महामहिम ‘ओबामा के नाम’ खुला पत्र

Friday, Jan 30, 2015 - 05:54 AM (IST)

(बलबीर पुंज) माननीय बराक ओबामा जी, अपने 3 दिवसीय भारत दौरे के अंतिम दिन दिल्ली के सिरीफोर्ट सभागार में आप ने हमें मजहबी कट्टरता को लेकर चेताया, उसके लिए आपका धन्यवाद। मजहबी सहिष्णुता की वकालत करते हुए आपने कहा, ‘‘हर व्यक्ति को बगैर किसी डर, भेदभाव या दबाव के धार्मिक मान्यताओं के पालन की आजादी होनी चाहिए। भारत भी तब तक सफल होता रहेगा, जब तक वह मजहबी आधार पर नहीं बंटेगा।’’

मान्यवर, इन शब्दों के लिए आपका कोटि-कोटि साधुवाद। आपके देश ने तो केवल 9/11 की त्रासदी के रूप में मजहबी वहशीपन का एक छोटा-सा नमूना देखा है, हमने तो इसको लगभग एक हजार वर्ष तक भोगा और जिया है। असहिष्णुता और मजहबी उत्पीडऩ के साथ भारत का परिचय तब हुआ जब 8वीं सदी के पूर्वाद्र्ध में अरबों ने सिंध को जीता और उसके 3 शताब्दी बाद महमूद गजनवी ने न केवल भारत में घुसकर भयंकर लूटपाट की, बल्कि मजहबी घृणा से प्रेरित होकर हिन्दुओं के मानस्थलों और मंदिरों को ध्वस्त किया।

उसके 2 शताब्दी बाद मोहम्मद गोरी ने भी यही काम किया। 11वीं सदी के पूर्वाद्र्ध में भारत पर आक्रमण से पूर्व गजनवी के राजसिंहासन पर महमूद गजनवी की जब ताजपोशी हुई तो उसने सार्वजनिक रूप से यह शपथ ली थी कि वह प्रतिवर्ष काफिरों के खिलाफ जेहाद की जंग छेड़ेगा। तब से लेकर आज तक मजहबी कट्टरता कभी औरंगजेब के रूप में और कभी ओसामा बिन लादेन, दाऊद इब्राहिम, हाफिज सईद और पाकिस्तान के रूप में भारत को लहूलुहान करती रही है।

मजहबी आधार पर ही कुछ सदियों पूर्व अफगानिस्तान हमसे बिछड़ गया। सन् 1947 में फिर से मजहबी कट्टरता के कारण हमारा रक्तरंजित विभाजन हुआ। मजहब के नाम पर पैदा हुआ पाकिस्तान उसी मजहब के नाम पर अब भारत को हजार घाव देकर हर दूसरे दिन लहूलुहान कर रहा है। मान्यवर, आपके इस कथन का अर्थ हमसे बेहतर कौन समझ सकता है? 

राष्ट्रपति महोदय, पाकिस्तान का जन्म भारत की कोख से ही हुआ था। भारत में स्वाधीनता के बाद से अभी तक प्रजातंत्र और सनातनी बहुलतावाद अक्षुण्ण रहा है। वहीं पाकिस्तान में जनतंत्र का पौधा अभी भी जड़ नहीं पकड़ पाया है। भारत इसलिए लोकतांत्रिक और पंथनिरपेक्ष नहीं है कि हमारे संविधान में ये व्यवस्थाएं निहित हैं, हमारा पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक संविधान भारत के उस दर्शन को प्रतिबिंबित करता है, जो इस वैदिक सूक्त में है ‘‘एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति’’। उसी सनातनी जीवन मूल्यों ने हमें सारे संसार को एक परिवार (वसुधैव कुटुम्बकम्) समझने की शिक्षा दी।

भारत का बंटवारा मजहबी जुनून में हुआ और पाकिस्तान ने खुद को इस्लामी राष्ट्र घोषित कर लिया। बहुत स्वाभाविक होता यदि तब भारत भी अपने आप को हिन्दू राष्ट्र घोषित कर लेता परन्तु ऐसा नहीं हुआ। और होना संभव भी नहीं था क्योंकि मजहब पर आधारित राजसत्ता की अवधारणा भारत की सनातन और कालजयी संस्कृति के विपरीत है। वास्तव में जब तक यहां पर हिन्दुत्व का दर्शन रहेगा, तभी तक इस देश की सार्वभौमिकता, अखंडता और उसमें बहुलतावाद जैसे मूल्य अक्षुण्ण रहेंगे।

देश के जिस भाग में भी हिन्दुत्व कमजोर हुआ, वह भाग या तो भारत से पृथक हो गया या वहां अलगाववादी आंदोलनों ने पैर जमा लिए। वास्तव में विश्व के इस भाग में हिन्दुत्व और इस देश में लोकतंत्र और पंथनिरपेक्षता एक-दूसरे के पर्याय हैं। जिस सभ्यता-संस्कृति में संविधान को क्रियाशील रहना है, उसकी मूल प्रकृति और प्रवृत्ति से साम्य नहीं रखने वाला संविधान कभी भी दीर्घजीवी नहीं रह सकता। इसीलिए पाकिस्तान में ‘पंथनिरपेक्षता’ और ‘प्रजातंत्र’ जड़ नहीं पकड़ सके।

महामहिम, जिन क्षेत्रों को मिलाकर  पाकिस्तान बनाया गया, उनमें कभी वेदों की ऋचाएं सृजित हुईं। सनातन संस्कृति की जन्मभूमि होने के कारण उस भूक्षेत्र में हिन्दू-सिखों के सैंकड़ों मंदिर और गुरुद्वारे थे, जिनमें से कई आध्यात्मिक और ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण थे। आज वहां क्या स्थिति है? विभाजन के दौरान पाकिस्तान की आबादी में हिन्दू-सिखों का अनुपात 20-22 प्रतिशत के लगभग था, जो आज घटकर 1 प्रतिशत से भी कम रह गया है। यह स्थिति पाकिस्तान में क्यों आई? वह क्या है, जो पाकिस्तान को भारत की मूल व सनातन संस्कृति से खुद को अलग करने की प्रेरणा देता है? इसके विपरीत भारत में मुसलमानों की आबादी पाकिस्तान से अधिक है और कुल जनसंख्या में उनका प्रतिशत निरंतर बढ़ रहा है। क्यों?

मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान का सपना एक मुस्लिम बहुल सैकुलर राष्ट्र के रूप में देखा था। 11 अगस्त, 1947 को पाकिस्तान की संविधान सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने अल्पसंख्यकों व बहुसंख्यकों को बराबरी के अधिकार देने की बात की थी। परन्तु उनकी यह उद्घोषणा उन सब मान्यताओं और घोषित लक्ष्यों के विपरीत थी जिसे मुस्लिम समाज ने गृहयुद्ध कर भारत के रक्तरंजित विभाजन से पाया था।

स्वाभाविक है कि जिन्ना के जन्नतनशीं होते ही पाकिस्तान फिर उसी रास्ते पर चल पड़ा, जो उसके जन्म की विचारधारा में निहित था। कट्टरपंथी मुसलमानों को यह अंदेशा था कि अंग्रेजों के चले जाने के बाद राजपाट का काम बहुसंख्यक हिन्दुओं के हाथ में आ जाएगा। जिस समुदाय पर उन्होंने कई सौ साल राज किया और उनसे गुलामों से भी बदतर सलूक कियाहो, उन शासितों के साथ वे बराबरी से कैसे रह सकते थे?

महोदय, पाकिस्तान के निर्माण की नींव तो 1947 से बहुत पहले रखी गई थी। 16 मार्च, 1888 को सर सैयद अहमद खान ने मेरठ की एक सभा में कहा था, ‘‘क्या यह मुमकिन है कि दो कौमें - हिन्दू और मुसलमान एक ही गद्दी पर बैठें और ताकत में बराबर हों? बेशक नहीं। यह जरूरी है कि उनमें से एक-दूसरे को शिकस्त दे। जब तक एक कौम दूसरे को जीत न ले, मुल्क में अमन कभी भी कायम नहीं हो सकता।’’ क्या कारण है कि अविभाजित भारत के 95 प्रतिशत मुसलमानों ने सर सैयद के बताए हुएमार्ग का अनुसरण किया और गांधी जी के ‘सर्व धर्म समभाव’ का मंत्र उन्हें पसंद नहीं आया? बहुलतावादी सनातनी संस्कृति के तिरस्कार से पैदा हुए विरोधाभासों के कारण ही पाकिस्तान आज जड़विहीन हो गया है।

सहिष्णु सनातनी जीवन मूल्यों और बहुलतावाद पर आस्था के कारण ही आज भारत विश्व पटल पर सम्मान के साथ खड़ा है। रोम, मिस्र, यूनान आदि सभ्यताएं काल के गाल में समा गईं, किन्तु हिन्दू सभ्यता नित नूतन है, अर्थात् सनातन है; क्योंकि भारत का सतत् अस्तित्व हिन्दू दर्शन पर आधारित है। भारत और हिन्दुत्व की पहचान किसी एक पंथ या पूजा पद्धति से नहीं जोड़ी जा सकती। हिन्दू दर्शन में अनंत काल से विचार-विमर्श और श्रेष्ठ चिंतन के आदान-प्रदान की दीर्घ परम्परा रही है। जबकि यूरोप में रोमन साम्राज्य की छत्रछाया में ईसाइयत ने मूर्तिपूजकों के साथ लड़ाई लड़ खुद को स्थापित किया।

लिथुआनिया में 14वीं सदी तक मूर्तिपूजन विद्यमान था, किन्तु ईसाइयत उसे निगल गई। वह एक बर्बर सामूहिक नरसंहार का दौर था, जब श्वेत ईसाइयत लेकर अमरीका पहुंचे और वहां के निवासियों को ईसाई बनाया। मध्यकाल इस्लामी बर्बरता और हिंसा के बल पर मतांतरण का साक्षी है। इस तरह की असहिष्णुता के लिए हिन्दू दर्शन व परम्परा में कभी कोई स्थान नहीं रहा है।

भारत में ईसाई मत लगभग 2000 वर्ष से है। कई सदियों तक ईसाई मतावलम्बियों और स्थानीय लोगों में कोई विवाद नहीं हुआ और ईसाई मत भारत के अन्य मत-मतांतरों के साथ पल्लवित-पुष्पित होता रहा। समस्या तब पैदा हुई जब क्रूसेड के नाम पर पुर्तगीज, डच और अंग्रेज भारत के तटों पर उतरे और बर्बर तरीके से लोगों को मसीह के चरणों में शरण लेने के लिए बाध्य किया।

सन् 1813 में इंगलैंड की प्रोटेस्टेंट चर्च के दबाव में ईस्ट इंडिया कम्पनी के चार्टर में परिवर्तन करके कम्पनी को कहा गया कि वह अपने संसाधनों से ब्रिटिश प्रोटेस्टेंट मिशनरियों को स्थानीय लोगों का मत परिवर्तन करने में सहयोग दे। फलस्वरूप अंग्रेज सरकार ने चर्च संबंधी अलग विभाग की स्थापना की और उसके माध्यम से चर्च के मतांतरण कार्यक्रम का भरपूर सहयोग किया। यहां एक बार फिर विदेशी सहायता से मजहब ने भारत के लोगों को बांटने का घृणित काम किया।

महोदय, हमें इस बात का बहुत संतोष है कि आपने अपने भाषण में मार्टिन लूथर किंग के अतिरिक्त भारत के 2 महान सपूतों, स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी की चर्चा की। ये दोनों महापुरुष ऋषि परम्परा के थे और आशा है कि आप इनकी बात पर उचित ध्यान देंगे। स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी जैसे महापुरुषों ने जबरन या छलप्रपंच के बल पर होने वाले मतांतरण के खिलाफ आवाज उठाई।

मान्यवर, भारत की कालजयी सनातनी मजहबी परम्परा सदियों से भय, लालच और धोखे की शिकार रही है। अंग्रेज सरकार के सत्ता पर आने के बाद ईसाई मिशनरियों ने हिन्दुओं की आस्था का जहां माखौल उड़ाया, वहीं उनके मानबिंदुओं पर चोट भी की। इस बीमारी का संज्ञान गांधी जी ने बहुत गंभीरता से लिया था। गांधी जी से मई, 1935 में एक मिशनरी नर्स ने भेंट वार्ता में पूछा कि क्या आप मतांतरण के लिए मिशनरियों के भारत आगमन पर रोक लगाना चाहते हैं तो जवाब में गांधीजी ने कहा था, ‘‘अगर सत्ता मेरे हाथ में हो और मैं कानून बना सकूं तो मैं मतांतरण का यह सारा धंधा ही बंद करा दूं।

मिशनरियों के प्रवेश से उन हिन्दू परिवारों में, जहां मिशनरी पैठे हैं, वेशभूषा, रीति-रिवाज और खान-पान तक में अंतर आ गया है।’’ मिशनरी मत प्रचार के संदर्भ में डा. अम्बेदकर ने कहा था, ‘‘यह एक भयानक सत्य है कि ईसाई बनने से अराष्ट्रीय होते हैं। साथ ही यह भी तथ्य है कि ईसाइयत, मतांतरण के बाद भी जातिवाद नहीं मिटा सकती।’’ स्वामी विवेकानंद ने इससे बहुत पहले ही मतांतरण के दुष्परिणामों की चेतावनी देते हुए कहा था, ‘‘जब हिन्दू समाज का एक सदस्य मतांतरण करता है तो समाज की एक संख्या कमनहीं होती, बल्कि हिन्दू समाज का एक शत्रु बढ़ जाताहै।’’ हमारे सामने पूर्वोत्तर के राज्यों का उदाहरण है। ईसाइयत बहुल इन राज्यों में अलगाववाद तेजी से बढ़ा है।

राष्ट्रपति महोदय, आपने स्वामी विवेकानंद को याद किया। 11 सितम्बर, 1893 को शिकागो में अंतर्राष्ट्रीय धर्मसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, ‘‘मुझे गर्व है कि मैं ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकार्यता का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ  सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं।’’

आगे उन्होंने कहा था, ‘‘साम्प्रदायिकता, कट्टरता और हठधर्मिता लम्बे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजे में जकड़े हुए है। इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है, कितनी ही बार यह धरती खून से लाल हुई है, कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और कितने ही देश नष्ट हुए हैं। अगर ये भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता।

महोदय, उन्होंने आगे तब यह भी कहा था, ‘‘लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है, मुझे पूरी उम्मीदहै कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिता, हर तरह के क्लेश, चाहे वह तलवार से हों या कलम से, और हर एक मनुष्य, जो एक ही लक्ष्य की तरफ बढ़ रहे हैं; के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा।’’

महामहिम, स्वामीजी की भविष्यवाणी का यह भाग अभी पूरा होना शेष है। आज भी इस्लाम के नाम पर तलवार के माध्यम से और चर्च का एक भाग हिन्दू समाज के घटकों को छल-फरेब और प्रलोभन के सहारे मतांतरण कर उन्हें ‘पाप से मुक्त’ कराने के अभियान में व्यस्त है। महामहिम, इसमें सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि ऐसे कई संगठनों को आपके देश और आपकी सरकार से न केवल वित्तीय रूप से, बल्कि कई अन्य तरीकों से भी मदद मिलती है। इनमें से बहुत सारे गैर सरकारी संगठन (एन.जी.ओ.) के रूप में काम करते हैं और स्पष्टत: मजहब का उपयोग करके न केवल देश के विकास को बाधित करते हैं, बल्कि साम्प्रदायिक सद्भाव को भी खराब करते हैं और भारत को मजहब के नाम पर तोडऩे का काम भी करते हैं।

महोदय, यदि इस मान्यता को आप दिल से स्वीकारते हैं कि ईश्वर तक पहुंचने के कई मार्ग हो सकते हैं और वे सभी अपने-अपने स्थान पर श्रेष्ठ हैं तो चर्च को गैर ईसाइयों को मतांतरित करने की क्या आवश्यकता है? महामहिम, आप ठीक कहते हैं, जब तक मजहब के नाम पर भारत को बांटने का यह षड्यंत्र चलता रहेगा, तब तक भारत सफल नहीं हो सकता। आपका पुन: साधुवाद।

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