आतंकवाद के विरुद्ध ‘आधे मन से’ नहीं लड़ा जा सकता

Saturday, Jan 17, 2015 - 05:41 AM (IST)

(हरि जयसिंह) पैरिस में ‘अल्ला-हू-अकबर’ के नारे लगाते हुए नकाबपोश बंदूकधारियों द्वारा फ्रांसीसी व्यंग्य पत्रिका ‘शार्ली ऐब्दो’ के सम्पादक सहित 10 पत्रकारों का नरसंहार दुनिया को एक बार फिर यह चेताता है कि आजादी और विवेक की आवाजों का गला घोंटने के सपने लेने वाले अलकायदा और तालिबान के आतंकवादियों के विरुद्ध न तो आधे मन से लड़ा जा सकता है और न ही चुनिंदा आधार पर।

संवेदनशील मजहबी मुद्दों का मजाक उड़ाते समय किसी न किसी हद तक संयम की जरूरत है। लेकिन कोई भी मजहब उग्रवाद के विषय पर अपनी भावनाएं और विचार व्यक्त करने के लोगों के अधिकार को रद्द करते हुए जघन्य हत्याओं की वकालत नहीं कर सकता। इस आलेख का उद्देश्य उग्रपंथी तत्वों का असली चेहरा दिखाना है, ताकि वे सर्वकालिक व सार्वभौम सभ्य जीवन मूल्यों के विरुद्ध काम करने वाले अपने स्वविनाशक रास्ते से हट जाएं और खुद को सुधार लें।

विश्व भर के 40 नेताओं सहित हजारों-लाखों लोगों ने इस आतंकी हमले में मारे गए 17 लोगों को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए पैरिस की गलियों में एकता मार्च निकाला। फ्रांसीसी राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांदे ने इस सफल रैली पर टिप्पणी करते हुए भावावेश में कहा, ‘‘आज पैरिस विश्व की राजधानी है।’’ पैरिस सचमुच जनअभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वैश्विक राजधानी है, जिसकी शुरूआत 1789 की फ्रांसीसी क्रांति ने ‘स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे’ का उद्घोष करके की थी। बेशक आतंकवाद के विरुद्ध लडऩे के संबंध में अमरीका सहित पश्चिमी जगत की पहुंच अलग-अलग मामलों में अलग-अलग है, फिर भी मेरी दिली कामना थी कि भारत भी जेहादी उग्रवाद के विरुद्ध पैरिस रैली में शामिल हुआ होता।

नाइजीरिया में जेहादी आतंकवादी गुट ‘बोको हराम’ द्वारा हाल ही में 2000 से भी अधिक लोगों की हत्या कर दी गई, लेकिन पश्चिमी देशों में से किसी ने इस पर मगरमच्छ के आंसू तक बहाने की भी कोशिश नहीं की। यहां तक कि पश्चिमी देश तब भी कोई परवाह नहीं करते जब सनातनपंथी सीरियन क्रिश्चियन आतंकी हमलों का शिकार होते हैं, क्योंकि वे रोमन कैथोलिक चर्च के प्रति वफादारी नहीं रखते।

2 दशक से भी अधिक समय से भारत जम्मू-कश्मीर और देश के अन्य भागों में पाक-प्रायोजित जेहादी हमलों की चोट झेल रहा है। इन चिन्ताजनक विचलनों में फंसी हुई दुनिया आज सभ्य समाज को इस्लामी उग्रवाद से मिल रही चुनौती के प्रति अधिक सजग हो गई है। 9/11 के हमले के सदमे ने अमरीकी मानसिकता को बदल दिया है लेकिन वाशिंगटन अभी भी अपने भू-राजनीतिक, रणनीतिक और आर्थिक हितों को आगे बढ़ाने के लिए पश्चिम एशिया व अफगान-पाक पट्टी सहित विश्व के विभिन्न स्थानों पर विरोधाभासी स्थितियों में उलझा हुआ है। विभिन्न पश्चिमी देशों के हितों में टकराव है और यही कारण है कि अलकायदा के उग्रवादियों के विरुद्ध दो टूक लड़ाई के मामले में अभी भी एक राय नहीं बन पाई।

हमारा ईमानदारी से यह मानना है कि सभ्य जगत के पास अलकायदा से जुड़े आतंकवाद का अभी भी कोई जवाब नहीं। अलकायदा ने अब एक नया ‘विस्फोटक नुस्खा’ (बम रैसिपी) तैयार किया है, जिसमें घरेलू उपयोग की चीजें प्रयुक्त की गई हैं और किसी धातु का इस्तेमाल नहीं किया गया। इसलिए हवाई अड्डों पर वह सुरक्षा जांच को गच्चा दे सकता है और जैट विमानों के यात्रियों को निशाना बना सकता है।

टैक्नोलॉजी निश्चय ही दोधारी तलवार है। इसलिए कमांडो-टाइप के आतंकी हमलों का मूल्यांकन व पुनर्मूल्यांकन आतंक निरोधी तकनीकी उपकरणों की सीमा से पार जाकर ‘विचारों की जंग’ और बहुआयामी जमीनी कार्रवाइयों के रूप में किए जाने की जरूरत है। आखिर हमारे लिए स्वतंत्रता इतनी अनमोल चीज है कि इसे नकाबपोश बंदूकधारियों के रहम पर नहीं छोड़ा जा सकता।

मानवीय चेहरे वाले आर्थिक विकास को गतिशील करने के लिए उदारवाद और वैश्वीकरण बहुत बढिय़ा बातें हैं। उदारवादी जीवन मूल्य हमारी चिन्तन प्रक्रिया का अवश्य ही हिस्सा होने चाहिएं, लेकिन सामंतवाद और दिमागी गुलामी की आयु लंबी करने वाली प्रत्येक कार्रवाई का पूरी शक्ति से विरोध करना होगा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इतनी कीमती है कि इसे अलकायदा के उग्रपंथियों की विकृत कार्रवाइयों और भयावह खुशफहमियों के रहम पर नहीं छोड़ा जा सकता।

विचारों और आदान-प्रदान के युद्ध के साथ-साथ आपसी अनुभवों को सांझा करने का काम भी जोर-शोर से करने की जरूरत है। मौजूदा मानसिक दीवारों और पूर्वाग्रहों को तहस-नहस करने का एक यकीनी तरीका यह है कि दुनिया के हर कोने में संचार टैक्नोलॉजी और सोशल नैटवर्किंग की सहायता से स्वतंत्रता और विवेकशीलता के पैर मजबूत किए जाएं।

इन्हीं दो बातों के कारण ही लोकतंत्र तब सबसे बेहतरीन ढंग से प्रफुल्लित होता है जब चिन्तनशील लोग (जिनमें कार्टूनिस्ट भी शामिल हैं) जनता का सही नेतृत्व करते हैं और उसके सामने कुंठाओं से मुक्त सच्चाई प्रस्तुत करते हैं। ऐसा कहने का यह अभिप्राय कदापि नहीं कि एक-एक बात पर अवश्य ही खुले मन से चर्चा होनी चाहिए और न ही यह चर्चा ‘अच्छे व बुरे आतंकवाद’ की भूल-भुलैयां में खोनी चाहिए। आतंकवाद बस आतंकवाद है और इसी रूप में इसका मुकाबला करना होगा न कि चुनिंदा मामलों में अलग-अलग पहुंच अपनाकर। फिर भी असहमति के स्वरों को पूरी तवज्जो और सम्मानपूर्वक सुने जाने की जरूरत है, न कि संदेह की दृष्टि से देखे जाने की।

पश्चिमी जगत अभी भी देशों की सीमाओं के आर-पार फैले हुए आतंकवाद के खतरनाक आयामों को पूरी तरह नहीं समझ पाया। कितने दुख की बात है कि बंदूकें लहराने वाले व विकृत मानसिकता के इस्लामी जेहादियों ने इस्लाम का मानववादी चेहरा अपहृत कर लिया है। अभी भी समय है कि हम सही को सही और गलत को गलत कहें।

यह उम्मीद लगाए रखना गलत है कि समय बीतने के साथ-साथ यह समस्या खुद-ब-खुद समाप्त हो जाएगी। केवल स्पष्ट रूप में अभिव्यक्त होने वाली राजनीतिक इच्छाशक्ति ही इस समस्या को हल कर सकेगी। क्या इस्लामी जगत पैरिस के संदेश को गंभीरता से आत्मसात कर सकेगा? 

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