अमरीकी कम्पनियां नहीं चाहतीं ‘दवा कीमतों पर नियंत्रण’

Monday, Jan 26, 2015 - 01:52 AM (IST)

(पी.डी. शर्मा) संसार के सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र अमरीका तथा संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत, इन दोनों देशों के शीर्ष नेताओं ने नई दिल्ली में लगभग 90 मिनट के लिए आर्थिक मामलों पर चिंतन मनन किया। यह मीटिंग ऐसे समय में हुई है जब सारे संसार की आर्थिकता डगमगा रही है। इस समय संसार की जी.डी.पी. औसतन 2.5 प्रतिशत की वृद्धि दर से बढ़ रही है और संसार की अर्थव्यवस्था मंदी के दौर से गुजर रही है। अमरीका को छोड़कर किसी भी देश की आर्थिक स्थिति उत्साहजनक नहीं है।

सबसे चिंताजनक बात यह है कि चीन जिसका संसार की आर्थिकता में सबसे बड़ा योगदान है उसकी भी आर्थिक स्थिति इस समय ठीक नहीं है। संसार की आर्थिकता में चीन का योगदान 33 प्रतिशत है और अमरीका का योगदान केवल 20 प्रतिशत का है। चीन की हालत इसीलिए चिंताजनक है क्योंकि उस पर कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है। पहले जब चीन एक डालर का कर्ज लेता था तो एक डालर की ही उसकी आर्थिकता में वृद्धि होती थी परन्तु अब एक डालर आर्थिकता वृद्धि के लिए उसे 4 डालर का कर्ज लेना पड़ रहा है।
 
इस परिपे्रक्ष्य में अमरीका तथा भारत अपने लटक रहे महत्वपूर्ण आर्थिक मुद्दों को सुलझाने का प्रयत्न कर रहे हैं। दो ऐसे मुद्दे हैं जो अमरीका और भारत दोनों को अलग-अलग तरह से प्रभावित करते हैं। पहला मुद्दा दवाइयों की कीमतों का है। अमरीका की दवाइयां बनाने वाली कम्पनियों की ‘लाबी’ अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ध्यान में लाने के लिए अपना एजैंडा बनाने में लगी हुई है। यह कम्पनियां चाहती हैं कि भारत में व्यापार करने के लिए उनके लिए ‘प्रक्रियाएं तथा कानून’ नरम हों। विशेष तौर पर उनका जोर दवाइयों की कीमतों पर है।
 
दवाइयां बनाने वाली अमरीकी कम्पनियां भारत की संबंधित रैगुलेटरी अथॉरिटी के साथ दवाइयों की कीमतों के बारे में सम्पर्क में हैं क्योंकि भारत में दवाइयों की कीमतें कम होने के कारण अमरीकी कम्पनियों के लाभ पर असर पड़ रहा है। ये कम्पनियां राष्ट्रपति ओबामा पर इस मामले में पूरा दबाव डाल रही हैं।
 
भारत में दवाइयों की कीमतें रैगुलेटरी अथॉरिटी के द्वारा निर्धारित की जाती हैं जबकि अमरीका में कम्पनियां स्वयं कीमतें निर्धारित करती हैं। हाल ही में ‘यूनाइटेड स्टेट इंटरनैशनल ट्रेड कमीशन’ ने यह विचार व्यक्त किया था कि भारत में कीमतों पर नियंत्रण के कारण अमरीकी दवाइयां बनाने वाली कम्पनियों पर कुप्रभाव पड़ रहा है।
 
भारत की ‘नैशनल फार्मास्यूटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी’ (एन.पी.पी.ए.) ने हाल ही में 52 दवाइयों को एसैंशियल मैडीसिन (जीवन रक्षक) के अधीन लाकर उनकी कीमतें निर्धारित की थीं। अमरीकन तथा दूसरी विदेशी कम्पनियों को डर है कि भारत की एन.पी.पी.ए. ऐसी ही और एक सूची तैयार कर रही है। इस प्रकार ये कम्पनियां राष्ट्रपति ओबामा की भारत यात्रा का पूरा लाभ उठाने का प्रयत्न कर रही हैं।
 
सनद रहे कि भारत की जो दवाइयां बनाने वाली कम्पनियां अमरीका में काम कर रही हैं उन्हें अमरीका की रैगुलेटरी अथॉरिटी के सख्त कानूनों का सामना करना पड़ा था। अमरीका की फाइजर एबोट लैबोरेट्रीज, मर्क एंड कम्पनी, माइनल गिलैड, बैक्सटर, अलरगन आदि दवाइयां बनाने वाली कुछ बड़ी कम्पनियां इस समय भारत में काम कर रही हैं।
 
इससे पहले जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पिछले वर्ष सितम्बर में अमरीका की यात्रा पर गए थे तब ये कम्पनियां एन.पी.पी.ए. द्वारा 100 दवाइयों पर लगाए गए कंट्रोल की वापसी के लिए जोर डाल रही थीं। अब एन.पी.पी.ए. सभी जीवन रक्षक दवाइयों को प्राइस कंट्रोल के अधीन लाना चाहती है।
 
अमरीकन दवा कम्पनियों को यह जानना जरूरी है कि भारत का ‘फार्मास्यूटिकल उद्योग’ तेजी से बढ़ रहा है। इस उद्योग से 40 बिलियन डालर का राजस्व प्राप्त हो रहा है जिसमें से 15 बिलियन डालर का निर्यात हो रहा है। इस उद्योग में 20 हजार से भी ज्यादा इकाइयां काम कर रही हैं जो 2 करोड़ 90 लाख लोगों को रोजगार प्रदान कर रही हैं।
 
भारत एक गरीब देश है और इस परिप्रेक्ष्य में यह अत्यधिक जरूरी है कि दवाइयों की कीमतें जितनी कम हो सकें उतना ही अच्छा होगा क्योंकि आम आदमी को भारत में हैल्थ केयर के मामले में अमरीकी नागरिकों की तरह कोई और सहायता नहीं मिलती है।      
 
Advertising