दलित का धर्म था ही नहीं, फिर ‘परिवर्तन’ कैसा

punjabkesari.in Tuesday, Feb 10, 2015 - 12:57 AM (IST)

(दर्शन ‘रत्न’ रावण) पुरातन इतिहास में हजारों ऐसी कहानियां हैं, जब एक औरत के लिए 2 राजा आपस में भयंकर तरह से अमानुष बनकर लड़ते मिलते हैं। आज भी कई मनचले आपस में लड़ते या लड़की पर तेजाब डालते फिरते हैं। इनमें हर कोई प्रेम का दावा करता है, पर उस लड़की से कोई न तब पूछता था न आज पूछ रहा है कि आखिर तुम्हारी क्या इच्छा है? आदमी का दिमाग अभी तक यह स्वीकार करने को तैयार ही नहीं कि किसी महिला का स्वतंत्र अस्तित्व, उसकी अपनी सोच और उसका खुद का दिमाग है।

एकदम यही हालत दलित की भी है। वही लोग दलित-आदिवासी को भी औरत की तरह इंसान मानने को तैयार नहीं। कुछ लोग औरत और दलित-आदिवासी को पशु की श्रेणी में खड़ा करते रहे हैं, लेकिन ध्यान से देखें और परखें तो पाएंगे कि पशु की स्थिति दलित और औरत से ज्यादा बेहतर है। जानवरों के रिजर्व एरिया बनाए जा रहे हैं। दलित और औरत को मारने का भय किसी को नहीं, जबकि जानवर की हत्या पर केस और दंगा दोनों संभव हैं। गोहाना के बाद खैरलांजी, खैरलांजी के बाद मिर्चपुर और मिर्चपुर के बाद भगाणा इसकी छोटी-सी मिसाल है।

दलित-आदिवासी और औरत की इस हालत का जिम्मेदार कौन है? कोई असभ्य और नास्तिक नहीं, अपितु धर्म और भगवान को मानने वाला ही महिला, जो मूलत: मां है तथा मां की ही तरह सैंकड़ों वर्षों से देखभाल करते आए दलित-आदिवासी को जानवर से भी बदतर मानता है। दलित-आदिवासी और औरत को उतनी ही देर अपने पास रहने देता है जितनी देर उसका स्वार्थ या हवस पूरी न हो जाए। बाद में उस गाय की तरह धकिया देता है जो बूढ़ी होकर दूध देने लायक नहीं रह जाती।

एक बार फिर से धर्म और उससे परिवर्तन पर बात हो रही है। कुछ खिलाड़ी बनकर मैदान में उतरे हुए हैं और फुटबाल की तरह दलित-आदिवासी को उछाले जा रहे हैं। यह वैसे ही हो रहा है जैसे किसी लड़की को बिना पूछे ही उसको जीत लेने के लिए ‘मुस्टंडे’ आपस में भिड़ जाते हैं। कई बार सोचा कि क्या दलित-आदिवासी कोई चल-अचल सम्पत्ति है जिसे कोई भी हथिया लेना चाहता है? भला हो भागवत जी का जिन्होंने सदियों के दबाए सच को जुबां पर लाकर कह तो दिया कि दलित-आदिवासी उनका ‘माल’ है और अब सदियों से शहर से बाहर फैंक रखे माल को वह वापस चाहते हैं।

देश के विभाजन के समय वाल्मीकि कौम में पैदा हुए महान शायर गुरदास आलम इस स्थिति को बयां करते ‘अम्बेदकर’ नामक कविता में लिखते हैं, ‘‘आखिर गांधी ने किहा जिन्नाह ताई, जिथों तक बनदी अपनी हद लै लऊ। हरिजन नूं छड बंदिया, भावें सारे इस्लाम दी जद लै लऊ। कायदे-आजम किहा जनाब गांधी, रकबा तुसीं भावें साथों वद लै लऊ। अछूत सांझे गुलाम हैं सारेयां दे, जोड़-तोड़ के अदो-अद लै लऊ।’’ समस्या की मूल जड़ तो यही है कि किसी ने दलित-आदिवासी को इंसान के रूप में लिया ही नहीं। दलित-आदिवासी अन्य सभी के लिए मात्र गुलाम भी नहीं है। पहले वह अछूत-भंगी-शूद्र है। उसके बाद अमानवीय कृत्यों को करने वाला अस्पृश्य है जिसकी परछाईं भी किसी को भ्रष्ट कर सकती है। आज लोकतंत्र के लिए अवश्य वोट ने दलित-आदिवासी को माल में परिवर्तित कर दिया। जैसे शहर से बाहर किसी गांव की घटिया जमीन को गंदगी गिराने के लिए ले लिया जाता था। फिर वहां से गुजरते हुए नाक पर रुमाल रख लिया जाता था, मगर जैसे ही शहरीकरण का विस्तार हुआ तो कूड़े वाली वही जमीन करोड़ों-अरबों का माल लगने लगी।

स्वाभिमान (गैरत) और अपने वचन के लिए हाथ का अंगूठा और पिता का सिर कुर्बान कर देने वाले दलित-आदिवासी के लिए लालच या माल शब्द का प्रयोग करना एकदम अनुचित व असभ्य है। यह एक तरह से उसे अपमानित करने जैसा है। आप धर्म परिवर्तन की बात करते हो, उस एक पल के लिए इंसान अपनी जान भी दे दे। सारी उम्र जिसने अपमान सहा, अपनी मां को सिर पर मल-मूत्र उठाए देखा हो, वह ईश्वर से दुआ कर सकता है कि बस परमेश्वर अब चाहे प्राण भी ले ले।

इन परिस्थितियों में जीने वाले दलित-आदिवासी ने धर्म परिवर्तन नहीं किया। वह किसी धर्म का हिस्सा था ही नहीं। उसे निमंत्रण मिला जिसे उसने माना। मगर उस अपेक्षित दलित-आदिवासी ने स्वीकार किया एक जीवन को, खुली हवा को, महकती धूप को और इंसान के रूप में अपनी पहचान को।

ठगा आज भी जा रहा है दलित-आदिवासी धर्म के नाम पर। पहले इस्लाम की तरफ गया। जब इस्लाम की संख्या बढऩे लगी तब धर्म के वे ठेकेदार इस्लाम में प्रवेश कर गए जिनसे अपमानित हो दलित-आदिवासी सम्मान की तलाश में इस्लाम में गया था। उसके बाद ईसाई आ गए। दलित-आदिवासी को लगा कि वह इस खिड़की से सुख की सांस ले पाएगा, परन्तु ऐसा हो नहीं पाया। जैसा कि एक शब्द का प्रयोग किया जा रहा है ‘घर वापसी’, मगर कौन-से घर और किस रूप में हो यह वापसी? यह तय करना होगा उन्हें जो धर्म परिवर्तन पर सबसे ज्यादा मगरमच्छी आंसू बहा रहे हैं। मगरमच्छी इसलिए क्योंकि यही समूह है जो दलित-आदिवासी की हिस्सेदारी (आरक्षण) पर सवाल पैदा करता है। झारखंड में इस नीयत का पर्दाफाश हो गया जब गैर आदिवासी को वहां का मुख्यमंत्री बनाया। छत्तीसगढ़ में पहले ही से आदिवासी को दरकिनार कर चुके हैं। समझने वाली बात यह है कि इनके हिन्दुत्व में कथित सवर्ण मालिक और दलित-आदिवासी गुलाम की श्रेणी में आते हैं। फिर कौन कहेगा इसे घर वापसी?

धर्म परिवर्तन में एक भूमिका दलित-आदिवासियों में आपसी राजनीतिक द्वेष ने निभाई। जैसे दलितों का एक समूह निरंतर वाल्मीकि समाज को अपमानित व पथ-भ्रमित करने का कुप्रयास करता रहा, जो आज भी जारी है। मीरा कुमार ने पंजाब में आकर बयान जारी किया कि दोआबा का दलित मुख्यमंत्री होना चाहिए। ऐसा क्यों? मुख्यमंत्री दलित हो यही काफी नहीं? और जिस दिन ऐसा होगा वह साफगोई से होगा, मीरा जी की संकीर्ण मानसिकता से नहीं। जनसंख्या को देखते हुए स्वाभाविक है लेकिन इसके लिए दलित को खुद को तैयार होना होगा। दलित एक-दूसरे का मजाक उड़ाने में व्यस्त हैं और उसकी अस्मत, आत्म-सम्मान और पहचान को समाप्त किया जा रहा है।


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