पैट्रोल और डीजल को ‘सस्ता होने से’ क्या सरकार रोक रही है

Saturday, Jan 10, 2015 - 04:08 AM (IST)

(रवीश कुमार) उपभोक्ताओं का कोई अर्थशास्त्री नहीं होता। उनकी कोई सरकार भी नहीं होती है। चुनाव के दौरान थोड़े समय के लिए उपभोक्ताओं का आर्थिक-राजनीतिक दबाव बनता है लेकिन चुनाव समाप्त होते ही उनकी ताकत समाप्त हो जाती है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है दुनिया भर में कच्चे तेल के दामों में भारी गिरावट। भारत में जब जून 2014 से पहले तक कच्चे तेल का आयात 115 डालर प्रति बैरल के हिसाब से हो रहा था तब के पैट्रोल और डीजल के खुदरा दामों में और आज के दामों में खास फर्क नहीं है, लेकिन दुनिया भर में ङ्क्षढढोरा पीट दिया गया है कि पैट्रोल -डीजल सस्ता हो गया। सरकार और अर्थशास्त्री दोनों एक ही भाषा बोल रहे हैं। यहां तक कि विरोधी दल  भी उपभोक्ताओं के हित में दबाव नहीं बना रहे हैं।

8 जनवरी को भारत सरकार के पैट्रोलियम मंत्रालय ने बताया कि भारतीय बास्केट के लिए कच्चे तेल की कीमत 46.97 डालर प्रति बैरल हो गई है। यानी पिछले जून से लेकर इस जनवरी के बीच यह करीब 68 डालर प्रति बैरल सस्ता हुआ है। इस अनुपात में दाम बहुत कम गिरे हैं। जून में दिल्ली में पैट्रोल की कीमत 71 रुपए से कुछ अधिक थी। जनवरी में 63 रुपए 24 पैसे प्रति लीटर पैट्रोल मिल रहा है। सिर्फ 9 रुपए की कमी हुई है। सब दावा कर रहे हैं कि महंगाई कम हो गई है लेकिन मनमोहन सरकार में जब पैट्रोल 60 रुपए के पार हुआ था तभी इसके खिलाफ प्रदर्शन होने लगे थे। अब 63 रुपए को स्वाभाविक मान लिया गया है। क्या इसे और सस्ता नहीं होना चाहिए था?

मनमोहन सिंह की सरकार दलील देती थी कि अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल की कीमतें आसमान छू रही हैं जिसके कारण पैट्रोल महंगा हो रहा है। पैट्रोल और डीजल की कीमतें सरकार नहीं तय करती है तो फिर इनकी कीमतें बाजार के अनुपात में कम क्यों नहीं हो रही हैं? क्या सरकार पैट्रोल और डीजल को और सस्ता होने से रोक रही है? जब कच्चे तेल के दाम बढ़ते हैं तब तो उपभोक्ता से पाई-पाई वसूली जाती है लेकिन जब कम होते हैं तब क्यों नहीं पाई-पाई का लाभ उपभोक्ता को मिले? सरकार और अर्थशास्त्री दोनों जानते हैं कि आम जनता इन बारीकियों को समझ नहीं सकेगी। भारत के संदर्भ में दोनों बहुत हद तक सही भी हैं क्योंकि दुनिया के देशों में ऐसा होता तो लोग सड़कों पर उतर आते।

कच्चे तेल का दाम गिरा तो सरकार ने 3 बार एक्साइज ड्यूटी बढ़ा दी। यानी एक तरह से तेल कम्पनियों को पैट्रोल और सस्ता करने से रोक दिया। उपभोक्ताओं को समझा दिया गया कि खुदरा बाजार में दाम नहीं बढ़ा है, हमने सिर्फ तेल कम्पनियों से वसूला है। खुदरा बाजार में तेल का दाम एक हद से ज्यादा गिरेगा तो पैट्रोल-डीजल पर तरह-तरह के टैक्स से होने वाली सरकार की कमाई कम हो जाएगी। सरकार का बजट घाटा बढ़ जाएगा और वह विकास के काम के लिए पैसा नहीं जुटा पाएगी। यह ठीक है कि सरकार को राजस्व चाहिए लेकिन जनता की जेब की कीमत पर क्यों? यह क्यों बताया जा रहा है कि महंगाई कम हुई है जबकि उस अनुपात में पैट्रोल-डीजल के दाम तो कम ही नहीं हुए।
दूसरी तरफ तेल के दाम गिरने से दुनिया भर की अर्थव्यवस्था में संकट फिर से दस्तक दे रहा है। अमरीका ने अपने यहां पत्थरों से तेल निकालना शुरू तो कर दिया लेकिन दाम के गिरने से उसके लिए भी तेल निकालना फायदेमंद नहीं रहा। दुनिया में अमरीका और चीन कच्चे तेल के सबसे बड़े आयातक माने जाते हैं। चीन में भी कच्चे तेल की मांग कम हो गई है क्योंकि वहां की अर्थव्यवस्था धीमी होती जा रही है। अब इसके कारण सऊदी अरब और तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक की कमाई कम हो गई है। सऊदी अरब के पास इतना पैसा है कि उसे एक साल तक चिंता करने की जरूरत नहीं है लेकिन रूस, ईरान जैसे बाकी देशों की अर्थव्यवस्था तेल के दामों से ही तय होती है क्योंकि ये मुख्य रूप से तेल के निर्यात से ही पैसा कमाते हैं।

तेल के कारोबार में इतना पैसा है कि इसकी कमाई का बड़ा हिस्सा अलग-अलग देशों के नाना प्रकार के कारोबार में लगाया जाता है। इस पैसे को हम पैट्रो डालर कहते हैं। जब तेल से कमाई नहीं होगी तो विदेशी निवेश के लिए पैट्रो डालर भी कम होगा क्योंकि इस वक्त दुनिया में मांग नहीं है। इस वजह से भी तेल के दाम कम हैं। कच्चे तेल के लिए जो सट्टा लगता था अब नहीं लग रहा है। इसमें पैसा लगाने वालों को पता चल गया है कि बाजार नहीं है। पैट्रो डालर के फंड मैनेजर अब इस पैसे को सुरक्षित जगहों पर लगा रहे हैं। वापस अमरीका के फंड खरीद रहे हैं। इससे डालर रोज मजबूत होता जा रहा है और इसके मुकाबले हमारा रुपया कमजोर होता जा रहा है।

अब हमें समझना होगा कि मांग क्यों नहीं है? दाम क्यों गिर रहे हैं? पूरी दुनिया में इस वक्त बहस चल रही है कि अर्थव्यवस्था के इस मॉडल में जी.डी.पी. तो बढ़ जाती है लेकिन अमीर और गरीब के बीच की खाई भी उतनी ही बढ़ जाती है। यह एक चिंता का विषय है। भारत के गांवों में भी किसानों की आमदनी गिरने लगी है। कुछ महीने पहले तक मनमोहन सिंह की सरकार दलील देती थी कि मनरेगा और तरक्की के कारण गांवों में पैसा आया है लेकिन ताजा रिपोर्ट बता रही है कि गांवों में मजदूरी पिछले एक साल में बढऩी रुक गई है। नई सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य भी कम बढ़ाया है। अर्थशास्त्री समझा रहे थे कि न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने से महंगाई बढ़ जाती है। कुल मिलाकर कोई इसकी वकालत नहीं करता कि किसानों के पास पैसा आए। भारत की आबादी का 70 फीसदी आज भी किसान ही हैं।

अब इस लिहाज से देखें तो भारत में भी मांग नहीं है। जनधन योजना के तहत 10 करोड़ लोगों ने खाते खुलवाए  हैं। करीब 8 करोड़ खातों में एक भी पैसा नहीं है। क्या यह स्थिति भयावह नहीं है कि लोगों के पास बैंक में रखने के लिए 50 रुपए भी नहीं हैं। वही  हालत शहरी निम्र मध्यमवर्गीय उपभोक्ताओं की है इसलिए जरूरी है कि तेल के दाम का लाभ सबको मिले। बस, ट्रेन से लेकर आटो तक का किराया भी  कम हो। यह सब नहीं हुआ है तब भी जब पैट्रोल के दाम कुछ कम तो हुए ही हैं।

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