पश्चिमी जगत को अन्य ‘संस्कृतियों व संवेदनाओं’ की गहरी समझ हासिल करने की जरूरत

punjabkesari.in Wednesday, Jan 21, 2015 - 02:41 AM (IST)

(आरिफ निजामी) फ्रांसीसी व्यंग्य पत्रिका ‘शार्ली ऐब्दो’ ने एक बार फिर हजरत मोहम्मद साहिब का मजाक उड़ाने वाले कार्टून छापे हैं, हालांकि ऐसा इसने अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर किया है। इसके नए संस्करण की रिकार्ड 50 लाख प्रतियां प्रकाशित हुईं। दूसरी ओर दुनिया भर के मुस्लिमों के भारी बहुमत ने बेशक इस पत्रिका के सम्पादक सहित 12 पत्रकारों की जान लेने वाले आतंकी हमले की निन्दा की लेकिन फिर भी वे अपने मजहब की हो रही निन्दा से बहुत सकते में हैं। सैमुअल हंटिंग्टन द्वारा 1996 में पेश किया गया सिद्धांत कि ‘‘उत्तर-शीतयुद्ध काल में लोगों की सांस्कृतिक और मजहबी पहचानें ही टकराव का मुख्य स्रोत होंगी’’ वर्तमान में पूरी प्रचंडता से अपना जलवा दिखा रहा है।

लेकिन पैरिस में आतंकी हमलों के परिप्रेक्ष्य में पश्चिमी जगत में इस्लाम से भयभीत होने की बढ़ती भावना के बावजूद विवेकशीलता के स्वर भी उठ रहे हैं। ‘शार्ली ऐब्दो’ के पूर्व संस्थापक सम्पादकों में से एक ने कत्ल हुए सम्पादक पर दोष लगाया है कि उन्होंने एक के बाद एक भड़काऊ कार्टून प्रकाशित करके ‘‘पत्रकारों की टीम को मौत की ओर घसीटा।’’ यह कोई संयोग मात्र नहीं कि यह पत्रिका घटिया स्तर के मजाक और व्यंग्य के नाम पर यहूदीवाद को बढ़ावा देने और साथ ही साथ इस्लाम के प्रति डर की भावना का प्रचार का मुख्य स्रोत बन गया है।

विडम्बना यह है कि ‘शार्ली ऐब्दो’ पर हमले की प्रतिक्रिया के परिप्रेक्ष्य में पैरिस स्थित ‘अरब वल्र्ड इंस्टीच्यूट’ में बोलते हुए फ्रांसीसी राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांदे ने एक बुनियादी सच्चाई बखान की कि मुस्लिम ही मजहबी जुनून, मूलवाद और असहिष्णुता के मुख्य शिकार बन रहे हैं। उनका यह कहना बिल्कुल सही है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और ईराक में महिलाओं और बच्चों सहित जो लोग मर रहे हैं उनमें भारी संख्या मुस्लिमों की ही है। परन्तु दुर्भाग्य की बात है कि मुस्लिम देशों की सरकारें व उनके सुरक्षा दृष्टिकोण ही मुख्यतौर पर मुस्लिमों की इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं। कई दशकों की लम्बी तंद्रा और आतंकियों के साथ मिलीभगत के बाद आखिर पाकिस्तानी सत्ता तंत्र की नींद खुली है और उसने हर रंग के आतंकवादियों के सफाए का अभियान छेडऩे का फैसला किया है।

मजहबी जुनूनियों के बारे में तो टिप्पणियों और हो-हल्ले की कोई कमी नहीं लेकिन फिर भी हमें पश्चिमी मीडिया द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर दूसरे मजहबों के अनुयायियों को गलत रंग में पेश करने का भी अच्छी तरह संज्ञान लेना चाहिए। पश्चिमी मीडिया की अधिकतर हस्तियों के बयानों और आलेखों में न केवल मुस्लिमों बल्कि सभी गैर पश्चिमी संस्कृतियों की घोर उपेक्षा की जाती है।

मैं तो यह कहना चाहूंगा कि पश्चिमी जगत को अन्य राष्ट्रों की संस्कृति और संवेदनाओं की गहरी समझ हासिल करने की जरूरत है। हाल ही में सोनी पिक्चर्स ने ‘द इंटरव्यू’ के नाम से एक फिल्म बनाई जो उत्तर कोरियाई तानाशाह किम जोंग- उन के कत्ल की कल्पित साजिश की कहानी पर आधारित है। प्रचार तो यह किया गया था कि यह केवल मनोरंजन और हंसी-मजाक के लिए बनाई गई है, लेकिन उत्तर कोरिया के तानाशाह के समर्थकों के साथ-साथ उन्हें नफरत करने वाले कोरियाइयों ने भी अपने राष्ट्र की गरिमा को आघात पहुंचाने वाली इस फिल्म का जोरदार विरोध किया। जब सोनी पिक्चर्स के कम्प्यूटर हैक किए गए तो राष्ट्रपति ओबामा ने तत्काल उत्तर कोरियाई हैकरों को दोष देते हुए कहा कि वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को आहत कर रहे हैं। बाद में पता चला कि हैकिंग उत्तर कोरियाई हैकरों द्वारा नहीं बल्कि कम्पनी के अन्दर से ही हुई थी और यह कम्पनी के नाराज पूर्व कर्मचारियों का कारनामा था। यह सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों की बात नहीं बल्कि पश्चिमी देशों के रवैये से अभी तक साम्राज्यवादी मानसिकता की दुर्गंध आ रही है। (मंदिरा पब्लिकेशन्स)


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