लिया, प्रशासन ने कानून का पालन करने के लिए ठेकेदारों को यह काम दे दिया और ठेकेदार ने सरकारी बाबू से मिलीभगत कर कानून की धज्जियां उड़ाने और पैसों की बंदरबांट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

आज देश में लगभग 26 लाख सफाई कर्मचारी हैं, अगर इसमें इन पर आश्रितों को भी जोड़ें तो यह संख्या करोड़ों में पहुंच जाएगी।

कानून क्या कहता है
सन् 2013 में एक कानून बना और सफाई कर्मचारियों के लिए नैशनल कमीशन को जिम्मेदारी दी गई कि इन लाखों करोड़ों लोगों को सुविधाएं मिलें, इनके साथ होने वाले भेदभाव की समाप्ति हो, इनका सामाजिक तथा आर्थिक पुनर्वास हो और यदि कोई सरकारी विभाग कानून का पालन नहीं करता तो उसकी जानकारी केन्द्रीय सरकार तक उचित कार्रवाई के लिए पहुंचाई  जाए। इसके अतिरिक्त देशभर में 95 नगर निगम, 1804 नगरपालिकाएं और 1739 नगर पंचायतें भी हैं जिन पर कानून के पालन की जिम्मेदारी है।

इस सब के बावजूद ऐसा क्यों है कि जिन लोगों की वजह से हम साफ-सुथरे रहते हैं, उनकी हालत इतनी दयनीय है कि कठोर दिल भी पसीज जाए और संवेदनशील व्यक्ति तो जार-जार रोने लगे।

इन लोगों को वक्त पर वेतन न मिलने, इनके पी.एफ. की रकम दूसरे कामों में लगाने और इनके बच्चों के लिए स्कूलों में दाखिले तथा पढ़ाई-लिखाई का समुचित प्रबंध न होने की असलीयत जग जाहिर है।

शहरों में रहने वालों को जिनके यहां फ्लश लैटरीन है, यह याद दिलाना जरूरी है कि आज भी हमारे कस्बों, गांवों में पाखाने या टट्टी का वजूद है और उनकी सफाई हाथों से की जाती है, टूटी -फूटी बाल्टियों, कनस्तरों में मैला भरकर ले जाया जाता है जबकि यह कानूनन अपराध है। पाखाने को साफ करने और हाथ से मैला ढोने पर कानूनन प्रतिबंध होने के बावजूद इनकी संख्या करोड़ों में है।

कानून में ऐसे अपराधी नागरिकों और सरकारी अधिकारियों को सख्त सजा देने और भारी जुर्माना लगाने का प्रावधान है लेकिन हकीकत यह है कि इक्का-दुक्का लोगों पर ही कभी कोई कार्रवाई होने की खबर मिल पाती है।

ज्यादातर महिलाएं सफाईकर्मी
सफाई कर्मचारियों में एक बड़ी तादाद महिलाओं की है और इन्हें अपने बच्चों को सोता छोड़कर मुंह अंधेरे काम पर निकलना होता है और दोपहर होते-होते ही ये अपने घर पहुंचती हैं। मतलब यह कि बच्चे तो स्कूल जाने और पढऩे-लिखने से महरूम हो गए। जब पढ़े-लिखे नहीं तो बड़े होकर अपनी मां की जगह सफाईकर्मी बनना ही इनकी नियति है। क्या यह एक पूरी पीढ़ी को नष्ट करने की साजिश नहीं लगती, जरा सोचेंगे तो उस औरत की तस्वीर दिखने लगेगी जो गंदगी उठाते-उठाते खुद भी गंदगी का पर्याय बन चुकी है।

जिम्मेदारी किसकी
कानून पर अमल हो रहा है या नहीं, इसकी जिम्मेदारी डिस्ट्रिक्ट मैजिस्टे्रट पर है और ऐसा लगता नहीं कि उन्हें इस बारे में पता हो।

कितने भी स्वच्छता अभियान चलाकर वाहवाही लूट लीजिए, लेकिन जब तक समस्या की जड़ पहचान कर उसे नष्ट करने का संकल्प नहीं होगा, तब तक अंधेरे में लाठी चलाने की तरह कुछ हाथ आने वाला नहीं है।

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