जलवायु बदलावों से बुरी तरह प्रभावित होगा ‘कृषि क्षेत्र’

Tuesday, Jan 06, 2015 - 02:56 AM (IST)

(वरुण गांधी) किसान अपनी क्षमता के अनुसार उत्पादन करता है लेकिन बाजार में उसे आपदा की स्थिति में ही अपने उत्पाद बेचने पड़ते हैं। कृषि कार्यों में लगी हुई भारत की आबादी में 1980 से लेकर 2011 के बीच लगभग 50 प्रतिशत वृद्धि हुई है। देश की आधी कार्य शक्ति कृषि क्षेत्र में लगी हुई है। नैशनल सैम्पल सर्वे संगठन के अनुसार देश के 15.61 करोड़ परिवारों में से 57.8 प्रतिशत कृषि पर निर्भर हैं और प्रत्येक परिवार प्रतिमाह औसतन 6426 रुपए की कमाई करता है।

कुल कृषक परिवारों में 33 प्रतिशत ऐसे हैं जिनके पास 0.4 हैक्टेयर से कम भूमि है, जबकि 10 हैक्टेयर से अधिक भूमि रखने वाले बड़े किसान परिवारों की संख्या केवल 0.5 प्रतिशत है। 65 प्रतिशत परिवारों के पास एक हैक्टेयर से कम भूमि है। इतनी कम भूमि पर वे अपने परिवार का पालन-पोषण भी नहीं कर सकते। लगभग 50 प्रतिशत किसान परिवार कर्जे में डूबे हुए हैं और प्रत्येक परिवार पर औसतन 47 हजार रुपए कर्ज है। इसी मजबूरी में वे सूदखोरों के चंगुल में फंसते हैं। कुल ग्रामीण कर्ज में से 26 प्रतिशत सूदखोरों द्वारा दिया जाता है, जो 20 प्रतिशत से भी ऊंची दरों पर ब्याज देते हैं। इसका अर्थ यह है कि किसान परिवार सदा के लिए दरिद्रता का जीवन जीने को बाध्य हैं। उर्वरक और श्रम शक्ति इतने महंगे हैं कि खेती की कुल लागत का 30 प्रतिशत इन्हीं पर खर्च हो जाता है। ‘मनरेगा’ योजनाओं के शुरू होने से मजदूरों की सौदेबाजी की शक्ति बढ़ गई है जिसके कारण उनकी दिहाड़ी भी बहुत ज्यादा हो गई है लेकिन दूसरी ओर कृषि की उत्पादकता में वृद्धि न होने के कारण किसानों को मुद्रास्फीति के कारण भारी नुक्सान उठाना पड़ रहा है।

कुछ व्यवस्थागत गलत परम्पराओं के साथ-साथ बिचौलियों के एकाधिकार में कृषि उत्पादों की कीमतें बेशक बहुत बढ़ा दी गई हैं लेकिन इनका किसान को कोई लाभ नहीं हुआ। पर्याप्त कृषि अधोसंरचना विकसित न होने के कारण बहुत बड़े पैमाने पर कृषि उत्पादों की बर्बादी होती है। कई मामलों में तो यह 25 प्रतिशत तक पहुंच जाती है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली में इतना कुप्रबंधन व्याप्त है कि 40 प्रतिशत तक लीकेज ही हो जाती है। इसके अलावा परम्परागत खेती का सम्पूर्ण अर्थशास्त्र ही अनिश्चय की स्थिति से भरा हुआ है।

सीमित जल, अधिक सिंचाई
भारत में सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध नहीं और इसी के कारण मौसमी बदलावों का कृषि पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। हमारे सिंचाई संसाधन ऊर्जा सक्षम भी नहीं हैं। भारत में भूतल सिंचाई व्यवस्था व्यापक कुप्रबंधन की शिकार है और बहुत से इलाकों में जल जमाव की समस्या है। बेशक सिंचाई की क्षमता काफी अधिक है लेकिन इसके बावजूद वास्तव में कुल कृषि क्षेत्र का 40 प्रतिशत ही सिंचित हो रहा है। देश भर में भूजल की स्थिति एक जैसी नहीं है। जिनके पास अच्छे ट्यूबवैल हैं और जो आॢथक तौर पर सम्पन्न हैं वे अपने जरूरत से कहीं अधिक भूजल का दोहन कर रहे हैं। बेशक भारी-भरकम सबसिडियां दी जा रही हैं, फिर भी लागतें इतनी ज्यादा हैं कि किसान नई तकनीकों को नहीं अपना रहे। ऊर्जा सक्षम कृषि मशीनरी प्रयुक्त करके हम अपनी बिजली की खपत कम से कम 20 प्रतिशत घटा सकते हैं। भूतल का स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है और इस स्थिति में ड्रिप इरीगेशन ही एकमात्र रास्ता बचा है। बरसाती पानी की हार्वैस्टिंग से भूजल को गिरने से रोका जा सकता है। इससे जहां उत्पादकता बढ़ेगी, वहीं सिंचाई के लिए बिजली की जरूरत भी कम होगी।

कृषि क्षेत्र लगातार बदलते नियमों, कानूनों से परेशान है। भंडारण के मामले में उपयुक्त नियमों की कमी के कारण ही भारी मात्रा में खाद्यान्न बर्बाद होते हैं क्योंकि प्राइवेट निवेशक कानूनी अड़चनों के कारण भंडारण में रुचि नहीं लेते। सरकार को खाद्यान्न के वितरण और मूल्य निर्धारण का कारोबार करने की जरूरत नहीं है। सैद्धांतिक रूप में हमारा संस्थागत तंत्र कृषि के लिए बहुत बढिय़ा है लेकिन व्यावहारिक रूप में यह कोई उल्लेखनीय उपलब्धि दर्ज नहीं कर सकता।

उदाहरण के तौर पर ‘नाफेड’ का यह दायित्व है कि वह कृषि क्षेत्र में प्रतिस्पर्धात्मक बाजारों का विकास करे और मार्कीटिंग एवं प्रसंस्करण में सहायता दे लेकिन इसके पास गुणवत्ता वाली श्रम शक्ति की भारी कमी है। जब प्याज के मूल्यों में अत्यधिक वृद्धि हो गई थी तो अपर्याप्त कार्मिक शक्ति के कारण यह इस स्थिति से निपट नहीं पाया था।

कृषि को लाभदायक बनाया जाए
सरकार जोखिम की स्थिति में सहायक हो सकती है। भारतीय कृषि क्षेत्र में बीमे की स्थिति शर्मनाक हद तक दयनीय है। पांच प्रतिशत से भी कम किसानों को कृषि बीमे का लाभ पहुंच रहा है। ठेके की खेती को अधिक प्रोत्साहन देने की जरूरत है और इसके साथ ही विभिन्न कृषि व्यवहारों, इनपुट लागतों और मार्कीट कीमतों के बारे में अधिक सूचना उपलब्ध करवाए जाने की जरूरत है। दीर्घकालिक ग्रामीण ऋण नीति अपनाए जाने की जरूरत है, जो इतनी लचकदार हो कि इसमें अकाल और बाढ़ की स्थितियों से निपटने की क्षमता हो। मौसम की अनिश्चितता और जोखिम से निपटने के लिए फसल बीमा सबसिडियां काफी सहायक होंगी और इससे फसल बीमा के प्रति संस्थागत रुझान को प्रोत्साहन मिलेगा। सूदखोरों को बेशक नैतिक तौर पर बहुत बुरा-भला कहा जाता है लेकिन वे स्थानीय बाजारों के बारे में बहुत गहरी समझ रखते हैं और उन्हें औपचारिक बैंकिंग प्रणाली के अंतर्गत लाया जाना चाहिए। इससे खून चूसने वाली सूदखोरी पर भी अंकुश लगेगा। बदल-बदल कर फसलें बोने, हरी खाद इत्यादि जैसे परम्परागत कृषि व्यवहारों के बारे में बहुत सीमित जागरूकता है। यह जागरूकता बढऩे से जहां कृषि लागतों में कमी आएगी, वहीं भूमि कटाव रुकेगा और भूमि की उर्वरकता में बढ़ौतरी होगी। वातावरण में कार्बन को नियंत्रित करने के लिए एग्रो फोरैस्ट्री को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

‘मनरेगा’ से देहाती क्षेत्र में मजदूरी महंगी हो गई है। इससे कृषि कार्यों के प्रति रुचि भी कुछ कम हो रही है क्योंकि कृषि कार्यों की तुलना में मनरेगा अधिक लाभदायक लगता है। सार्वजनिक और शामलात भूमि एवं चरागाहों व जंगलों की कमी के कारण पशुपालन भी लगातार महंगा हो रहा है।

जलवायु में होने वाले बदलाव हमें बहुत बुरी तरह प्रभावित करेंगे। हमारी कृषि भूमि का लगभग 70 प्रतिशत क्षेत्र ऐसा है जो अकाल से प्रभावित रहता है जबकि 12 प्रतिशत क्षेत्र बाढ़ की मार से और 8 प्रतिशत चक्रवातों से प्रभावित होता है। वातावरण के तापमान में किसी भी तरह की वृद्धि से हमारा कृषि उत्पादन कम होगा।

हमें तकनीकी तौर पर नवोन्मेषी लेकिन कृषि पर केंद्रित पहुंच अपनाने की जरूरत है। बेहतर टैक्नीकल इनपुट्स और वित्तीय प्रोत्साहनों से किसानों को अधिक उत्पादन देने वाली और ऊंचे मूल्यों वाली फसलों (जैसे कि फल इत्यादि) को अपनाने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। ऐसे सुधारों से दीर्घकालिक अवधि में खेती लागतें कम करने में सहायता मिलेगी और ऐसी बाजार व्यवस्था सृजित करने में मदद मिलेगी, जिसमें किसान की भलाई ही हर प्रकार की नीतियों का केंद्रबिन्दु हो। यदि खेती मूल्यों को निर्धारित करने और खाद्य आपूर्ति की सुरक्षा का बेहतर तरीका अपनाया जाता है तो कृषि क्षेत्र में वृद्धि की रफ्तार दहाई का आंकड़ा छू सकती है जिससे गांवों का हुलिया भी शहरों जैसा बन जाएगा।

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