क्या भारत गांधी जी को भुला चुका है

Wednesday, Feb 11, 2015 - 01:13 AM (IST)

(बृज खंडेलवाल) हम महात्मा गांधी को केवल 2 अक्तूबर और 30 जनवरी को ही याद करते हैं। केवल प्रतीकात्मक रूप में चरखा चलाना, भजन गायन करना और डिस्काऊंट पर खादी की बिक्री करना ही उनकी याद से संबंधित गतिविधियां हैं।

गांधी जी को हमने अपने अनगिनत देवी-देवताओं जैसा रूप दे रखा है और उन्हीं की तरह शेष पूरा वर्ष हम उनकी सुध नहीं लेते और उनकी शिक्षाओं को सांसारिक कर्मकांड का रूप दे दिया है।

कई वर्ष पूर्व एल्बर्ट आइंस्टाइन ने कहा था कि आने वाली पीढिय़ां यह विश्वास ही नहीं करेंगी कि इस धरती पर कभी गांधी जी जैसा महापुरुष पैदा हुआ था। आइंस्टाइन ने शायद सुदूर भविष्य की कल्पना करते हुए यह विचार व्यक्त किया था। उन्होंने शायद सपने में नहीं सोचा था कि अपनी मौत के बाद 70 वर्ष बीतने से भी पूर्व वह अपने ही देश और अपने ही लोगों में एक मिथ्याकथा बन कर रह जाएंगे। गांधी जी ने जो कहा और किया, उसे काफी हद तक भुला दिया गया है और हम केवल चरखा और खादी जैसे प्रतीकों से ही चिपके बैठे हैं।

‘‘फ्रंटियर गांधी’’ के नाम से विख्यात खान अब्दुल गफ्फार खान ने 1969 में गांधी जयंती समारोहों के मौके पर अपनी भारत यात्रा दौरान बहुत कड़वी टिप्पणी की थी : ‘‘मैं भारत के लोगों को यह याद दिलाने आया हूं कि उन्होंने महात्मा को भुला दिया है।’’

जाने-माने लेखक होरेस एलेग्जांडर ने हमें सलाह दी थी कि गांधी जी को ‘‘दिव्य पुरुष बनाने की बजाय जमीन पर उतारा जाए और फिर से उन्हें आम आदमियों जैसा स्वरूप प्रदान किया जाए, जिसके लिए कि वह स्वयं जीवन भर कामना करते रहे हैं। हम उनका महात्मा वाला रूप एक तरफ रखकर उन्हें केवल श्री गांधी के रूप में देखने का प्रयास करें।’’

दुनिया भर के अन्य कई नेताओं के विपरीत गांधी जी अपनी लोकप्रियता को भी दाव पर लगाना जानते थे। प्रसिद्ध समाजवादी चिन्तक व नेता राम मनोहर लोहिया ने गांधी जी के बारे में लिखा था : ‘‘उन्होंने एक खास स्थिति में पवित्र गाय के बछड़े को टीका लगवा कर मरवा दिया था; एक बंदर को गोली से मरवा दिया था; उन्होंने हरिजनों को साथ लेकर मंदिर में प्रवेश किया; अन्तर्जातीय विवाहों को छोड़कर अन्य किसी प्रकार की शादियों में शामिल होने से इंकार कर दिया; उन्होंने तलाक को भी मान्यता दी; पाकिस्तान को उस समय 55 करोड़ रुपए की भारी-भरकम राशि सहायता के रूप में दे दी, जब हिन्दुओं की दृष्टि में ऐसा करना राष्ट्र द्रोह के तुल्य था। उन्होंने निजी सम्पत्ति का विरोध किया। संक्षेप में कहा जाए तो उन्होंने शायद कभी भी ऐसा मौका हाथ से नहीं जाने दिया, जो उनके जीवन और प्रतिष्ठा पर खतरा बन सकता था।’’

यदि हम अभी भी बिना किसी उम्मीद के एक राष्ट्र के रूप में संघर्ष कर रहे हैं तो इसका कारण यह है कि हमने पश्चिमी देशों की अंधी नकल करने और उनके विकास मॉडलों को अपनाने में अधिक रुचि दिखाई है। इसका अटल तौर पर यह परिणाम हुआ है कि हमने ‘समृद्धि के टापू’ सृजित किए हैं, जो अंधकार और गरीबी के विशाल सागर में कहीं-कहीं मौजूद हैं।

पाखंडबाजी ही हमारा नया मजहब बन चुकी है और झूठ बोलना हमारी जीवनशैली बन गया है। हमारे जीवन के हर क्षेत्र को ये दोनों अवगुण खतरनाक हद तक संक्रमित किए हुए हैं। तोंदिल पांडे अंधविश्वासी जनता के बूते गुलछर्रे उड़ा रहे हैं; जबकि कथित वामपंथी और राष्ट्रांध बदमाश हमारी राजनीति की सर्कस चला रहे हैं। हमारी अर्थव्यवस्था एक ‘कार्यशील अराजकता’ बन चुकी है, जिसे सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के एकाधिकारवादी संचालित कर रहे हैं। बेशक गांधी जी ने बहुत पहले ही हमें ऐसी बातों के प्रति चौकस किया था, फिर भी हमने जीवन को उपदेश और मिशन के साथ जोडऩे के लिए साजगार स्थितियां पैदा करने हेतु कभी चिन्ता नहीं की। ऐसे में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि हम घोर अकर्मण्यता में आकंठ डूब चुके हैं और यह इंतजार कर रहे हैं कि कोई मसीहा आकर हमारे बंधन काटेगा।

आज जब विश्व एक के बाद एक विकराल समस्याओं में घिरता जा रहा है, तो गांधी जी की प्रासंगिकता बढ़ती जा रही है। समृद्ध देशों में बढ़ते मोटापे और गरीब देशों में दरिद्रता की बढ़ती पीड़ा ने जिस पगलाना निराशा को जन्म दिया है, उसके मद्देनजर नए सिरे से गांधीवादी शिक्षाओं पर चिन्तन-मनन करना जरूरी हो गया है। विश्व के करोड़ों लोगों के मन-मस्तिष्क को स्वतंत्रता के प्रकाश से आलौकित करने वाले गांधी जी के बिना दुनिया के गरीब देश तो खास तौर पर गुजारा ही नहीं कर सकते।

सामाजिक-आर्थिक समस्याओं के बारे में गांधी जी की गहरी समझ और मानवीय मनोविज्ञान की गहराइयों में झांक सकने  की उनकी क्षमता का लक्ष्य दमन और  शोषण के शिकार लोगों को उनकी कठिनाइयों से मुक्त करवाना था। अहिंसा, मरणव्रत, हड़तालों व प्रदर्शनों  के अस्त्र का राजनीति में व्यावहारिक इस्तेमाल करके गांधी जी ने बहुत अमूल्य योगदान दिया था। ऐसा करके गांधी जी ने सिद्ध कर दिया है कि शक्तिशाली आधुनिक राष्ट्र अंदर से कितने कमजोर हैं।

खेद की बात है कि अधिनायकवादी अथवा फासिस्ट हकूमतों के विरुद्ध शांतमयी या अहिंसात्मक आंदोलन का दायरा विस्तृत नहीं किया गया है। वास्तव में इन विषयों पर कोई नया चिन्तन हुआ ही नहीं, बेशक गांधी जी के नाम पर ढेरों बड़े-बड़े संस्थान स्थापित हो गए हों।

दुर्भाग्यवश यह अवधारणा बलवती हो चुकी है कि किसी राष्ट्र की वास्तविक प्रतिष्ठा इसके लोगों की समृद्धि एवं कल्याण में नहीं, बल्कि इसकी सशक्त शक्ति पर निर्भर करती है। यह एक मिथ्या अवधारणा है और इसका मुकाबला किया जाना जरूरी है। जब तक किसी राष्ट्र के लोग शारीरिक और आत्मिक तौर पर स्वस्थ नहीं बनते, तब तक हथियारों के पहाड़ भी इसकी छवि को चार चांद नहीं लगा सकते। (एफ.पी.जी.)

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