जम्मू-कश्मीर में ‘अस्तित्व की जंग’ लड़ रहे अलगाववादी

Friday, Feb 20, 2015 - 02:57 AM (IST)

(बलराम सैनी) कश्मीर का अलगाववादी आंदोलन अब तक के सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है, जिससे इस आंदोलन के भविष्य को लेकर अलगाववादी नेता खुद दुविधा की स्थिति में हैं। यह कहना भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि पिछले कुछ समय से अलगाववादी अपने अस्तित्व की जंग लड़ रहे हैं क्योंकि आम जनता पर उनके आह्वानों का अब पहले जैसा प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता। यह तो तथाकथित मुख्य धारा के कुछ नेता हैं जो अपने व्यवहार से अलगाववादियों के प्रभाव को पुनस्र्थापित करके उन्हें आक्सीजन प्रदान करते रहे हैं, लेकिन अब वह आक्सीजन भी कार्बन मोनोऑक्साइड में बदलने लगी है।

ऑल पार्टी हुर्रियत कांफ्रैंस की बात करें तो भारतीय संविधान में विश्वास न रखने वाले इस अलगाववादी संगठन के नेता जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र की मजबूती के लिए होने वाले हर निष्पक्ष चुनाव के खिलाफ रहे हैं। हुर्रियत कांफ्रैंस (जी.) के चेयरमैन सैयद अली शाह गिलानी और हुर्रियत कांफ्रैंस (एम.) के चेयरमैन मीरवायज डा. उमर फारूक समेत तमाम अलगाववादी नेता राज्य में होने वाले हर चुनाव में लोगों से बहिष्कार का आह्वान करते आए हैं। जे.के.एल.एफ. प्रमुख मोहम्मद यासीन मलिक तो इसके लिए बाकायदा जागरूकता अभियान चलाते रहे, लेकिन चाहे पंचायत चुनाव हों, पंचायत कोटे के राज्य विधान परिषद चुनाव हों, लोकसभा चुनाव हों अथवा राज्य विधानसभा चुनाव, कश्मीर की जनता ने भारी मतदान करके अलगाववादी नेतृत्व को हर बार आईना दिखाने का काम किया।

अब तो अलगाववादी नेतृत्व भी इस सच्चाई से भली-भांति वाकिफ हो चुका है कि कश्मीर की जनता अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति जागरूक हो चुकी है और अब चुनाव बहिष्कार संबंधी उसके आह्वान का कोई असर नहीं होने वाला। अपने आह्वान के हश्र को भली प्रकार जानने के बावजूद अलगाववादी नेता यह सोचकर हर चुनाव में बहिष्कार का आह्वान करते हैं कि यदि उन्होंने चुनाव बहिष्कार का आह्वान करना बंद कर दिया तो अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में यह संदेश जाएगा कि अलगाववादियों को भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास हो गया है। इसका सीधा सा अर्थ होगा कि कश्मीर घाटी में अलगाववादी आंदोलन समाप्त हो गया है इसलिए चुनाव बहिष्कार की परम्परा को निभाते रहना अलगाववादी नेतृत्व की मजबूरी है।

चुनाव बहिष्कार का आह्वान करके और बाद में इस आह्वान के हश्र के साथ सुर्खियां बटोरने वाले अलगाववादी नेता हर सत्तारूढ़ पार्टी, गठबंधन और विपक्षी दलों की यह कहकर अनदेखी करने का प्रयास करते हैं कि उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि भारतीय संविधान में विश्वास रखने वाली कोई भी पार्टी सत्ता में आए, क्योंकि उनके मुताबिक मुख्य धारा की तमाम पार्टियां केन्द्र सरकार की कठपुतलियां हैं। उन्हें तो संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों के तहत जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह चाहिए।

इस प्रकार एक तरफ जहां अलगाववादी नेता राज्य में मुख्य धारा की राजनीति को नकारने का दिखावा करते हैं, वहीं हर राजनीतिक घटनाक्रम पर टिप्पणी करके अपनी दिलचस्पी एवं हस्तक्षेप का प्रदर्शन करने से भी बाज नहीं आते। इस आंदोलन से जुड़े तमाम नेताओंका प्रभाव घाटी के कुछ भू-खंडों (पॉकेट्स) तकहीसीमित है, लेकिन इससे निपटने की सरकार की ढुलमुल रणनीति ने अलगाववादी नेताओं को न केवल पूरी घाटी, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी पहचान दिलाई है।

अफजल गुरु की फांसी जैसे संवेदनशील मुद्दों पर कभी-कभार तो माना जा सकता है, लेकिन अलगाववादी नेताओं को रोज-रोज नजरबंद किए जाने और नमाज अदा करने से रोकने के लिए इन्हें भारी प्रचार एवं सहानुभूति मिलती है और इसी कवायद को ये लोग अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भुनाते हैं। हर तरफ यही संदेश जाता है कि सरकार द्वारा जनता एवं इन ‘जननेताओं’ की आवाज को दबाया जा रहा है, जबकि सच्चाई यह है कि ऐसा करके सरकार द्वारा जाने-अनजाने परोक्ष तौर पर अलगाववादी आंदोलन को प्रोत्साहित किया जा रहा है।

मामला चाहे पवित्र अमरनाथ गुफा के लिए सुगम मार्ग के निर्माण संबंधी सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश का पालन करने का हो, संसद पर हमले के मास्टरमाइंड अफजल गुरु को फांसी पर चढ़ाने का हो, भारतीय गणतंत्र में जम्मू-कश्मीर के स्थायी विलय का हो, सुरक्षा बलों और पत्थरबाज प्रदर्शनकारियों के बीच होने वाली झड़पों का हो अथवा कश्मीर को राजनीतिक समस्या बताकर इसका समाधान ढूंढने के लिए भारत पर दबाव बनाने का हो, अलगाववादी नेताओं और कश्मीर आधारित मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के नेताओं की सोच में कोई खास अंतर नहीं रहा है।

ताजा मामला जम्मू क्षेत्र के विभिन्न जिलों में रह रहे वैस्ट पाकिस्तानी रिफ्यूजियों के लिए प्रस्तावित पैकेज का है, जिसका विरोध करने से हुॢरयत चेयरमैन सैयद अली शाह गिलानी और नैशनल कांफ्रैंस के महासचिव अली मोहम्मद सागर एव लंगेट से निर्दलीय विधायक इंजीनियर शेख अब्दुल रशीद के बीच होड़-सी लगी हुई है। इससे दबाव में आई पी.डी.पी. ने भी भाजपा से गठबंधन में इस मुद्दे को अनिवार्य शर्त बना दिया है। इतना ही नहीं, उसने अलगाववादियों और पाकिस्तान के साथ केन्द्र की बातचीत की भी पुरजोर वकालत की है।

समय के साथ परिदृश्य में बदलाव यह आया है कि मुख्यधारा के नेताओं की इस कार्यशैली का अलगाववादी आंदोलन पर अब थोड़ा अलग प्रभाव देखने को मिल रहा है, क्योंकि यह कार्यशैली अब अलगाववादियों के अस्तित्व पर प्रश्रचिन्ह लगाने का काम करने लगी है। दरअसल, अलगाववादियों का भय मानकर जो राजनीतिक पार्टियां कश्मीर घाटी में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए परोक्ष तौर पर उनके एजैंडे का समर्थन करके अलगाववादी आंदोलन के लिए संजीवनी का काम करती थीं, अब न केवल कश्मीर आधारित राजनीतिक दलों, बल्कि भाजपा सरीखे देश की एकता, अखंडता एवं देशभक्ति का दम भरने वाले राष्ट्रीय दल ने भी अपने मूल मुद्दों को ठंडे बस्ते में डालकर आंशिक तौर पर ही सही, अलगाववादियों के एजैंडे को अंगीकार कर लिया है। मुख्यधारा के नेताओं के पास सबसे बड़ा हथियार यह है कि वे आम जनता की मूलभूत सुविधाओं एवं रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने की दिशा में कोई प्रभावी कदम उठाकर उन्हें राहत पहुंचा सकते हैं, जबकि अलगाववादी नेता बंद, हड़ताल और पत्थरबाजी से लोगों के रोजगार एवं जनजीवन पर प्रतिकूल असर डालने के अलावा तात्कालिक तौर पर उन्हें कुछ नहीं दे पाते।

नि:संदेह घाटी में बढ़ रही जागरूकता के चलते आज अलगाववादी आंदोलन से जुड़ा हर नेता अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है और इनका संघर्ष केवल खुद को स्थापित करने तक सीमित नहीं, बल्कि स्थानीय एवं अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की नजरों में खुद को दूसरों से आगे दिखाने का भी है। 

अलगाववादी आंदोलन को शुरू हुए दशकों हो चुके हैं, ऐसे में आम जनता कब तक अलगाववादी नेताओं के फरमान मानकर अपने बच्चों का भविष्य दाव पर लगाती रहेगी। अब अलगाववादी नेता भी जमीनी हकीकत समझने लगे हैं, इसलिए उनमें अपने अस्तित्व को लेकर घबराहट स्पष्ट दिखाई देने लगी है। 

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