‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ किसी एक वर्ग को ही क्यों मिले

Friday, Feb 27, 2015 - 03:26 AM (IST)

(बलबीर पुंज) ईसाई संत मदर टैरेसा को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत द्वारा दिए गए बयान  पर सैकुलर जमात में कोहराम मचा है। जिन लोगों ने हिन्दू देवी-देवताओं का अपमान और हिन्दू मान्यताओं का उपहास उड़ाने वाली आमिर खान की फिल्म ‘पीके’ को ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के नाम पर सर्वथा उचित ठहराया था, वही वर्ग आज पंजेझाड़कर सरसंघचालक के पीछे पड़ गया है। अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में संपादकीय और लेख प्रकाशित हुए। कांग्रेस समेत रंग-बिरंगे सैकुलरिस्टों के बयान आए।

भारत एक लोकतांत्रिक देश है और यहां मत भिन्नता के लिए स्थान है। सनातन संस्कृति में तो लम्बे समय से वाद-विवाद और शास्त्रार्थ की परम्परा रही है किन्तु हमें जिस सैकुलरवाद का उपदेश दिया जाता है, उस व्यवस्था में यदि गाली देने वाला मुस्लिम हो और जिसकी आस्था पर आघात हो, वह हिन्दू हो तब तो ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ का पाठ पढ़ाया जाता है। किन्तु जब शंका करने वाला हिन्दू हो और शक के दायरे में यदि गैर हिन्दू (मदर टैरेसा) हो, तब सैकुलरवाद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मापदंड बदल क्यों जाते हैं?

सरसंघचालक ने मदर टैरेसा की मानव सेवा का सम्मान करते हुए चर्च के मतांतरण अभियान में उनके योगदान पर प्रश्र खड़ा किया था। उनकी शंका सही है या गलत, यह तो मदर टैरेसा के जीवन का मूल्यांकन करने वालों पर निर्भर करता है। यह स्थापित सत्य है कि मदर टैरेसा वैटिकन की दृष्टि में न केवल ईसाई नन थीं, बल्कि श्रेष्ठतम नन थीं। इसीलिए वैटिकन ने उन्हें संत की उपाधि से नवाजा। ईसाई मत में जो नियम हैं, एक नन होने के नाते मदर टैरेसा ने उन्हें पूरा किया। यदि यह बात सही है तो जैसा कि बाइबल में अनेकों स्थानों पर अलग-अलग तरीके से कहा गया है, ‘‘जाओ और  दूसरे मत के उपासकों को मतांतरित करो।’ मदर टैरेसा ने भी उसका अनुपालन पूरी तन्मयता से किया होगा। एक नन या पादरी जब शपथ लेता है तो ईसा मसीह के चरणों में ज्यादा से ज्यादा उपासक अर्पित करने का व्रत लेता है। इसे स्वीकारने में संकोच क्या है?

मदर टैरेसा के शिविरों, अनाथालयों में विभिन्न मतों के मानने वाले अनाथ, अशक्त और बीमार रहते थे। किन्तु सबको केवल कैथोलिक प्रार्थना करने का ही निर्देश था। मदर टैरेसा के साथ काम कर चुकी सिस्टर सुशन शील्ड्स ने एक साक्षात्कार में बताया था, ‘‘मदर टैरेसा ने गोपनीय तरीके से सिस्टरों को मरणासन्न व्यक्ति का बपतिस्मा करने का तरीका सिखाया था। मौत के द्वार पर खड़े व्यक्ति से सिस्टर पूछती थी कि क्या उसे स्वर्ग का टिकट चाहिए? हां की स्वीकृति मिलते ही सिस्टर को भीगे कपड़े से व्यक्ति का ललाट पोंछने का दिखावा करते हुए बपतिस्मा के मंत्र गुपचुप पढऩे होते थे। गोपनीयता बरतने की सख्त हिदायत थी, ताकि दुनिया यह न जान सके कि मदर टैरेसा छिपछिपाकर हिन्दू और मुसलमानों का मतांतरण कर रही हैं।’’ (मदर टैरेसा, दि फाइनल वर्डिक्ट, लेखक: अरूप चटर्जी, पृ. 190 से साभार)

चर्च की कार्य प्रणाली और मतांतरण का सच क्या है? नि:संदेह चर्च ईसा मसीह के संदेश पर आधारित है-‘‘...जाओ और सभी देशों के नागरिकों को परमपिता परमेश्वर का अनुयायी बनाओ।’’ इसी राह पर चलते हुए पोप जॉन पॉल द्वितीय एशिया में ईसा मसीह के अनुयायियों से अनुरोध करते हैं, ‘‘एशिया के लोगों को ईसा मसीह और उसके उपदेश की आवश्यकता है। एशिया उस संजीवन जल के लिए प्यासा है जो केवल ईसा मसीह दे सकते हैं।’’ (देखिए संत योहन 4:10-15) पोप अपने ‘एक्लेजिया इन एशिया’ नामक प्रलेख में यह स्वीकार भी करते हैं, ‘‘द्वितीय वैटिकन परिषद ने स्पष्टतया यह शिक्षा दी है कि समस्त चर्च ईसाई प्रचारक हैं और मत परिवर्तन कराना उनका और ईश्वर के सभी लोगों (अर्थात ईसाइयों) का कर्तव्य है।’’ नवम्बर, 1999 में पोप ने अपने दिल्ली अभिभाषण में पहली और दूसरी सहस्राब्दि में यूरोप व अमरीका के ईसाईकरण की तर्ज पर तीसरी सहस्राब्दि में एशिया के ईसाईकरण की घोषणा की थी। मत परिवर्तन कराने के लिए ही वैटिकन ईसाई पादरियों के चमत्कार का सर्वत्र गुणगान और उनके संतत्व का महिमामंडन करता है।

फिल्म ‘पीके’ को तर्कवादियों ने कुतर्को के दम पर उचित ठहराते हुए हिन्दू मान्यताओं को पोंगापंथ बताया था। वैटिकन जिन पादरियों या नन को संत साबित करता है, उसके लिए उनके द्वारा किए चमत्कारों का विश्वव्यापी प्रचार-प्रसार करता है। विज्ञान के इस युग में एक इंसान से दैवीय चमत्कार की अपेक्षा किस तर्क पर स्वीकार की जाए? बियेटीफिकेशन (संतकरण) का अर्थ किसी मिशनरी को ‘ईशुप्यारा या ईशुप्यारी’ घोषित करना है। संतकरण के लिए उस मिशनरी को अपनी मृत्यु के पश्चात 2 दैवीय चमत्कार दिखाने होते हैं। अनेक प्रक्रियाओं द्वारा प्रमाणित हो जाने पर उस मिशनरी को प्रभुप्रिय घोषित कर दिया जाता है। नियमानुसार यह प्रक्रिया उस मिशनरी की मृत्यु के 5 वर्ष बाद शुरू होती है, किन्तु ऐतिहासिक रूप से 15वीं सदी के सेंट फ्रांसिस एक अपवाद हैं; जिनकी मृत्यु के एक वर्ष बाद पोप इनोसेंट नवम ने उन्हें संत घोषित किया था। मदर टैरेसा के मामले में पोप जॉन पॉल द्वितीय कुछ अधिक ही उतावले रहे और उनकी मृत्यु के एक वर्ष के अंदर ही उन्हें संत घोषित करने की प्रक्रिया शुरू कर दीथी।

कहा जाता है कि एक दुर्घटना में अपनी पसली तुड़वा बैठी एक फ्रांसीसी महिला मदर टैरेसा के चित्र वाला लॉकेट धारण करने से ठीक हो गई। एक फिलस्तीनी बालिका के सपने में मदर टैरेसा आईं और उसका रोग छू-मंतर हो गया। किन्तु सबसे चर्चित दैवीय चमत्कार पश्चिम बंगाल के दिनाजपुर जिले में दुलिदनापुर नामक गांव की मोनिका बेसरा के साथ हुआ। बेसरा के गर्भ में 7 माह के गर्भ जितना बड़ा ट्यूमर पल रहा था और अस्पतालों के चक्कर लगाने के बाद भी कोई लाभ नहीं हो रहा था। बेसरा मदर टैरेसा का आशीर्वाद पाने की इच्छा से कोलकाता स्थित ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ में आई। वहीं यह चमत्कार हुआ। तब समाचारपत्रों में अलग-अलग कहानियां छपी थीं। एक कहानी के अनुसार बेसरा ने जैसे ही चर्च में प्रवेश किया, मदर टैरेसा के चित्र से प्रकाश की किरणें आईं। बाद में बेसरा को नींद आ गई और जब उसकी नींद खुली तो पाया कि बड़ा फोड़ा पूरी तरह गायब हो गया था। यही मदर टैरेसा का वह मुख्य दैवीय चमत्कार है, जो उनकी मृत्यु के एक वर्ष पूरे होने से ठीक 2 दिन पूर्व यानी 5 सितम्बर, 1998 को घटित हुआ था।

मदर टैरेसा को संत घोषित करते हुए वैटिकन ने तब दावा किया था कि कैंसर से पीड़ित मोनिका बेसरा मदर टैरेसा के चमत्कारिक आशीर्वाद से भली-चंगी हो गई। किन्तु इस ‘चमत्कारिक इलाज’ की जांच के लिए पश्चिम बंगाल की तत्कालीन सरकार द्वारा गठित समिति ने इसे महज औषधियों का परिणाम बताया था।

मदर टैरेसा जब तक जीवित रहीं, उन्होंने ऐसी किसी भी चमत्कारी शक्ति का प्रदर्शन नहीं किया। दीन-हीन व रोगियों के लिए उन्होंने केवल यीशू से प्रार्थना ही की थी। अपने आश्रमों में रहने वाले बीमारों के लिए चिकित्सा उपलब्ध कराने की बजाय उनका मानना था कि उन्हें भी ईसा मसीह की तरह कष्ट झेलना चाहिए। वहीं यह भी सत्य है कि अपने चिकित्सार्थ वह किसी चमत्कार की प्रतीक्षा नहीं करती थीं, बल्कि विदेशों में अति आधुनिक चिकित्सा और उत्तम औषधियों का ही प्रयोग करती रहीं। अस्पताल काउनका कक्ष पंचसितारा होटल के रूम से कम नहीं होताथा।

बाइबिल में इस तरह के दैवीय स्पर्श या चमत्कारी इलाजों की जो प्रथा है, वह खुद ईसा मसीह के कारनामों से अभिप्रेरित है। मध्यकाल का 1000 वर्ष का कालखंड यूरोप के चर्चों का स्वर्णकाल कहा जा सकता है। चिकित्सा विज्ञान की प्रगति के साथ-साथ चर्च की दैवीय इलाज पर निर्भरता कम होती गई। मानव के बौद्धिक विकास के साथ खगोलशास्त्र, भूविज्ञान और मानव विकास से संबंधित चर्च की मान्यताएं भी जनता की नजरों में खारिज हुईं।

चर्च के माध्यम से मुक्ति का मार्ग खोजने वाले पश्चिमी जगत का अब चर्च से मोहभंग हो गया है। दुनिया के कई हिस्सों से चर्चों में व्याप्त अनाचार की खबरें इस मोह के खत्म होने का प्रमुख कारण हैं। लोगों को गहरी निराशा इस सत्य को जानकर हुई कि यौनाचारों की जानकारी वैटिकन को बहुत पहले से थी, किन्तु उसने इन घटनाओं पर रोक लगाने या उनकी निंदा करने की बजाय अपने कार्डिनलों और आर्कबिशपों को मुंह बंद करने के आदेश दे रखे थे।

पश्चिम देशों के रुख को देखते हुए ही वैटिकन ने एशिया को अपने मत प्रचार के लिए वरीयता दे रखी है, जिसके लिए चर्च छल, छद्म और प्रलोभन के बूते अन्य मतावलंबियों का मिशनरी मतांतरण करते हैं। ईसाई मत के प्रचार-प्रसार पर किसी को कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु जब इसके लिए ‘आत्मा का कारोबार’ किया जाएगा तो स्वाभाविक रूप से सभ्य समाज में आस्था रखने वाले इसका विरोध करेंगे। यह कैसे संभव है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारत में केवल एक ही वर्ग को उपलब्ध हो और अन्य को मजहब के आधार पर इससे वंचित रखा जाए?

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