जानवरों को भी होता है ‘हार्टअटैक’

Wednesday, Jan 28, 2015 - 03:12 AM (IST)

(मेनका संजय गांधी) मैं अभी भी जूबीक्यूटी किताब पढ़ रही हूं और उसमें एक अध्याय लोगों तथा पशुओं में दिल का दौरा पडऩे की समानता के संबंध में है। इसके लेखक के अनुसार, जो खुद एक चिकित्सक तथा एक शिक्षण अस्पताल में इन्टर्नल मैडीसिन के प्रमुख हैं, जब कभी कोई भूकम्प या सुनामी अथवा युद्ध जैसी घटना होती है, लोगों में सामान्य से कहीं अधिक दिल के दौरे पड़ते हैं। छाती में दर्द और मौतों की संख्या में वृद्धि होती है।

उदाहरण के लिए जब ईराकी सेनाओं ने तेल अवीव पर स्कड मिसाइलें छोड़ीं और किसी नागरिक के मारे जाने की संभावना थी तो लोगों को सामान्य से कहीं अधिक संख्या में दिल का दौरा पड़ा था। भय तथा डर एक भयानक अस्त्र है। मैं यह जानती हूं क्योंकि मैंने अपना अधिकांश जीवन इसके साए में बिताया है और बीमार तथा मर रहे पशुओं के साथ काम करना आपको कमजोर बनाता है तथा आपका दिल तोड़ देता है। 9/11 के हमले के समय दौरान अमरीका में दिल के दौरों की संख्या सबसे अधिक हो गई थी। डाक्टर कहते हैं कि खेल देखने वाले लोग अक्सर जोश से गिर जाते हैं।

परन्तु क्या केवल मानव ही अकेले हैं जिनकी डर के कारण मौत होती है? जी नहीं। बहेलिए पाते हैं कि जब वे जंगली पक्षियों को पकडऩे के लिए जाल फैंकते हैं और फिर उन्हें पिंजरों में बंद करने के लिए आगे बढ़ते हैं, तो उनमें से कइयों की एकाएक पकड़े जाने के भय से मृत्यु हो जाती है। दिल और दिमाग अनवरत रूप से जुड़े हुए होते हैं। लोगों की मृत्यु भावनात्मक तनाव से हो जाती है- भले ही उनके दिल तथा धमनियां साफ और स्वस्थ हों।

ऐसे मामलों में डाक्टरों को दिल के निचले हिस्से में बिजली के बल्ब के आकार का उभार दिखता है, जिसे अब टैकटसुबो के नाम से जाना जाता है- इसका प्रत्यक्ष भौतिक प्रमाण कि गंभीर तनाव (भय, दुख, झटका, गहन नकारात्मक भावनाएं) दिल के आकार तथा उसके रक्त प्रवाह करने के तरीके को बदल सकता है। अब इसे ‘‘दिल-टूटने के लक्षण’’ कहा जाता है। न केवल मानव, बल्कि प्रत्येक पशु में यह होता है। अपने मृत मित्र या बच्चे के साथ लेटे रहने वाले और कुछ ही दिनों के बाद मर जाने वाले किसी हाथी को देखें। यह टैकटसुबो है। कैटिचोलामाइन नामक तनाव हारमोन रक्त की धारा में बह कर आ जाते हैं और मांसपेशियों में जहर घोलते हैं, थक्के बनाते हैं तथा दिल में जोर से और खतरनाक ढंग से धड़कनें पैदा करते हैं।

चिडिय़ाघरों में हिरन की मृत्यु एक बाड़े से दूसरे बाड़े में ले जाते समय हो जाती है। किसी हिरन को बेहोश किए जाने पर अन्य हिरन उसके आस-पास भागने लगते हैं और दिल का दौरा पडऩे से उनकी मृत्यु हो जाती है। चिडिय़ाघर के अनभिज्ञ अधिकारी इसका दोष आवारा कुत्तों को देते हैं।

किसी पीछा किए जा रहे पशु में कैटिचोलामाइन इतने बढ़ जाते हैं कि वे ढांचे तथा दिल की मांसपेशियों पर छा जाते हैं और उन्हें तोड़ देते हैं। ढांचे की मांसपेशियां खुल जाती हैं और उनके प्रोटीन, रक्त की धारा में घुस कर गुर्दों को बंद कर देते हैं। मानव तथा पशुओं दोनों में समान होने वाला एक लक्षण जंग वाले रंग का मूत्र है। कड़े परिश्रम वाले खेलकूद के बाद अक्सर ऐसा होता है- दौड़ के लिए प्रयोग किए जाने वाले घोड़े, कुत्ते तथा अन्य पशु चक्कर खा कर गिर जाते हैं तथा उनकी मौत हो जाती है।

जिन पशुओं का पीछा शिकार हेतु भक्षकों, शिकारियों, प्राणी वैज्ञानिकों तथा वन्यजीव ‘‘विशेषज्ञों’’ द्वारा किया जाता है, उनकी मृत्यु तनाव के कारण हो जाती है। कुछ भूमि पर लुढ़क जाते हैं तथा उनकी तत्काल मृत्यु हो जाती है। कुछ हफ्तों तक तड़पते रहते हैं और दिशाहीन तथा हतोत्साहित रहते हुए उनकी मृत्यु हो जाती है। पुनर्वासित किए जाने वाले जिराफों की तुरन्त मृत्यु हो जाती है। हिरनों की मृत्यु बढ़ कर 50 प्रतिशत तक हो सकती है। यहां तक कि पीछा किए जाने और पकड़े जाने वाले जंगली घोड़ों की भी मृत्यु हो जाती है और वैज्ञानिक इसका कारण कैप्चर मायोपैथी बताते हैं। बंदी बनाए जाने के पश्चात मृत्यु के आंकड़े 10 प्रतिशत हैं- एक अत्यधिक उच्च आंकड़ा। पक्षियों में यह और अधिक है।

मानव पकड़े जाने तथा बाधित किए जाने से इतना डरते हैं कि नई जेलों में एकाएक दिल का दौरा पडऩे से होने वाली हत्याओं की संख्या काफी अधिक है। इसी प्रकार, किसी पशु के लिए बंदी बनाए जाने या बाधित किए जाने से डरावना और कुछ नहीं है। इसका अर्थ वे लगाते हैं कि उन्हें मार दिया जाएगा। दिमाग तथा दिल पर तत्काल अधिक बोझा पड़ जाता है। यहां तक कि घड़ों में बंद झींगे डर के मारे मर जाते हैं। उनका मांस रंगहीन होता है और जल्दी सड़ता है। उत्तराखंड में पकड़े जाने वाले तेन्दुए कभी भी बंदी बनाए जाने पर जिंदा नहीं बचते। वे चिडिय़ाघर में ले जाते समय मर जाते हैं- अक्सर यह माना जाता है कि बेहोशी की दवा की मात्रा गलत हो गई होगी, परन्तु तेन्दुए द्वारा अपने पिंजरे के साथ टकराने तथा सिर मारने को देखें और आप पाएंगे कि पशु इतना डर जाता है कि वह अपनी हत्या होने के बजाय आत्महत्या कर लेता है। भालू तथा भेडिय़ा भी इसी प्रकार की प्रतिक्रिया दिखाते हैं।

शोर का भी ऐसा ही प्रभाव होता है। भयावह बेतुके शोर तथा दीवाली के पटाखों से हजारों पक्षियों तथा पशुओं की मृत्यु अपने घोंसलों तथा वृक्षों में हो जाती है, मिसाइल द्वारा मारे जाने से नहीं बल्कि भयावह एकाएक होने वाले शोर के कारण डर से। हरेक शहर में अक्तूबर-नवम्बर के दौरान 20 प्रतिशत पक्षी समाप्त हो जाते हैं और इसकी भरपाई कभी नहीं हो सकती, यही कारण है कि आपको अपने आसपासअब पक्षी नहीं दिखते हैं। खुले सीवरों में दुबक कर रहने वाले कुत्तों की मौत हो जाती है। अपने स्वामी के घर में पलंग के नीचे छुपे कुत्ते कांपते हैं तथा मर जाते हैं।

खरगोश तथा भेड़ भी ऐसे ही कुछ कारणों से मरते हैं। खरगोशों की मृत्यु रॉक संगीत लगाए जाने पर एकाएक हो जाती है। भेड़ तथा बकरी की मृत्यु हैलीकॉप्टर की आवाज से भी हो जाती है। अक्सर यह माना जाता है कि संगीत पशुओं के लिए अच्छा होता है परन्तु चिडिय़ाघर के निकट होने वाले समारोह अक्सर कई अचानक होने वाली मौतों में परिणत होते हैं। डल्मेशियन कुत्ते विशेष रूप से एकाएक शोर से होने वाली मृत्यु के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं।

पशु के डर को समझे जाने की आवश्यकता होती है ताकि बंदी बनाए गए या पकड़े गए पशु जीवित रह सकें। हमें यह समझना चाहिए कि दिल तथा दिमाग के मध्य संबंध मानव तथा सबसे सूक्ष्म जीवों में एक जैसा ही है।

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