क्या खट्टर सरकार की ‘स्थिरता’ बनी रहेगी

Sunday, Feb 08, 2015 - 04:00 AM (IST)

(बी.के. चम) आम तौर पर किसी शासन की स्थिरता और साथ ही राजनीति के भविष्य का रास्ता निर्धारित करने में राजनीतिक दलों की स्थिति, गवर्नैंस की गुणवत्ता एवं प्रदेश के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (यानी कि मुख्यमंत्री) की क्षमताएं मुख्य कारकों की हैसियत रखती हैं। इन कारकों की स्थिति क्या है और चुनाव के बाद हरियाणा की राजनीति को वे किस तरह प्रभावित करेंगे?

हरियाणा में पहली बार अपनी सरकार बनाकर भाजपा ने इतिहास रच दिया था। इसके लिए आम तौर पर ‘मोदी फैक्टर’ को जिम्मेदार माना जाता है लेकिन हरियाणा में एक प्रकार से हाशिए पर जा चुकी भाजपा को सिंहासन की सीढिय़ां चढ़ाने के लिए यही एक बात जिम्मेदार नहीं थी। सिरसा आधारित डेरा सच्चा सौदा ने भाजपा की इस ‘सिंहासन यात्रा’ में बड़ी भूमिका अदा की क्योंकि इसके प्रमुख गुरमीत राम रहीम ने अपने अनुयायियों के विशाल समुदाय को इसके पक्ष में मतदान करने की अपील की थी।

पार्टी की जीत के बाद इसके वरिष्ठ नेता डेरा प्रमुख द्वारा दिए गए समर्थन का धन्यवाद करने के लिए उनसे मिलने गए थे। हमारे कुछ स्वयंभू धर्मगुरु बेशक बलात्कार और हत्या जैसे आरोपों का सामना कर रहे हैं लेकिन फिर भी उन्हें खास तौर पर ऐसे राजनीतिज्ञों की सरपरस्ती हासिल है जो सत्ता तक पहुंचने के सपने देखते हैं।

नई सरकारें आम तौर पर शुभ ग्रह दशा में ही पदभार संभालती हैं। हरियाणा की मनोहर लाल खट्टर नीत भाजपा सरकार भी इस मामले में कोई अपवाद नहीं। जिस प्रकार ‘‘कौन बनेगा करोड़पति’’ में अमिताभ बच्चन प्रत्याशी को संकेत दिया करते थे ‘‘आपका समय शुरू होता है अब’’, ठीक यही स्थिति अब खट्टर सरकार की है।

शासकों के लोक-लुभावन वायदों से ऊंची उठ चुकी लोगों की आकांक्षाओं के इस युग में यदि नई सरकारें अपने वायदों को पूरा करने में विफल रहें तो उन्हें अशुभ ग्रहों के साए में घिरने  में देर नहीं लगती। बेशक सत्ता में 100 दिन की अवधि खट्टर सरकार की कारगुजारी पर कोई फैसला सुनाने के लिए बहुत अल्प है, फिर भी इसकी कार्यशैली के संबंध में नकारात्मक संकेत उभरने शुरू हो गए हैं।

पहली बार विधायक बने खट्टर की जब मुख्यमंत्री के रूप में ताजपोशी हुई तो उन्हें प्रशासन का कोई अनुभव नहीं था। अपनी सादगी और त्यागी प्रवृत्ति के कारण उनकी एक भद्र पुरुष वाली छवि है। उन्होंने बेहतर गवर्नैंस और रिश्वत मुक्त व्यवस्था से बदलाव के एक नए युग का सूत्रपात करने का वायदा करके बहुत अच्छी शुरूआत की थी लेकिन उनकी सरकार की अब तक की कारगुजारी उत्साहजनक नहीं  है। उनके द्वारा उठाए गए कुछ कदमों से जनता के कुछ वर्गों में नाराजगी पैदा हुई है।

उदाहरण के तौर पर पहले ही दिन उन्होंने अपनी पूर्ववर्ती हुड्डा सरकार के सरकारी कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति की आयु 58 से 60 साल करने वाले फैसले को उलटाकर कर्मचारियों के अंदर जोरदार रोष जगाया। इसी प्रकार कुछ अन्य फैसलों, खास तौर पर हुड्डा सरकार द्वारा तय किए गए बुढ़ापा पैंशन के 500 रुपए अनुदान को घटाकर 200 रुपए करने से लाभार्थियों का मोह भंग हो गया। इन कदमों से खट्टर सरकार पर ‘यू-टर्न’ लेने का कलंक भी लग गया।

जिन लोगों के लिए सत्ता सुख बिल्कुल ही नया अनुभव था, उन्होंने जब खुद को अपनी उम्मीदों के विपरीत उच्च पदों पर आसीन पाया तो नौकरशाहों को लगा कि इनकी परवाह करने की उन्हें खास जरूरत नहीं। नए मुख्यमंत्री तक के मामले में बाबुओं का रवैया ऐसा ही है। बाबुओं पर उनकी जरूरत से अधिक निर्भरता ने पहले ही कुछ परेशानियां पैदा करनी शुरू कर दी हैं। उनके मंत्रिमंडल में आंतरिक फूट के संकेत भी उभरे हैं। किसी का नाम लिए बगैर उनके स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज ने ट्वीट किया कि कुछ लोग उनके काम में अड़ंगे लगा रहे हैं। ‘‘मंत्री अपना काम कर रहा है। मुख्यमंत्री पहले ही कुछ खास मुद्दों पर अपने 3 वरिष्ठ मंत्रियों की ओर से विरोध का सामना कर रहे हैं लेकिन वे सफल नहीं होंगे और मैं अपनी शैली के अनुरूप काम करना जारी रखूंगा।’’

विज इस बात को लेकर अप्रसन्न हैं कि उन्हें अपने विभाग का परिचालन करने के मामले में खुली छूट नहीं मिली। फिर भी खट्टर ने कहा, ‘‘किसी को भी काम करने से रोका नहीं जा रहा है। सरकार में किसी प्रकार के मतभेद नहीं और इस मुद्दे को बेवजह तूल दी जा रही है।’’ सरकार के समर्थक शायद किसी विद्वान के इस कथन पर विश्वास रखते हैं कि ‘‘असंतोष ही प्रगति की प्रथम जरूरत है।’’

संगठनात्मक रूप में हरियाणा में कमजोर भाजपा का राजनीतिक दबदबा और इसके साथ-साथ इसकी सरकार की दीर्घकालिक स्थिरता इस बात पर निर्भर करेगी कि वर्तमान में जारी अपने सदस्यता अभियान की समाप्ति पर यह मजबूत संगठनात्मक ढांचा सृजित करने  में कहां तक सफल होती है। इसके साथ ही यह इस बात पर भी निर्भर करेगी कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में जीत किसकी होती है।

उल्लिखित नकारात्मक घटनाक्रम के मद्देनजर खट्टर सरकार इस तथ्य से खुद को दिलासा दे सकती है कि राज्य में विपक्षी दल एक प्रकार से  निद्रा की स्थिति में है। 19 विधायकों वाला इनैलो दिग्भ्रमित-सा है। भीड़ आकॢषत करने वाले इसके पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला अपने बेटे अजय चौटाला सहित जे.बी.टी. अध्यापक भर्ती घोटाला के मामले में 10 वर्ष का कारावास भुगत रहे हैं जिस कारण पार्टी में हतोत्साह की प्रक्रिया शुरू हो गई है। इनैलो का राजनीतिक भविष्य ओम प्रकाश चौटाला और उनके दोनों बेटों अजय एवं अभय के विरुद्ध अदालत में भर्ती घोटाले से भी अधिक गंभीर आय से अधिक सम्पत्ति बनाने के मामले के परिणाम से जुड़ा हुआ है।

15 विधायकों वाली कांग्रेस की स्थिति भी इससे बेहतर नहीं है। चुनाव के बाद यह वास्तविक रूप में निष्क्रियता की शिकार हो गई है। राहुल गांधी की बचकाना कार्यशैली की कांग्रेस को बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ी है। अंतर्कलह से जूझ रही हरियाणा कांग्रेस भी भला इससे अछूती कैसे रह सकती थी? इसकी बदनसीबी को इस तथ्य ने और भी बढ़ा दिया कि हुड्डा की अनदेखी करते हुए राहुल ने उनके आलोचकों को ही प्रदेश पार्टी प्रमुख और विधायक दल के नेता के पदों पर आसीन कर दिया। उन्होंने इस तथ्य की अनदेखी की कि हुड्डा ही प्रदेश में कांग्रेस के एकमात्र ऐसे नेता हैं जो राज्यव्यापी लोकप्रिय जनाधार रखते हैं और उन्हें 15 में से 14 विधायकों का समर्थन हासिल है।

राहुल द्वारा कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष बनाए गए अशोक तंवर तथा विधायक दल नेता किरण चौधरी पार्टी के अंदर लगातार अधिक से अधिक अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं। दूसरी ओर हुड्डा अब सक्रिय हो गए हैं और पार्टी में नई जान डालने के प्रयास कर रहे हैं। हरियाणा के पार्टी क्रियाकलापों के भविष्य के संबंध में केन्द्रीय नेतृत्व का फैसला जितना इस बात पर निर्भर करेगा कि हुड्डा पार्टी में नई जान फूंकने के प्रयासों में कहां तक सफल होते हैं, वहीं यह दिल्ली चुनावों के नतीजों से भी प्रभावित होगा।

कुलदीप बिश्नोई की हरियाणा जनहित कांग्रेस असाध्य रोगों से ग्रसित लगती है। इसका लोकप्रिय जनाधार वर्तमान में उन 2 विधानसभा क्षेत्रों तक सिमट कर रह गया है जहां से बिश्नोई दम्पति विधायक चुने गए हैं। इस पार्टी का संगठन क्षत-विक्षत है। वह अपने संगठन का स्वास्थ्य बहाल कर पाएंगे या नहीं और यदि कर पाएंगे तो कैसे- इस मुद्दे पर पैनी नजरें लगी रहेंगी।

खट्टर सरकार की स्थिरता को वर्तमान में कोई खतरा नहीं लेकिन मंत्रिमंडल के अंदर उभर रहे मतभेदों के साथ-साथ यदि खट्टर विवेकपूर्ण अवधि के अंदर कुछ नतीजे दिखाने में असफल रहते हैं तो उन लोगों की भूमिका पर पैनी नजर रखनी होगी जिन्होंने मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदारी ठोकी थी।

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