मोदी के लिए ‘करो या मरो’ वाला वर्ष होगा ‘2015’

punjabkesari.in Tuesday, Jan 06, 2015 - 04:25 AM (IST)

(पूनम आई. कौशिश) जाने वाला वर्ष यह कहकर गया कि आने वाला वर्ष खुशियों भरा होगा। ‘किन्तु क्या ऐसा होगा?’ प्रश्न अनेक हैं। यह सच है कि गुजरात के ‘बाहरी’ व्यक्ति ‘अच्छे दिन’ और ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ का वायदा कर चुनाव जीत कर दिल्ली की गद्दी पर विराजमान हुए और गत 7 माहों में वह ‘इंडिया राज’ में अंदरूनी व्यक्ति बन गए। विकास से जुड़े मुख्य मुद्दों पर वे सजगता से आगे बढ़ रहे हैं। उनके मूल संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सेनानीगणों पर निरंकुशता का आरोप लग रहा है जिसके कारण लोकतंत्र का कारोबार यथावत जारी है। इससे एक विचारणीय प्रश्न उठता है कि क्या वर्ष 2015 प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए करो या मरो का वर्ष साबित होगा?

भारत में हर चीज की शुरूआत और अंत राजनीति से होती है। इसलिए इसकी आत्मा आज भी महंगाई, असहिष्णुता, आतंकवाद, सांस्कृतिक आतंकवाद, तुष्टीकरण अथवा संघ परिवार का घर वापसी कार्यक्रम और जातिवाद के हमले झेल रही है। इसके अलावा जमीनी स्तर पर कार्य कम हो रहा है। बातें अधिक की जा रही हैं और काम कम हो रहा है।

तथापि मोदी आज भी देश के सबसे ऊंचे कद-काठी के नेता हैं और लोग उनका समर्थन कर रहे हैं। उन्हें निर्णायक जनादेश दे रहे हैं और लोगों का विश्वास है कि वह उनके लिए खुशहाल भविष्य का निर्माण करेंगे। विपक्ष मोदी को ‘मिस्टर यू टर्न’ कह रहा है। विपक्ष का कहना है कि जो कुछ भी वायदे उन्होंने किए हैं अर्थात शासन प्रणाली में बदलाव, भ्रष्टाचार समाप्त करना, विदेशों में जमा काले धन को वापस लाना, विदेशी निवेश बढ़ाना आदि, सभी से वह पलट गए हैं। इन वायदों को अभी उन्हें पूरा करना है।

यही नहीं, अध्यादेश का मार्ग अपनाकर मोदी ने न केवल संसद की सर्वोच्चता और मानदंडों की उपेक्षा की अपितु उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से यह संकेत भी दिया कि वह अपनी मर्जी के अनुसार कार्य करते रहेंगे चाहे उन्हें निरंकुश ही क्यों न कहा जाए। सरकार का कमजोर तर्क है कि इसका कारण विपक्ष की बाधा डालने की राजनीति है। क्या वास्तव में ऐसा है? यदि ऐसा है तो उन्होंने राज्य सभा में आकर धर्मान्तरण विवाद पर स्पष्टीकरण क्यों नहीं दिया। यह सच है कि विपक्ष भी इसके लिए दोषी है। कांग्रेस बीमा विधेयक को समर्थन देने के लिए तैयार थी जिसके अनुसार बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा 26 से बढ़ाकर 49 प्रतिशत की जानी थी। किन्तु उसने राजनीतिक लाभ के लिए सदन को चलने नहीं दिया।

किन्तु भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनस्र्थापन अध्यादेश जारी करना रियायत का लोकतंत्र और  सीधी बिक्री की राजनीति का प्रमाण है। सीधी बिक्री की राजनीति के माध्यम से कुछ उद्योगपतियों के हाथ में राजनीतिक सत्ता चली जाएगी। सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन प्रावधान को कमजोर कर किसान प्रभावित होंगे। इस अध्यादेश में किसानों की आत्महत्या और उनसे जुड़े मुद्दों का निराकरण नहीं किया गया है।

हैरानी की बात यह है कि मोदी ने अभी विकास से जुड़े मुख्य मुद्दों जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, पानी, बिजली और रोजगार आदि पर ध्यान नहीं दिया है। यही नहीं, प्रशासन को चलाने के लिए प्रणाली में सुधार लाने के लिए तथा लोकतांत्रिक संस्थाओं को सुदृढ़ करने के लिए उन्होंने अभी कोई नई सोच नहीं अपनाई है। यथास्थितिवादी नौकरशाही बदलाव का साधन कैसे बन सकती है?

योजना आयोग का नाम बदलकर पहले ही नीति आयोग अर्थात नैशनल इंस्टीच्यूशन फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया कर दिया है और इसे सरकार के लिए नीतियां और दिशा-निर्देश बनाने का कार्य सौंपा गया है ताकि विकास में भारतीयता का दृष्टिकोण अपनाया जा सके। यह आयोग सरकार को नीति और आर्थिक मामलों में रणनीतिक और तकनीकी सलाह भी देगा। यह ग्राम स्तरीय योजनाएं बनाने के लिए तंत्र विकसित करेगा और उसके आधार पर संपूर्ण देश के लिए योजनाएं बनाई जाएंगी। क्या यह नई बोतल में पुरानी शराब नहीं है?

मोदी हिन्दुत्व ब्रिगेड पर अंकुश लगाने में विफल रहे हैं। पिछले माह सरकार अपनी एक केन्द्रीय मंत्री द्वारा ‘रामजादा बनाम हरामजादा’ का बयान देने से उपजे विवाद को शांत करने में भी व्यस्त रही। उसके अलावा भगवा धारियों ने अनेक विवादास्पद बयान दिए। पुनर्धर्मान्तरण का मुद्दा गरमाया। गांधीजी के हत्यारे गोडसे का मंदिर बनाया गया। साधु-संतों को बदनाम करने वाली फिल्म ‘पीके’ के विरोध में सिनेमाघरों में तोड़-फोड़ की गई और ये मुद्दे बहस के विषय बने रहे। इसके अलावा भगवा धारियों में अहंकार बढ़ता गया और उनका कहना है पूर्व आर.एस.एस. प्रचारक के नेतृत्व में हमारी सरकार है।

इसके अलावा सी.बी.आई. आज भी ‘सरकार का तोता’ बनी हुई है। सोहराबुद्दीन हत्या मामले में पार्टी अध्यक्ष को क्लीन चिट दी गई, अन्नाद्रमुक सुप्रीमो जयललिता के मामले में सी.बी.आई. नरम रुख अपना रही है। यह एजैंसी प्रधानमंत्री के विरोधी, जैसे पश्चिम बंगाल की तृणमूल सरकार, के विरुद्ध शारदा घोटाले में कार्रवाई कर रही है।

राजनीतिक दृष्टि से हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और जम्मू-कश्मीर में भाजपा की चुनावी जीत बताती है कि मोदी अभी भी लोकप्रिय नेता हैं। उनके समर्थक बदलाव में सुस्ती के लिए अनेक बहाने बना रहे हैं। उनका कहना है कि आप 7 माह की तुलना कांग्रेस के 60 साल के कुशासन से कैसे कर सकते हैं? कांग्रेस ने खजाने को  लूटा और खजाने में कोई पैसा  नहीं बचा है। उन्हें समय दो। किन्तु उनकी सत्यनिष्ठा और ईमानदारी उनकी सारी आलोचनाओं को हाशिए पर ले आती है। रिश्वतखोरी के मामले में अपने मंत्रिमंडल के सहयोगियों को डांट-फटकार के बारे में अनेक बातें सामने आ रही हैं।

मोदी के विकास एजैंडा अर्थात अधिक आर्थिक सुधारों के कारण ही आज विदेशी निवेशक भारत में रुचि ले रहे हैं। उन्होंने अल्प समय में ही अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि बनने के लिए सहमत कराया। अब सबकी निगाहें इस ओर हैं कि मोदी अपनी विदेश नीति का संचालन किस प्रकार करते हैं। क्या उनके द्वारा 130 करोड़ भारतीय उपभोक्ताओं को विश्व की आर्थिक शक्तियों के समक्ष प्रस्तुत कर भारत के आर्थिक लक्ष्य प्राप्त किए जा सकते हैं? किन्तु राजनीतिक और वित्तीय संस्थानों में जब तक सुधार नहीं होता तब तक यह कार्य बहुत ही जटिल होगा।

प्रधानमंत्री का ‘स्वच्छ भारत अभियान’, ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम और ‘प्रधानमंत्री जन-धन योजना’ अभी पूर्णत: सफल नहीं हुई हैं। ‘राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण’ की उनकी योजना में विलंब हो रहा है। उनकी मंत्री उमा भारती चाहती हैं कि इस पवित्र नदी की स्वच्छता और निगरानी की प्रक्रिया में सेना की मदद ली जाए। गंगा 7 राज्यों से होकर बहती है। क्या सेना हमारी सीमाओं की रक्षा से लेकर आतंकवाद का सामना करने, भारत के सामरिक हितों की रक्षा करने और गंगा की सफाई करने तक के कार्य कर सकती है?

सरकार का आम आदमी का मुद्दा उसके गले की हड्डी बन रहा है क्योंकि खाद्यान्नों, तेल, चीनी, सब्जियों आदि के दाम आसमान छू रहे हैं। साथ ही पानी और बिजली की दरें बढ़ रही हैं। क्या इस वित्तीय वर्ष के अंत में सकल घरेलू उत्पाद में 5.2 प्रतिशत की वृद्धि आम लोगों की समस्याएं दूर करेगी?

यह कहना आसान है। भारत एक जीवंत लोकतंत्र है जहां पर लोगों को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त है। इसके अलावा जैसा कि मोदी कहते आए हैं कि वह लालफीताशाही कम करेंगे तथा विश्वविद्यालयों को अकादमिक स्वतंत्रता और स्वायत्तता देंगे किंतु दिल्ली आई.आई.टी. के निदेशक द्वारा यकायक त्यागपत्र देने के बारे में वह मौन हैं। यह कहा जा रहा है कि उनकी मानव संसाधन विकास मंत्री से बिल्कुल नहीं बनती है। इसके अलावा केन्द्रीय विद्यालयों में जर्मन के स्थान पर संस्कृत को तीसरी भाषा बनाना और भारतीय इतिहास को नए सिरे से लिखना अतीत की ओर पलटने जैसा है।

मोदी की योजना है कि वह हिन्दुत्व तथा आर्थिक मुद्दों और आर्थिक विकास को एक सूत्र में पिरोएंगे। गुजरात पर कई वर्षों तक शासन करने के बाद वह जानते हैं कि आम आदमी क्या चाहता है। वह मध्यमवर्गीय उपभोक्ता की अपेक्षाओं को भी समझते हैं क्योंंकि वह बार-बार अपने
गरीब चाय वाला से लेकर उच्च पद तक पहुंचने की पृष्ठभूमि का बखान करते रहते हैं।

यह सब ठीक है, किन्तु देखना यह है कि क्या वर्ष 2015 मोदी की उपलब्धियों का वर्ष होगा क्योंकि वर्ष 2014 में उन्होंने आम आदमी और युवाओं को अच्छे दिन आने का वायदा किया था जिसमें रोटी, कपड़ा, मकान और नौकरी शामिल है। ‘न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन’ का वायदा कहां चला गया? क्या विकेन्द्रीकृत उत्तरदायी प्रशासन के माध्यम से वह निचले स्तर पर विकास प्रक्रिया में तेजी सुनिश्चित करेंगे ताकि लोगों की बढ़ती अपेक्षाओं और आकांक्षाओं को पूरा किया जा सके। क्या वह संघ परिवार के हिन्दुत्व एजैंडा से ऊपर उठ पाएंगे हालांकि वह भारत की सभी समस्याओं के समाधान का मूल मंत्र विकास को बताते रहे हैं? यह समय ही बताएगा। 


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