ओबामा की भारत यात्रा सैन्य दृष्टि से ‘महत्वपूर्ण’

Saturday, Jan 31, 2015 - 04:54 AM (IST)

(सैय्यद अता हस्नैन) अमरीकी राष्ट्रपति की हाई प्रोफाइल नई दिल्ली यात्रा में परमाणु समझौता ही सबसे बड़ा विषय था। इसमें मोनीटरिंग और जवाबदेही के संबंध में कुछ गंभीर चिन्ताएं थीं लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने इन्हें बहुत सूझबूझ से हैंडल किया है।

अगले महत्वपूर्ण विषय थे अर्थव्यवस्था और सुरक्षा। ये दोनों अंतर्संबंधित हैं, चूंकि प्रत्येक दूसरे को प्रभावित करता है। फिर भी सुरक्षा की विशिष्ट बारीकियों को सैनिक दृष्टिकोण से गहराई तक आंकने की जरूरत है।

व्यापक रणनीतिक चौखटे में जो चुनौतियां दरपेश हैं, वे रक्षा उत्पादन के स्वदेशीकरण सहित भारतीय सेना के आधुनिकीकरण, ‘मेक इन इंडिया’, क्षेत्रीय आतंकवाद सहित ग्लोबल आतंकवाद को परास्त करने और महासागरीय स्वतंत्रता के गिर्द घूमती हैं।

अमरीका के साथ रक्षा सहयोग की संभावनाएं बहुत उत्साहजनक हैं। लेकिन सेना और नौकरशाही को अवश्य ही आपसी विश्वास बनाने के तरीके खोजने होंगे। वैसे इसे आपदा प्रबंधन और संयुक्त कार्रवाई जैसे विशिष्ट मुद्दों तक विस्तार दिया जा सकता है।

जांच-परख
सैन्य सुरक्षा के संबंध में शुरूआती नक्शा तो ओबामा की यात्रा के समुचित रणनीतिक संदेश में से अपने आप ही सामने आता है। चीन और पाकिस्तान  अवश्य ही इसकी गहरी छानबीन कर रहे होंगे।

बेशक मीडिया में ‘बॉडी लैंग्वेज’ और ‘ऑप्टिक्स’ जैसे शब्द सोशल मीडिया पर काफी परिहास का विषय बने हुए हैं, फिर भी इस बात की अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि सभी रंगों के रणनीतिक महत्व वाले विषयों के संबंध में आपसी रिश्तों के सार्थक कायाकल्प की बात चली है।

यह तो स्पष्ट है कि एशिया में नए सत्ता संतुलन के अमरीका के प्रयासों में भारत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। लेकिन इसका अनिवार्य तौर पर यह अर्थ नहीं निकलता कि चीन के विरुद्ध कोई गठबंधन बनाया जाएगा बल्कि इसका तात्पर्य केवल इतना है कि एशिया में चीन की धाकड़ महत्वाकांक्षाओं को संतुलित करने के लिए पारदर्शी विचार-विमर्श चलाया जाए।

इसके सबसे महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक है महासागरों की स्वतंत्रता। चीन अपने पूर्वी तट से लेकर पश्चिमी एशिया तक के समुद्री मार्गों पर वर्चस्व स्थापित करना चाहता है और श्रीलंका व मलाका के समुद्री मार्गों के केन्द्रों  तथा जिन सागरीय क्षेत्रों पर यह अपना दावा ठोक रहा है, वहां दूसरे देशों की उपस्थिति नगण्य बनाना चाहता है।

वैसे चीन की सागरीय शक्ति अमरीका, आस्ट्रेलिया, जापान और इनके सहयोगियों की तुलना में कमजोर है तथा अपने ‘सागरवर्ती रेशम मार्ग’ की रणनीति के माध्यम से समुद्री संचार मार्गों के आसपास के क्षेत्रों में सत्ता संतुलन अपने पक्ष में करने और नए क्षेत्रों पर अपना दावा ठोकने के लिए अपने वर्चस्व को बहुत धाकड़ ढंग से विस्तार देने के प्रयास कर रहे चीन पर अंकुश लगाने के लिए जलशक्ति ही महत्वपूर्ण क्षेत्र है।

यह अटकलें लगाना किसी अपरिपक्वता का सूचक नहीं कि डिफैंस ट्रेड एंड टैक्नोलोजी इनीशिएटिव (डी. टी.टी.आई.) के अन्तर्गत शस्त्र प्रणालियों  के प्रावधान और विमानवाहक टैक्नोलॉजी की भागीदारी सहित भारतीय नौसेना के आधुनिकीकरण के विभिन्न पहलू जलशक्ति को भविष्य में अधिक समयानुकूल बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं। अगली पीढ़ी के जलपोतों के लिए 120 एम.एम. तोपों, मल्टीरोल हैलीकाप्टर एम.एच.60-आर. एवं इलैक्ट्रोमैग्नैटिक एयरक्राफ्ट लांच सिस्टम (ईमाल्ज) के वायदे भी डी.टी.टी.आई. का अंग हैं। इसे सागरवर्ती जासूसी को सांझा करने और कालांतर में डाटा एवं संचार सुरक्षा तक विस्तार दिया जाएगा। भारत के लिए यह संदेश शुभ भी है और उपयुक्त भी।

आतंक
सतही पहलुओं पर चर्चा करने से पूर्व ग्लोबल और क्षेत्रीय आतंकवाद की चुनौतियों की जांच-परख करने की जरूरत है। सांझा बयान इस ओर इशारा करता है कि गुप्त जानकारियों का आदान-प्रदान बड़े स्तर पर होगा और पाकिस्तान से संबंधित तीन आतंकी गुटों-हक्कानी नैटवर्क, डी. कम्पनी और जमात-उद-दावा को लक्ष्य बनाया जाएगा, ताकि वैश्विक स्तर पर अधिक प्रभावशाली कार्रवाई की जा सके। बेशक यह पूरी तरह सैनिक मुद्दा नहीं, फिर भी जम्मू-कश्मीर में घुसपैठ और कुछ मामलों में देश के अंदर आतंकी नैटवर्कों की मौजूदगी सेना के लिए चिन्ता का विषय है।

घुसपैठ के विरुद्ध जवाबी कार्रवाई हेतु बहुत उन्नत किस्म के सैंसरों का वायदा शीघ्रातिशीघ्र फलीभूत होना चाहिए क्योंकि घुसपैठ पर अंकुश लगाने के मामले में सेना की उपलब्धियों के बावजूद घुसपैठ के नए से नए प्रयास जारी रहते हैं। कुछ एल.ओ.सी. सैक्टरों में परीक्षण स्थल बनाए जाने के बावजूद सेना निगरानी और नैटवर्किंग टैक्नोलॉजी की अगली पीढ़ी की ओर प्रस्थान करने में असफल रही है। जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद का मुद्दा इस बात पर निर्भर करता है कि घुसपैठ को प्रभावी ढंग से सीमित करने और देश के अन्य भागों में आतंकवाद को कम करने में हम कितने सफल होते हैं। इसके अलावा अफगानिस्तान में मौजूद अपनी अवस्थापनाओं को भी सक्रिय सुरक्षा की जरूरत है।

जमीनी मोर्चे पर भी भारतीय सेना कुंजीवत क्षेत्रों में खुद को पंगु पा रही है। डी.टी.टी.आई. के अन्तर्गत ऐसी काफी गुंजाइश है कि तोपखाना और युद्ध क्षेत्रीय पारदर्शिता के क्षेत्र में सक्रिय अमरीकी सहायता उपलब्ध होगी। वायुसेना को भी चिनूक और अपाचे जैसे आक्रामक विमानों की जरूरत है।

आपसी विश्वास
डी.आर.डी.ओ. की ‘नाग’ परियोजना की नाकामी और ‘मिलन’ और ‘फैगट’ टैंक रोधी गाइडिड मिसाइल (ए.टी.जी.एम.) प्रणालियों के कालबाह्य हो जाने के कारण सेना ए.टी.जी.एम. की अगली पीढ़ी फटाफट हासिल करने के लिए हताश है। फिर भी बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि ‘कम्युनिकेशन्स इंटर आप्रेबिलिटी एंड सिक्योरिटी मैमोरैंडम आफ एग्रीमैंट’ (सिस्मोआ) पर चल रही वार्ता का क्या नतीजा निकलता है? अभी तक इस बारे में निश्चय से कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि इस वार्ता में प्रोटोकाल की ऐसी शर्तें हैं जो शायद भारत मानने को तैयार नहीं।

हर कोई यह सवाल जरूर पूछेगा कि अपेक्षित आपसी विश्वास कैसे हासिल होगा और इस विश्वास की जो झलक हमने तस्वीरों में देखी है, वह कैसे साकार रूप ग्रहण करेगी?

वैसे यह चर्चा देगचे में से दाल के एक दाने के बराबर ही है, क्योंकि टैक्नोलॉजी के मामले में दुनिया के सबसे अग्रणी देश के साथ रक्षा सहयोग की संभावनाएं असीमित हैं और अंततोगत्वा आपसी विश्वास ही इसके लिए रास्ता तैयार करेगा। ओबामा-मोदी के आपसी मधुर संबंधों के चलते तो ऐसा लगता है कि ढेर सारी उपलब्धियां होंगी। (मे.टु.)

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